गांधीनगर। वाइवा मार्क कम करने की मांग कर रहे जेएनयू से निष्कासित बहुजन छात्रों के समर्थन और जेएनयू प्रशासन के विरोध करने वालों का दायरा बढ़ता जा रहा है। जेएनयू में बढ़ रहे जातीय भेदभाव को लेकर अन्य यूनिवर्सिटी के छात्रों में भी रोष का माहौल है। सोमवार को गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय में अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन और यूनाइटेड ओबीसी फोरम द्वारा निष्कासित बहुजन छात्रों के समर्थन में सयुंक्त रूप से प्रोटेस्ट किया गया।
हस्तक्षेप की खबर के अनुसार, इन संगठनों का कहना है कि छात्रों द्वारा की गयी तीनों मांगों को लागू किया जाये। अगर जेएनयू प्रशासन ऐसा नहीं करता है तो गाँव और दूर दराज़ के छात्रों के साथ भेद-भाव बढ़ेगा और उनको यूनिवर्सिटीज में पढ़ने से अप्रत्यक्ष रूप से रोकने जैसा होगा, जो कि पूरी तरह से असंवैधानिक है।
सभा को संबोधित करते हुए गांधीयन विचार अध्धयन केंद्र के शोधार्थी आकाश कुमार रावत ने कहा कि ओबीसी कैटेगरी आसमान से टपकी हुई कैटेगरी नहीं है। यह संविधान से निकली हुई कैटेगरी है। जो इसका विरोध करता है वह देश का विरोध करता है। अगर जेएनयू वास्तव में प्रगतिशील विचारधाराओ में विश्वास करता है तो उसे सभी समुदाय के लोगों को पढ़ने का मौका देना चाहिए। नहीं तो जेएनयू जिस चीज़ के लिए पुरे विश्व में जाना जाता है उसका अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा।
नैनो साइंस के शोधार्थी यशवंत राव ने कहा कि जे एन यू ने 50% लिखित और 50% इंटरव्यू का नियम इसलिए बनाया क्योंकि मजदूर, दलित, पिछड़ा, मुस्लिम और आदिवासी छात्रों को यूनिवर्सिटीज में पढ़ने से रोका जा सके। जब से बीजेपी सरकार आयी है उसने आदिवासियों की रिसर्च फ़ेलोशिप बंद कर दी जो कि पूरी तरीके से गरीब विरोधी निर्णय है। काफी मुश्किलों में मेहनत करके अगर हम क्लास में आ भी गए तो हमें येन-केन-प्रकरेण तरीके से सस्पेंड कर दिया जाता है जो न्याय और कानून संगत नहीं है। सिस्टम भाषणों में तो ट्रांसपेरेंसी और गुड गवर्नेंस की बात करता है लेकिन प्रैक्टिकल में ट्रांसपरेंसी नाम की चीज दिखती नहीं है, जो समाज के लिए घातक है।
गांधीयन विचार अध्धयन केंद्र के शोधार्थिनी बिरेन्द्री ने कहा कि पढ़ने-लिखने के बाद भी हमारी कास्ट, हमारा रिलिजन हमारा रीजन आदि चीजों से हम बाहर नहीं निकल पा रहे है। हमे इससे बाहर आना चाहिए। आज छात्रों के बातों को दबाया जा रहा है जो सोचनीय है।
हिंदी विभाग के शोधार्थी संतोष यादव ‘अर्श’ ने कहा कि इंटरव्यू बहुजन समाज को सलेक्शन देने के लिए नहीं बल्कि बाहर करने के लिए किया जाता है। जेएनयू को तीसरी दुनिया का सबसे प्रगतिशील विश्वविद्यालय कहा जाता है। लेकिन जेएनयू के प्रगतिशीलता का अंदाजा हम इस बात से लगा सकते है कि वहाँ एक भी ओबीसी प्रोफेसर नहीं है। इस मुद्दे पर जेएनयू की 47 साल की प्रगतिशीलता कहाँ चली गई। अगर वहाँ एक भी ओबीसी प्रोफेसर नहीं है तो जहन्नूम में जाये तुम्हारा वामपंथ और जहन्नूम में जाये तुम्हारा दक्षिणपंथ। हमें हमारा हक़ चाहिए। यह देश हमारा है। इस देश को हम चलाते है। इस देश को हम साफ करते हैं। खेती-किसानी हम करते हैं तो हम प्रोफ़ेसर बनना चाहते हैं तो हम बनेंगे। आप हमे रोक नहीं सकते। हम तब तक लड़ेंगे जब तक जीतेंगे नहीं। हम हार-हार कर लड़ेंगे। लड़-लड़ कर जीतेंगे।
इंटरनेशनल रिलेशन के शोधार्थी सुमेध पराधे ने जेएनयू प्रशासन के निष्कासन पर सवाल उठाते हुए कहा कि कैम्पस से किसी छात्र को निष्कासित करने का एक प्रोसिजर होता है। अगर जेएनयू प्रशासन का ये निष्कासन सही है तो वे किस नियम के तहत निष्कासन किये है उसे बताये और उसके मिनिट्स को ओपन करें। अगर कोई छात्र गलत है तो पहले कोई जाँच कमिटी बैठानी चाहिए जो कि जेएनयू प्रशासन ने नहीं किया।
गांधीयन विचार अध्धयन केंद्र के शोधार्थी आकाश कुमार ने कहा कि जबसे एकेडमिक में रिजर्वेशन पॉलिसी लागू किया गया तब से आरक्षित श्रेणी के छात्रों का रिप्रेजंटेशन बढ़ा है। लोग पढ़े-लिखे-समझे फिर गलत चीज़ो को चुनौती देना शुरू किया। यह बात एलीट क्लास से पच नहीं रही है। अभी जेएनयू में चाहे इंटरव्यू का नंबर बढ़ाना हो या फीस हाईक करना हो या ऐसी अनेक गतिविधियां चल रही हैं कि बहुजनों को कैसे रोका जाय? जो समाज विरोधी है।
हिंदी विभाग के शोधार्थी सियाराम मीना ने कहा कि जेएनयू से जो 12 साथी निकाले गए हैं, वे अपने लिए नहीं लड़ रहे थे। वे भविष्य में आने वाले पीढ़ियों के लिए लड़ रहे थे। आखिर लोगों को अपना हक पाने के लिए क्यों लड़ना पड़ रहा है? क्यों कि सत्ता पर खास लोगों का कब्ज़ा है और वे लोग ग्रामीण अंचल से आये छात्र, दलित आदिवासी ओबीसी और माइनारिटी को बाहर करना चाहते हैं।
गांधीयन विचार अध्धयन केंद्र के शोधार्थिनी सुमन यादव ने कहा कि समाज के सभी समस्याओं का समाधान किसी एक ही विचारधारा से नहीं हो सकता। जेएनयू प्रशासन से अपना हक मांगने वाले छात्रों का निष्काषन दुर्भाग्यपूर्ण है। किसी कार्य के लिए तार्किक दृष्टिकोण का होना जरूरी है और इसी के आधार पर सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़नी चाहिए।
Courtesy: National Dastak