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जस्टिस फॉर जीशाः इंसाफ नहीं मिले तो चुप्पी अपराध है

हाल ही में बर्बर बलात्कार और हत्या की शिकार लॉ स्टूडेंट जीशा से जुड़ी खबरों से देश हिल उठा था। यह घटना निर्भया के साथ हुए अपराध से कितना अलग था? इसने एक बार फिर देश की लाचारगी और शर्म की याद दिला दी। केरल के पेरुंबवूर में तीस साल की दलित युवती जीशा का बर्बर तरीके से बलात्कार किया गया और फिर हत्या कर दी गई। सवाल है कि देश अभी और कितनी जीशा और निर्भयाओं का गवाह बनेगा?
 
क्या हम भारतीय समाज की आधी आबादी की लाचारगी और यातना का एक नया इतिहास रचने जा रहे हैं? यौन हिंसा, उत्पीड़न, छेड़छाड़ और महिलाओं के खिलाफ हिंसा की खबरें बिल्कुल सहज होती जा रही हैं। इससे क्या संकेत निकल रहे हैं!
 
हालांकि भारतीय कानून दलितों के खिलाफ किसी भी तरह के भेदभाव और हिंसा को लेकर सख्त है, लेकिन ऐसे अत्याचार और यातना की घटनाएं आज भी हमारे लिए आम हैं। इंटरनेशनल दलित सॉलिडरिटी नेटवर्क के मुताबिक, 'सवर्ण दबंग जातियां यौन हिंसा सहित दूसरी तमाम हिंसा को समूचे दलित समुदायों को अपमानित करने के औजार के तौर पर काम में लाती हैं।' इसे हर हफ्ते देखा जा सकता है कि औसतन इक्कीस दलित महिलाएं बलात्कार और हिंसा का शिकार होती हैं। उन महिलाओं को 'अछूत' माना जाता है, जहां वे जाति, आर्थिक हैसियत और जेंडर के स्तर पर तिहरी त्रासदी को झेलती हैं। कायदे से इस तरह के घटनाओं से दुनिया को हिल जाना चाहिए। लेकिन क्या महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए की जाने वाली कवायदें काफी हैं?
 
राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के आंकडो़ं के मुताबिक 2012 के मुकाबले महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 6.4 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। दिल्ली में बलात्कार के सबसे ज्यादा यानी 1636 मामले दर्ज हुए। यह संख्या 2012 के आंकड़े यानी 706 का दुगना है। इसके बाद 391 मामलों के साथ मुंबई का दूसरा नंबर है। फिर जयपुर (192) और पुणे (171) का नंबर है। राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो के ये आंकड़े देश में कानून और व्यवस्था की दुर्दशा का बयान हैं।
 
महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मसले पर समय-समय पर अभियान चलते देखे जाते हैं। लेकिन सच यह है कि ऐसे अभियान हिंसा को कम करने और महिलाओं के लिए एक सुरक्षित माहौल तैयार करने में बहुत कम भूमिका निभा पाते हैं। इसकी असली वजह असमानता है जो सबसे पहले लैंगिक पूर्वाग्रहों से पैदा होता है और फिर यह जाति और आर्थिक स्थिति के सामाजिक ढांचे की विषमताओं के साथ जुड़ जाता है। जीशा पर बर्बर हमले की तात्कालिक वजह यही है। फिर भी, ऐसी वजहों से उसका बचाव नहीं किया जा सकता, जो जीशा के साथ हुआ। इसके बजाय जरूरत इस बात की है कि पेरंबवूर के बर्बर कातिल को सजा दिलाने के लिए एक सख्त कानून लाया जाए। सरकार को एक और पहलू को स्वीकार करना चाहिए कि महिलाओं की सुरक्षा सार्वजनिक सुरक्षा का एक अभिन्न हिस्सा है। निश्चित तौर पर यह हिंसा है जो घरों से शुरू होता है। 

अपराधियों को सजा देने के लिए कानून हैं। लेकिन इतना लंबा वक्त क्यों लगता है! क्यों यह तुरंत नहीं होता है? आखिर आज भी हम जीशा के लिए इंसाफ का इंतजार क्यों कर रहे हैं? असली अपराधियों की पहचान और गिरफ्तारी अब भी बाकी क्यों है? क्या हम किसी और दूसरी जीशा के साथ ऐसा ही होने का इंतजार कर रहे हैं?

 
माता-पिता अपने घर में बेटे और बेटी के बीच प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भेदभाव करते हैं। बेटे के जन्मदिन पर बतौर तोहफा उसे खिलौना बंदूक दिया जाता है, जबकि बेटियों को निर्जीव गुड़िया। पत्नी अपने पति के लिए ताजा खाना परोस कर खुद बीती रात की बासी रोटी से संतोष कर लेती है। यह सब मिल कर एक ऐसा समाज बनाता है जहां महिलाएं हर कदम पर समझौता करके ही जीती हैं। वही छोटा बच्चा आगे चल कर 'मर्द' बनता है, जो पड़ोस की किसी भी महिला का रत्ती भर भी सम्मान करना भूल जाता है। पुरुष प्रभुत्व को तरजीह देना एक ऐसा माहौल रचता है जहां किसी महिला के लिए भीड़ भरी बस में अपने लिए सुरक्षित जगह ढ़ूंढ़ना एक संकट का काम होता है। सैकड़ों महिला यात्रियों को जानबूझ कर धक्का दिया जाता है और या तो इसे अनदेखा कर दिया जाता है या फिर चुपचाप सह लिया जाता है।
 
सवाल है कि क्यों? क्या इस देश का कानून शांति से सो रहा है? हरेक घर में लैंगिक हिंसा को बातचीत का मुद्दा बनाने की जरूरत है। उत्पीड़न की सीधे-सीधे पहचान और उससे निपटने के लिए मौजूदा कानूनों के प्रति जागरूकता से हजारों मलालाएं पैदा होंगी, कई जीशाओं को जिंदगी और जीत मिलेगी, जो रोजाना उत्पीड़न का शिकार होती हैं और वह किसी की जानकारी तक में नहीं आता।
 
महिलाओं के खिलाफ हिंसा से निपटने में साधारण लोग अहम भूमिका निभा सकते हैं। वे 'लोग' कोई और नहीं, समाज और 'हम' हैं। और इस समाज को किसी भी तरह की हिंसा के जारी रहने के खिलाफ खड़ा होना होगा। अपराधियों को सजा देने के लिए कानून हैं। लेकिन इतना लंबा वक्त क्यों लगता है! क्यों यह तुरंत नहीं होता है? आखिर आज भी हम जीशा के लिए इंसाफ का इंतजार क्यों कर रहे हैं? असली अपराधियों की पहचान और गिरफ्तारी अब भी बाकी क्यों है? क्या हम किसी और दूसरी जीशा के साथ ऐसा ही होने का इंतजार कर रहे हैं?
 
दरअसल, आम लोगों का विरोध, सही वक्त पर प्रदर्शन, कानून तोड़ने वालों की पहचान महिलाओं की आजादी की सुरक्षा कर तय करेगा। उम्मीद है कि जीशा के लिए इंसाफ के लिए शुरू अभियान भारतीयों को एक ऐसी दीवार बनाने के लिए एक साथ खड़ा करेगी जो हमारी अपनी महिलाओं को भी सुरक्षित करेगी। चुप्पी तोड़िए और आवाज उठाइए…!
 

 

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