किसका आतंक, किसकी कमजोरी


Photo Courtesy: Associated Press

जिलतेन शहर में 7 जनवरी को एक लीबियाई पुलिस कैंप में भारी कार बम फटा। हमले में 60 लोग मारे गए और 200 घायल हो गए। 11 जनवरी को बगदाद समेत इराक के तीन शहरों में बम फटे और 130 लोग मारे गए। 16 जनवरी को आईएसआईएस के लोगों ने सीरियाई शहर दर अज-जोर पर हमला किया और महिला, बच्चों समेत कई सीरियाई सैनिकों को मार डाला। मौतों की संख्या 130 से 300 के बीच होगी। 1 फरवरी को एक फिदाइन हमलावर ने खुद को अफगानिस्तान के नेशनल पुलिस हेड क्वार्टर के बाहर उड़ा लिया और इसमें 20 लोग मारे गए। 29 लोग घायल हो गए।
आठ फरवरी को आईएसआईएस ने इराक के मोसुल शहर में 300 कार्यकर्ताओं, पुलिस और सेना के लोगो को मार डाला। 21 फरवरी को आईएसआईएस ने दो सीरियाई शहरों पर कार बमों से हमले किए। शिया मुस्लिमों की आबादी वाले इन शहरों में 140 से 270 लोगों की मौत हो गई। 300 से ज्यादा लोग घायल हो गए। इस साल मार्च में एक व्यस्त चौराहे पर अंकारा के एक व्यस्त चौराहे पर एक कार बम फटा और कम से कम 37 लोगों की मौत हो गई। इसी महीने तुर्की के सबसे बड़े शहर इस्तांबुल के दुकानों और कैफे से भरे एक इलाके में फिदाइन हमलावरों ने बमों से हमला कर पांच लोगों को मार डाला। 27 मार्च को पाकिस्तान के लाहौर शहर के सबसे बड़े पार्क में फिदाइन हमलावरों  ने बम विस्फोट कर 29 बच्चों समेत 72 लोगों को मार डाला।

मई में बगदाद के आत्मघाती हमलों में 69 से 90 लोग मारे गए। 28 जून को इस्तांबुल के एयरपोर्ट पर आत्मघाती विस्फोट में तीन आत्मघाती हमलों में 45 लोग मारे गए और 200 घायल हो गए। 3 जुलाई को बगदाद में योजना बना कर किए गए हमले में बड़े पैमाने पर लोगों की मौत हुई और वे घायल हुए। उस दिन आधी रात के ठीक कुछ मिनट के बाद करड्डा जिले में एक आत्मघाती कार बम विस्फोट में 300 से ज्यादा लोग मारे गए और कई सौ लोग घायल हो गए। यह सूची अंतहीन है।
 
आईएसआईएस और अन्य आतंकी संगठनों के इन हमलों की पृष्ठभूमि में प्रताप भानु मेहता के लिए अपने दिल की गहराई से कोई लेख लिखना लाजिमी था। उन्होंने फ्रांस के नीस शहर में भारी ट्रक से 84 लोगों को कुचल डालने के भयानक हमले के बाद जो लेख लिखा वह यह बताने के लिए काफी है कि कैसे मिडिल ईस्ट और आतंकवाद पर काफी सहानुभूतिपूर्वक विचार करने वाला टिप्पणीकार भी विस्मृति का शिकार हो सकता है। लेकिन उनकी यह एक मात्र गलती हो तो इस दौर में इसे माफ किया जा सकता है, जब हालात के बारे में सबसे ज्यादा जानने वाला शख्स भी वैचारिक पूर्वाग्रह से अछूता नहीं है।

इस पहलू को मान भी लिया जाए तो उन्होंने अपने लेख में जो विश्लेषण पेश किए हैं, उनमें समस्याएं हैं। इन्होंने इन हालातों से जूझने के लिए जो तरीके या हल सुझाए हैं या फिर उन्होंने जो रुख अख्तियार किया है या फिर हमसे जिस तरह के स्टैंड लेने की उम्मीद करते हैं,उनमें साफ तौर पर दिक्कतें दिखती हैं।

आइए देखते हैं वह क्या कहते हैं-

प्रताप भानु मेहता हमें इस बात के लिए चेताते हैं कि आतंकवाद की घटनाओं के संदर्भ में मनोवैज्ञानिक प्रोफाइलिंग या आतंकी के सामाजिक माहौल को लेकर किए गए विश्लेषण को लेकर ज्यादा आकर्षित न हों। दरअसल यहां मामला खास राजनीतिक एजेंडे का है। अतीत में फ्रांज फैनन, ज्यां पॉल सात्र और एमी सेजर जैसे दिग्गज विचारकों ने कम से कम हमलावरों की इस तरह की मनोवैज्ञानिक प्रोफाइलिंग नहीं भी की है तो कम से कम अमूर्त ढंग से उस सामाजिक और राजनीतिक माहौल का विश्लेषण तो किया ही है, जहां से इस तरह की खास मानसिकता पनपती है। हालांकि यह विश्लेषण उस औपनिवेशिक शिकार शख्स के नजरिये से ही किया गया है, जो आतंकवाद को हथियार बनाता है।
लेकिन इस प्रक्रिया में उन्होंने एक तरफ उस औपनिवेशिक शासन के राजनीतिक एजेंडे को समझाया है तो दूसरी ओर उन लोगों के एजेंडे को भी बताया है, जिन्होंने आतंकवादी हिंसा का दामन पकड़ा है। ऐसे में यह पूछा जा सकता है कि कैसे कोई उन लोगों के राजनीतिक एजेंडे के बारे में सोच सकता है, जिन्होंने आतंकवादी बन कर हथियार उठा लिए हैं। मेहता इन हालातों पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं- ये बिल्कुल सुन्न कर देने वाला माहौल है। हम कितना भी कुछ कह लें इसे कहीं से सही नहीं ठहराया जा सकता।

लेकिन मेहता ने जो तर्क पेश किए हैं उनमें और भी कई दिक्कतें हैं। उदाहरण के लिए वह कहते हैं कि इस्लाम का होना या नहीं होने की बहस इस संदर्भ से बाहर की चीज है। क्या वास्तव में ऐसा है। यहां तो यही सोचना है कि पूरा संदर्भ ही इस्लाम को लेकर है। जो लोग वाम विचारधारा के हैं, उनकी आजकल अक्सर एक शिकायत रहती है कि उन्हें हटा कर जो जगह खाली की जा रही है उस पर दक्षिणपंथी काबिज होते जा रहे हैं। मेहता जो वामपंथी नहीं बल्कि उदारवादी हैं को यह भी यह मानना होगा कि दक्षिणपंथी आइडोलॉग अक्सर इस तरह की खाली जगह पर कब्जा करने की ताक में लगे रहते हैं।

आईएसआईएस के खिलाफ जो लड़ाई है, वह सबसे पहले इस्लाम के विमर्श की लड़ाई है । यह इस्लाम की प्रकृति की लड़ाई है। दरअसल यह सिर्फ धार्मिक आचार-विचार की लड़ाई नहीं है। बल्कि यह कुरान की व्याख्या की लड़ाई है। यहां यह कहा जा सकता है कि पूरे विमर्श का यह वह हिस्सा है जहां बहुत कुछ हो रहा है और बहुत कम समझा जा रह है। यह सिर्फ एक लिबरल इंटेक्लचुअल की ही सीमा नहीं है बल्कि इससे ज्यादा यह वाम इंटेक्लचुअल की सीमा है। लेफ्ट के बुद्धिजीवी अक्सर इस्लामी ताकतों के उदय को एक ही नजर से देखने के आदी हैं। उनका वही घिसापिटा तरीका जारी है कि इस्लामी ताकतों का उदय आततायी साम्राज्यवाद का नतीजा है।

यह वामपंथी और उदारवादी बुद्धिजीवियों का काम है कि वे यह दिखाएं कि मेहता किस तरह से एक हत्याचारी विचारधारा को ही इस्लाम की व्याख्या मान कर चल रहे हैं। इस्लाम के असली विमर्श की जगह उन्होंने आईएसआईएस के धूर्त, एकतरफा, तोड़मोड़ कर और पूरी तरह से नासमझ इस्लामी विश्लेषण को तरजीह दे दी है और उसी से पूरे विमर्श को चला रहे हैं। इस्लाम पर जो विमर्श होना चाहिए उसे आईएस की हिंसात्मक घटनाओं को ढक लिया है।

दूसरी ओर मेहता ने आईएस की इस हिंसा के उद्देश्य और इस तरह हमलों के खात्मे को लेकर जो थ्योरी रची है वह भी इकतरफा है।

मेहता अपने विश्लेषण में कई शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। मसलन – खतरों के प्रति दीवानगी, हिंसा, संघर्ष, दर्द, मौत। ये उनके तर्कों को अप्रासंगिक बना देते हैं। क्या हिंसा के जरिये मौत को इस तरह का सार्वजनिक बना देने का काम सिर्फ इस्लामी ताकतें कर रही हैं। क्या हिंसा, मौत या इस तरह के शब्द नाटों की कार्रवाइयों पर लागू नहीं होते। बास्तिल हमले के कुछ ही दिनों के भीतर यानी 19 जुलाई को इस्लामी स्टेट के कब्जे वाले उत्तरी सीरियाई शहर मंबीज में नाटो के हमले में 120 नागरिक मार डाले गए। मंबीज तुर्की की सीमा से सटा है। मारे गए लोगों में 11 बच्चे थे। दर्जनों घायल हुए थे। सीरिया ने मांग की कि यूएन इस पर एक्शन ले। यूएन को लिखी चिट्ठी में सीरियाई विदेश मंत्री ने कहा कि सीरिया अल-नुसरा फ्रंट और जैश अल-इस्लाम जैसे आतंकी संगठनों को अमेरिका, फ्रांस, सऊदी अरब, ब्रिटेन और कतर की मिल रही मदद की निंदा करता है। यह बेहद खतरनाक है क्योंकि यह साफ है कि अल नुसरा फ्रंट और जैश अल-इस्लाम के आईएस और अल-कायदा से स्पष्ट संबंध है। क्या मेहता ने जो बात आईएसआई की मनोवैज्ञानिक प्रोफाइलिंग में लागू की है वह नाटो ताकतों को संचालित करने वाले दिमागों की साइकोलॉजिकल प्रोफाइलिंग पर लागू नहीं होती। यह समानता यहीं खत्म नहीं होती।
 
मेहता हमें यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि यूरोप में आईएसआई जो हमले कर रहा है वो सुनियोजित हैं। मेहता चाहते हैं कि हम इन खतरों की खास विचाराधारात्मक प्रकृति पर गौर करें। उनका मानना है कि यह सब एक विचारधारा से प्रेरित हैं इस पर गौर करना चाहिए। वह हम पर एक इसे एक ऐसे धार्मिक दृष्टिकोण की तरह देखने का दबाव बना रहे हैं जो अपने आपको एक तरह की कयामत के एजेंट के तौर पर देखता है। वह एजेंट जो एक हत्यारी विचारधारा से प्रेरित है। अब मेहता की इस पूरी व्याख्या में धार्मिक की जगह साम्राज्यवादी शब्द रख दीजिये। अब इस पूरी व्याख्या को अक्षरशः अमेरिकी गठजोड़ के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।

एक मात्र अंतर यह है कि इस तरह की हिंसा फैलाने वाली इस्लामी ताकतें संस्थागत रूपक गढ़ लेती हैं ताकि वे एक मायावी ताकत के तौर पर नजरों से ओझल रह सकें। लेकिन दूसरा पक्ष (नाटो और उसकी सहयोगी ताकतें) इस तरह अमूर्त नहीं रह सकता। दरअसल नाटो ने पिछले दशकों के दौरान साम्राज्यवादी युद्ध के लिए जो हिंसा की है उसका तरीका काफी मूर्त रहा है। मसलन उसने हथियार उद्योग में काफी निवेश किया है।इस क्षेत्र में टेक्नोलॉजिकल एडवांसमेंट के लिए इसने कई पहल की है।पश्चिम देश हथियार की ताकत में बहुत आगे रहे हैं लिहाजा यह ज्यादा नुकसान पहुंचाने का जिम्मेदार है। लेकिन मेहता इस पहलू पर विचार नहीं करते। क्या वह यहां मौत के प्रति कोई दीवानगी और परमाणु हथियार उद्योग का तुच्छ और सर्वनाशी रवैया नहीं देखते। राज्य को अपना प्रवचन देते हुए वह और भी नासमझी भरा उत्साह दिखाते हैं। इस बारे में उनका नौसिखियापन तब उजागर हो जाता है, जब वह आतंकियों की हिंसात्मक घटना के बारे में जिक्र करते हुए बताते हैं कि राज्य को हिंसा से उपजी लाचारगी से कैसे जूझना चाहिए। जब मेहता कहते हैं कि आतंकी हमले की ये घटनाएं यूं ही नहीं किसी सुनियोजित साजिश के तहत की जा रही है तो वे एक गलत दिशा में मुड़ जाते हैं।

मेहता को बलूचिस्तान में ड्रोन अटैक में सुनियोजित साजिश नहीं दिखाई देती लेकिन फ्रांस में ट्रक के हमले में दिखाई देती है। वह पूरे विमर्श को ऐसी शक्ल देना चाह रहे हैं जिसमें एक तरह अच्छी, उदार और सभ्य दुनिया के तौर पर पश्चिमी देश खड़े हैं तो दूसरी ओर बर्बर इस्लामी ताकतें। आश्चर्य है उन्हें 1991 का पहला इराकी युद्ध नहीं दिखता, जिसमें अमेरिकी हमले में पूरी एक सभ्यता ही खत्म हो गई। अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से एक दशक में दसियों लाख बच्चे मर गए। यही नहीं कुछ लिबरल पत्रकारों के उकसावे में जॉर्ज डब्ल्यू बुश और टोनी ब्लेयर की ओर से 2003 में इराक पर किए गए हमले में हजारों पुरुष महिलाएं और बच्चे मारे गए। कर्नल गद्दाफी की मौत में हिलेरी क्लिंटन ( हाल के विकीलिक्स से जाहिर) की भूमिका की ओर  मेहता का ध्यान नहीं गया। 2011 में क्लिंटन की मौत पर पश्चिमी देशों की ओर से जताई खुशी खुलेआम जाहिर हुई। मेहता का ध्यान इस ओर नहीं गया। मेहता का ध्यान इस तरफ भी नहीं गया कि क्लिंटन के सबसे बड़े समर्थकों में इजराइल लॉबी और हथियार कंपनियां थीं और उन्होंने ही मध्य पूर्व में यह आग भड़काई। इसके दस्तावेजी सबूत हैं कि किस तरह सीनेटर जॉन मैक्केन ने कहा था कि वह सीरिया में आईएस के संपर्क में थे। आईएस के लोगों के सामने खुल कर आने से पहले इराक का उनसे संपर्क मैक्केन के बयान से जाहिर हो गया था। मेहता को पढ़ने से नाटो के रक्तरंजित अतीत और वर्तमान का कुछ पता नहीं चलता। यही नाटो जिसका फ्रांस भी सदस्य है और जहां हमले होने पर मेहता अपने विमर्श का चरखा चला रहे हैं।

 मेहता के उठाए चार मुद्दों पर कुछ और विचार

पहला मुद्दा
मेहता इन बातों की पैरवी करते दिखाए देते हैं कि अब लोगों की निगरानी बढ़ा दी जाए। इमरजेंसी पावर लगाई जाए। प्राइवेसी अधिकारों में कटौती की जाए। इन हमलों के बाद लोगों में जो बेबसी पनपी है उसकी क्षतिपूर्ति के एवज में मेहता इन कदमों का समर्थन करते दिखते हैं। उनका कहना है कि लोगों की निगरानी और उनकी प्राइवेसी अधिकारों में यह कटौती चलती रहेगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन कदमों से समस्या खत्म हो जाएगी। वह यह सोचने को तैयार नहीं हैं कि लोगों को संयमित करने की ये कवायदें अत्याचारों में तब्दील हो जाती हैं। इससे राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले एक फीसदी लोगों की तुलना में 99 फीसदी शांतिप्रिय नागरिकों को दिक्कत होती है। और अंत में जब इमरजेंसी वैध शक्ल अख्तियार कर लेती है तो अपनी ही जनता पिसती है। तुर्की इसका हालिया उदाहरण है। फ्रांस पर यह हमला आतंकवाद के खिलाफ गठबंधन में इसके सहयोग की वजह से हुआ है। फ्रांस ने ही पहले खून की होली खेली, जब यह सीरिया के खिलाफ अमेरिकी गठबंधन में शामिल हुआ।

दूसरा मुद्दा
मेहता 9/11 के हमले के खिलाफ आतंकवाद खत्म करने के अभियान के बहाने पूरी दुनिया में अमेरिकी ऑपरेशन के विस्तार की बात तो स्वीकार करते हैं और मानते हैं कि इससे स्थिति और खराब हुई है लेकिन फिर वह उल्टी दिशा में मुड़ जाते हैं और बताते हैं कि ओबामा ने किस तरह फ्रांस में ट्रक हमले के बाद संयम की अपील की।
अमेरिकी, ऑस्ट्रेलियाई और ब्रिटिश विदेश नीति के कटु आलोचक रहे पत्रकार जॉन पिलगर का कहना है कि ओबामा शासन ने सबसे अधिक परमाणु हथियार,वारहेड्स बनाए। इसने सबसे ज्यादा न्यूक्लियर डिलीवरी सिस्टम और न्यूक्लियर फैक्टिरयां स्थापित की। किसी भी अन्य राष्ट्रपति की तुलना में ओबामा शासन में सबसे ज्यादा खर्च न्यूक्लियर वार हेड्स पर हुए। पिलगर कहते हैं कि ज्यादातर अमेरिकी लड़ाइयां रिपब्लिकन ने नहीं बल्कि डेमोक्रेट्स राष्ट्रपति ने शुरू किए। जैसे- ट्रूमैन, कैनेडरी,जॉनसन, कार्टर, क्लिंटन और ओबामा। ओबामा ही बलूचिस्तान में कत्लेआम के लिए ड्रोन भेजते हैं। न्यूयॉर्क टाइम्स के मुताबिक हर मंगलवार को ओबामा को एक लिस्ट थमाई जाती है, जिसमें ड्रोन हमले के जरिये मारे जाने वाले लोगों के नाम होते हैं। ओबामा इस लिस्ट में मौजूद नामों को देख कर अपनी सहमति देते हैं।  

तीसरा मुद्दा
मेहता यह दिखाना चाहते हैं कि ऐसे हमलों से पैदा बेबसी के भाव में दक्षिणपंथी ताकतों का उभार बढ़ेगा। उनका मानना है कि अपनी खोई ताकत को बहाल करने के अलावा दक्षिणपंथियों के पास कोई चारा नहीं बचेगा। इसके अलावा उनके पास कोई रणनीति नहीं होगी। हालांकि यह सच है लेकिन यह भी सच है कि दक्षिणपंथी, जिहादी तकतों से कम खतरनाक नहीं हैं। यह 2011 नार्वे के आंद्रेस बेहरिंग ब्रेविक से पता चलता है। इसी दिन म्यूनिख में एक अकेले शूटर अली सोनबोली ने हमला किया था। यह घटना आंद्रेस बेहरिंग ब्रेविक की घटना की 5वीं बरसी पर हुई थी, जिसमें एक दक्षिणपंथी चरमपंथी ने 77 लोगों को मार डाला था। इसलिए चुनौती अब यह है कि क्या सेंटर लिबरल, लोगों की कथित बेबसी की वजह से खाली हो रही अपनी जमीन पर दक्षिणपंथियों को कब्जा करने से रोक पाएंगे। या फिर उनके विचारधारा के प्रभाव को वैचारिक स्तर पर लगाम लगा सकेंगे। आखिर सांस्कृतिक बहुलता उतनी नहीं पसर पाई है, जितनी पसरनी चाहिए। दरअसल सांस्कृतिक बहुलता स्थापित करना असंभव नहीं है लेकिन मुश्किल जरूर है। न सिर्फ इसकी सीमा के भीतर बल्कि सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक अंतर के दायरे के बाहर भी। यूरोपीय संकट चाहे वह ग्रीस का मामला हो या फिर ब्रेग्जिट, ने यह साबित कर दिया है कि यूरोप की सामाजिक लोकतांत्रिक भंगिमा किस तरह खोखली है। कुछ देशों ने शरणार्थियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया जरूर अपनाया लेकिन इसने सामाजिक लोकतांत्रिक समाज की सीमा उजागर कर दी। ऐसा नहीं है कि यूरोपीय यूनियन का आदर्श फेल हो गया है लेकिन इसने मध्यमार्गी उदारवादी विमर्श की सीमाएं खींच दी है। ऐसी स्थिति में ज्यादा रेडिकल लाइन की जरूरत है, जिसकी तरफ स्लावोज जिजेक और यानिस वेरूफेकिस इशारा कर रहे हैं। इसका मतलब यह कि साम्राज्यवादी युद्ध के मुद्दे से सीधे टकराया जाए। इसी मुद्दे ने शरणार्थी समस्या पैदा की है। बजाय कि नाटो के दबाव में आने के , ऐसा माहौल बनाया जाए जिसमें नाटो पर दबाव बनाया जा सके या इसे डांटने का नैतिक बल प्राप्त किया जा सके। उन बलों के खिलाफ एक नैतिक गठबंधन बनाना होगा, जो यूरोप की लोकतांत्रिक ताकतों को कमजोर करने के साथ बशर अल असद और गद्दाफी जैसे कथित असुविधाजनक ताकतों को उखाड़ने को तत्पर दिखी हैं।
 आखिरी मुद्दा

चौथा मुद्दा जिसकी ओर मेहता ने इशारा किया है, वह यह कि आतंक  के खिलाफ युद्ध किस तरह जियोपॉलिटकल रस्साकशी में फंस गया है। क्या बड़ी ताकतें अपने मतभेदों को भुलाएंगी और इस युद्ध को जीतने के लिए जो करना चाहिए वो करेंगी। क्या सांस्थानिक, आर्थिक जैसे कई समस्याओं से जूझते हुए कमजोर हो चुका यूरोप इस सवाल का जवाब देने के लिए तैयार है कि वे ऐतिहासिक रूप से किस तरह का समुदाय है।ये अहम सवाल और धारणाएं हैं।
चौथा मुद्दा या सवाल इसलिए अहम है क्योंकि इसे उठा कर मेहता न सिर्फ यूरोप की अतीत की महानता बल्कि शर्मनाक इतिहास की ओर भी याद दिला रहे हैं।  खास कर फ्रांस के बास्तिल के संबंध में, जिसके बारे में दार्शनिक एलेन बेदू ने कहा था कि इसके दो इतिहास हैं। एक स्तर पर तो यह  महान दार्शनिक रूसो और 1789 की  महान फ्रेंच क्रांति, प्रसिद्ध पेरिस कम्यून, पॉपुलर फ्रंट और प्रतिरोध, आजादी का का प्रतिनिधित्व करता है तो दूसरी ओर यह 1815 के रेस्टोरेशन, महान युद्ध के दिनों के धार्मिक गठजोड़ और अल्जीरिया क्रांति के दौरान के भयानक युद्ध समेत कई काले अध्यायों की ओर भी ध्यान दिलाता है।आखिर में मेहता सभ्यता के बारे में जिस आशावादी नोट के साथ अपना लेख समाप्त करते हैं और सवाल करते हैं, उसके जवाब में गांधी का एक जवाब बिल्कुल सही है कि अच्छे विचार ही सभ्यताओं को सुरक्षित रखेंगे।
 
 मिलिंद वानी एनवायरनमेंट एक्शन ग्रुप कल्पवृक्ष से जुड़े हैं। और पीपुल इन कंजरवेशन डॉक्यूमेंटशन एंड आउटरीच के एडीटर हैं।  
 

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