कंधमाल के खंडहरों की चीखें और एक फिल्म देखते हुए मेरा रोना

 

कंधमाल मेरे लिए कोई नया विषय नहीं है। काउंटरकरेंट्स डॉट ऑर्ग ने दो नवंबर 2003 को अंगना चटर्जी का लिखा एक लेख प्रकाशित किया था- 'ओड़िशाः अ गुजरात इन द मेकिंग।' यह लेख 2008 में कंधमाल में हुए आधुनिक भारत में ईसाइयों के खिलाफ सबसे बर्बर दंगों के पांच साल पहले छपा था, जिस दंगे में तिरानबे लोग मारे गए, आदिवासी ईसाइयों और दलित ईसाइयों के साढ़े तीन सौ से ज्यादा पूजा-स्थलों को नष्ट कर दिया गया, लगभग साढ़े छह हजार घरों को जला या ढाह दिया गया, चालीस से ज्यादा महिलाओं का बलात्कार किया गया, यौन हिंसा, बेईज्जती की गई और अनेक शैक्षिक संस्थानों, सामाजिक सेवाओं और स्वास्थ्य संस्थानों को तोड़-फोड़ दिया गया या लूट लिया गया। छप्पन हजार से ज्यादा लोगों को अपनी जमीन छोड़ कर भागना पड़ा। इस त्रासद और खौफनाक घटना के बाद काउंटर करेंट्स ने तथ्यों का अध्ययन, विश्लेषण, विचार और जमीनी रिपोर्ट सहित दर्जनों लेख छापे थे।

मैं 2015 में कंधमाल के दौरे पर गया था और कंधमाल के जमीनी हालात पर विस्तार से रिपोर्ट लिख सका। मैंने कंधमाल हिंसा में अपने पति को गंवा चुकी दर्जनों ऐसी महिलाओं से बातचीत की। जब मैं उनका इंटरव्यू ले रहा था तो उन लोगों ने मेरी तरफ कुछ ऐसे देखा था जैसे कोई उनकी बेहद दयनीय हालत और परेशानी में थोड़ी राहत पहुंचाएगा। वे तमाम लोग हिंदुत्ववादी ताकतों की ओर से धमकी का सामना कर रहे थे और अपने गांव में नहीं लौट सकते थे। उनमें से ज्यादातर देश के अलग-अलग हिस्सों में घरेलू नौकरों, टेलर और इसी तरह के दूसरे बहुत छोटे-मोटे काम करके अपने तबाह हो चुके परिवारों को जिंदा रखने की कोशिश में लगे हुए थे। वे शायद ही जानते रहे हों कि मेरी तरह का कोई बेहद मामूली पत्रकार उनके लिए कुछ भी खास नहीं कर सकता था। उनकी आंखों में बसी उम्मीद से मैं सचमुच स्तब्ध था।

यह सब देख कर भी मैंने खुद को शांत बनाए रखा था और अपनी 'ड्यूटी' पूरी कर रहा था। मैं तबाह हो चुके घरों के अलावा एक ऐसे घर में भी गया जिसमें एक बुजुर्ग महिला को जिंदा जला दिया गया था। एक चर्च, जिसे गौशाले में तब्दील कर दिया गया था। मैं रैकिया में हजारों पीड़ितों के जुलूस में साथ था। रैकिया कंधमाल में आरएसएस-संघ परिवार की हिंसक गतिविधियों का केंद्रीय स्थल था। मैंने तमाम मुसीबतों और सरकार की उदासीनता के बावजूद उन पीड़ितों की ओर से पेश की गई सामूहिक चुनौती और उनका हौसला देखा, जिन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव के लिए साथ आकर एक आंदोलन खड़ा कर दिया। लोगों के साथ जुलूसों में साथ चलते हुए मैं इस बात को लेकर आश्वस्त था कि आरएसएस-संघ परिवार के लोग अब कंधमाल में 2008 को कभी नहीं दोहरा सकेंगे।

इसी महीने की उन्नीस तारीख को मैं कालीकट में केपी केशव मेनन हॉल में उन दर्शकों के बीच था, जो केपी शशि की डॉक्यूमेंटरी फिल्म 'वॉयसेज फ्रॉम द रुइन्सः कंधमाल इन सर्च ऑफ जस्टिस' देख रहे थे। शशि मेरे अच्छे दोस्त रहे हैं और मैंने उनसे भी कंधमाल की उन घटनाओं के बारे में काफी सुना। मैंने इस फिल्म के शुरुआती संपादित रूप भी देखे। मैं जानता था कि इस फिल्म को बनाते हुए उन्हें किस दर्द और मुसीबतों से गुजरना पड़ा होगा। जब मैं अंधेरे में बैठा स्क्रीन पर चल रही इस फिल्म के दृश्यों से गुजर रहा था, तब असल में मैं एक बार फिर से कंधमाल की हिंसा को जिंदा होते देख रहा था। हिंसा की नंगी और खौफनाक कहानियां, पीड़ितों की लाचारगी, उन हिंदुओं की हिम्मत, जिन्होंने अपनी जान पर खेल कर बहुत सारे ईसाइयों को बचाया, इंसाफ तय करने में सरकारी और न्यायिक उदासीनता और आखिरकार एक ऐसे उदार भारत के निर्माण की उम्मीद, जो मजहबी भाईचारे के जरिए सांप्रदायिक ताकतों की धूर्त और बेईमान मंशा को खारिज करेगी, हराएगी। समूची फिल्म और खासतौर पर आखिरी दृश्य ने मेरे जज्बातों को बेचैन कर दिया और मैं रो पड़ा।

इस फिल्म को देखने के तुरंत बाद मुझे इस पर अपनी राय जाहिर करने के लिए मंच पर बुलाया गया। मैंने अपने आंसू पोंछे और मंच पर गया। अब भी मैं अपने आंसू नहीं रोक पा रहा था। मैं भीतर से बेहद परेशान और शर्मिंदा था। मैंने दर्शकों को कहा कि यह फिल्म दरअसल भावनाओं के जरिए एक क्रांतिकारी कार्रवाई पैदा करती है। शशि की फिल्म हजारों किलोमीटर दूर हुई एक घटना के बारे में लोगों के जज्बात को झकझोरने में सक्षम है और अब यह तय करना हमारी जिम्मेदारी है कि पीड़ितों को इंसाफ मिल सके।

हालांकि मैं शशि की फिल्म को देखते हुए अपनी भावनाओं पर काबू पाने की कोशिश कर रहा था, लेकिन यह केवल रुलाने वाली फिल्म भर नहीं है। यह कंधमाल की हिंसा का एक बेहद शांत मन से किया गया अध्ययन है। यह फिल्म अतीत में जाकर उन चीजों के बारे में गहराई और विस्तार से बताती है कि आरएसएस-संघ परिवार के लोग कैसे लगातार नफरत के अभियान चला कर धीरे-धीरे कंधमाल की नसों में घुस गए। माओवादियों द्वारा स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या को कैसे सांप्रदायिक ताकतों ने आदिवासी और दलित ईसाइयों के कत्लेआम के लिए इस्तेमाल किया। यह फिल्म दिखाती है कि वह कत्लेआम उस स्वामी की हत्या की कोई तात्कालिक प्रतिक्रिया भर नहीं था, बल्कि अल्पसंख्यकों पर एक सुनियोजित हमला था। इसके बाद यह फिल्म न्याय देने की प्रक्रिया का भी विश्लेषण करते हुए बताती है कि कैसे यह पीड़ितों को इंसाफ देने में नाकाम रही। आखिर में यह फिल्म वहां के पीड़ितों की ओर से अपने पैमाने पर खड़ा किए गए एक ठोस प्रतिरोध आंदोलन और तमाम राजनीतिक खेमेबंदियों को तोड़ कर साथ आए पीड़ितों के समर्थन को दिखाते हुए एक उम्मीद के साथ खत्म होती है।

कंधमाल के मसले पर इतना भावुक हो जाने वाला मैं अकेला नहीं था। 2015 में मैंने देखा था कि स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के आरोप में फूलबनी जेल में बंद सात निर्दोष दलित-आदिवासी ईसाइयों से मिलने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की पोलित ब्यूरो सदस्य बृंदा करात अपने आंसू पोंछ रही थीं। विचित्र है कि उस सांप्रदायिक हिंसा से संबंधित किसी भी मामले में सिर्फ यही लोग दोषी ठहराए गए और अब तक जेल में बंद हैं। हां, भारत कंधमाल में इन गरीब आदिवासियों-दलितों को इंसाफ देने में नाकाम रहा। शशि अपनी फिल्म में इस हकीकत को पूरी ताकत से सामने लाते हैं। यही वजह हो सकती है कि मैं इस फिल्म को देखते हुए रो पड़ा।
 

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