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इंसाफ की जंग जारी : गुलबर्ग सोसाइटी कत्लेआम के चश्मदीदों ने फैसले को चुनौती दी

सात महीनों की बेहद थका देने वाली कवायद के बाद गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार के जीवित गवाहों रूपाबेन मोदी और सायराबेन सांधी ने स्पेशल कोर्ट के जज पीबी देसाई के फैसले के खिलाफ अपील की है। जस्टिस पीबी देसाई ने जून 2016 में गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार में 24 लोगों को दोषी करार दिया था और 36 को छोड़ दिया था। गुलबर्ग सोसाइटी कांड गुजरात में 2002 के दंगों का दूसरा बड़ा नरसंहार था। रूपाबेन मोदी और सायराबेन सांधी, दोनों ने इस हमले में आपराधिक साजिश के आरोपों को खारिज करने के जस्टिस देसाई के फैसले को चुनौती दी है। गुजरात हाई कोर्ट ने पिछले शुक्रवार यानी 3 फरवरी को दोनों की अपील मंजूर कर ली।


 
सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस और उसके वकीलों की टीम गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार के इन जीवित बचे गवाहों की मदद कर रही है। दिलचस्प यह है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से नियुक्त एसआईटी ने अपनी अपील में निचली अदालत के आदेश को चुनौती देने की भी जहमत नहीं उठाई।
 
17 जून, 2016 को स्पेशल कोर्ट ने कांग्रेस पार्टी के पूर्व सांसद अहसान जाफरी समेत 69 लोगों की हत्या में शामिल लोगों में से 24 को दोषी ठहराया था और 36 को छोड़ दिया था। जिन 24 को दोषी ठहराया गया था उनमें से 11 को आजीवन कारावास की सजा दी गई थी और 13 को दस साल जेल की सजा सुनाई गई थी। इन दस लोगों को हत्या का दोषी नहीं ठहराया गया था।
 
कोर्ट का यह फैसला विवादास्पद है। अदालत ने हमले में किसी आपराधिक साजिश के न होने संबंधी गंभीर टिप्पणी की थी। इसके बदले कोर्ट ने यह कहा था कि सांसद अहसान जाफरी की फायरिंग के बाद ही भीड़ ने क्रूर हिंसा का रास्ता अख्तियार किया था।
 
गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार में 69 लोग मौत के घाट उतार दिए गए थे। यह नरसंहार आठ घंटों तक चला था। यह जघन्य नरसंहार सोसाइटी से दो किलोमीटर दूर शाहीबाग में पुलिस कमिश्नर का दफ्तर होने के बाद चलता रहा। पुलिस कमिश्नर का दफ्तर इतना नजदीक होने के बावजूद गुलबर्ग सोसाइटी के लोगों को कोई मदद नहीं मिली।
 
बहरहाल, गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार के जीवित बचे चश्मदीदों रूपाबेन मोदी और सायराबेन सांधी ने गुजरात हाई कोर्ट में अपील कर स्पेशल कोर्ट के उस फैसले को चुनौती दी है जिसमें आपराधिक साजिश के तर्क को खारिज कर दिया गया है। रूपाबेन मोदी और सायराबेन सांधी दोनों गोधरा कांड के एक दिन बाद चमनपुरा की एक कॉलोनी में भड़के दंगे में अपने बेटों को खो चुकी हैं।

दोनों ने 24 दोषियों में से 13 को हल्के अपराध में सजा देने को चुनौती दी है। इन लोगों की सजा बढ़ाने की अपील की गई है साथ ही छोड़ दिए गए लोगों को भी दोषी ठहराने की मांग की गई है।
 
दोनों की अपील ने एक बड़ा और गंभीर सवाल खड़ा किया है। एसआईटी के निष्कर्षों को लेकर गंभीर सवाल खड़े किए गए हैं। ऐसा इसलिए कि एसआईटी ने गुलबर्ग सोसाइटी नरसंहार में अभियोजन पक्ष की इस दलील को खारिज कर दिया कि ये हत्याएं पूर्व नियोजित और एक बडी साजिश का हिस्सा थीं। इस मामले में कोर्ट ने अपने फैसले में कहा था कि साजिश के संदर्भ में जो सबूत पेश किए गए, वे बेहद कमजोर थे और उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था। आपराधिक साजिश की दलील को खारिज करते हुए ट्रायल कोर्ट ने एक गवाह के बयान को लचर और बिल्कुल हास्यास्पद करार दिया था। उस गवाह ने हिंदुओं को यह कहते सुना था कि वे मुस्लिमों को मारने जा रहे हैं। कोर्ट ने इस मामले में तहलका मैगजीन की ओर से किए गए उस स्टिंग ऑपरेशन को भी सबूत के तौर पर स्वीकार करने से इनकार कर दिया, जिसमें आरोपियों को अपराध स्वीकार करते और साजिश रचने की बात स्वीकार करते हुए दिखाया गया था।
 
फिलहाल, जस्टिस एस आर ब्रह्मभट्ट और जस्टिस एजे शास्त्री ने इस अपील को स्वीकार किया। वे अपील के साथ दोषी करार दिए गए लोगों की अपीलों की भी सुनवाई करेंगे। 
 
एक अहम मुद्दा यहां यह भी है कि मुख्यधारा के मीडिया ने अपील दायर करने की खबर देते समय यह बात पूरी तरह छुपा ली गुलबर्गा सोसाइटी नरसंहार में जीवित बचे चश्मदीदों की मदद सिटीजन फॉर जस्टिस एंड पीस यानी सीजेपी की कानूनी टीम कर रही है।
 
अपील के आधार
 
अपील का एक आधार जज पीबी देसाई की ओर से पेश एक तथ्य है कि हमला पत्थरबाजी से शुरू हुआ। उनका यह तथ्य बिल्कुल गलत है। जज ने यह भी कहा कि 10-15 हजार लोगों की भीड़ कोई बड़ी भीड़ नहीं होती। उसका इरादा सोसाइटी में घुसने का नहीं था।

जज का कहना था कि भीड़ अहसान जाफरी की फायरिंग से भड़क गई थी। जज का कहना था कि सोसाइटी में अलग-अलग जगह से आई भीड़ ने हमला किया था इसलिए उनके इरादे अलग-अलग थे। जबकि हकीकत यह थी कि उस दिन इस सोसाइटी को भीड़ ने पूरी तरह घेर रखा था। वहां जाने का कोई रास्ता नहीं था। नौ बजे से ही सोसाइटी पर छत से, रेलवे स्टेशन की ओर से सड़क की ओर से हमला शुरू हो गया था। इनके अलावा पुलिस और अन्य एजेंसियों से जुड़े कई और तथ्य हैं, जिनसे पता चलता है कि फैसले के दौरान वास्तविक तथ्यों की अनदेखी हुई है।

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