कश्मीर पर हम शर्मसार हैं – आनंदी पांडे, उम्र 15 साल

जिंदगी की जंग है कश्मीर की जंग

मेरे दोस्त क्या आप आजकल अखबार पढ़ रहे हो? पढ़ना जरूरी है। आपको हमारी करतूतों के बारे में तो जानना ही चाहिए? हां, वैसे आजकल आप कर क्या रहे हैं? आपने हजारों कश्मीरियों की जान ले ली है। सिर्फ इसलिए कि वे आजादी चाहते हैं। कुछ लोग कहेंगे कि पाकिस्तान कश्मीर पर कब्जा करना चाहता है। कुछ कहेंगे भारत इस पर कब्जा बनाए रखना चाहता है। लेकिन हम यह भूल रहे हैं कि कश्मीरी न तो पाकिस्तानी हैं और न ही हिन्दुस्तानी। वे सिर्फ कश्मीरी हैं। वे कश्मीरी ही रहना चाहते हैं। न इससे ज्यादा और न इससे कम।

Injured kashmiri Girl
Image: Shuaib Masoodi / Indian Express
 
लेकिन हम क्या हैं? हम इंसान हैं और इंसान के तौर पर हम जो काम बेहतर तरीके से करते हैं, करना चाहिए। हमें बेकसूरों का कत्ल करना चाहिए। उसमें जो थोड़ी-बहुत सच्चाई बची है, उसे खत्म कर देना चाहिए। हमें उन्हें इंसान भी नहीं समझना चाहिए। हमारे लिए तो यह भारत और पाकिस्तान की लड़ाई है। … और इसके अलावा हर चीज बस एक तकनीकी मुद्दे के अलावा और कुछ भी नहीं है। बाकी हर चीज को नजरअंदाज कर दीजिये।
 
आपने बिल्कुल सही समझा? हमें उस 11 साल के बच्चे नासिर को भी नजरअंदाज कर देना चाहिए, जो पैलेट गन का शिकार होकर इस दुनिया से रुखसत हो गया। हमें इस बात को नजरअंदाज करना चाहिए उसके शरीर और चेहरे पर कितने लोगों के पैरों के निशान पड़े थे। हमें यह भी नजरअंदाज करना होगा कि उसके कान नीले पड़ गए थे। यह भी कि उसकी मुट्ठियां खुल नहीं सकती थीं क्योंकि उसकी उंगलियां बुरी तरह तोड़ दी गई थीं। यह भी कि जब उसकी बहन ने उसके सिर के पीछे हाथ लगाया तो यह खून से सन गया। हमें इस बात को भी नजरअंदाज करना होगा उसकी पीठ पैलेट गन के निशाने से बुलबुले वाली प्लास्टिक सीट की तरह लग रही थी। जैसे यह पीठ की चमड़ी न होकर निशाना लगाने की कोई दीवार हो।
 
……और हमारी सरकार कह रही है कि पैलेट गन नुकसानदेह नहीं है। इसलिए इससे मर्डर का सवाल ही नहीं उठता। नासिर की उम्र महज 11 साल थी। उस नन्ही जान ने ऐसा क्या जुर्म कर दिया था, जिससे उसे मौत दी दी गई। क्या उसने किसी की जान ले ली थी। बिल्कुल नहीं। जान तो हमने ली है। उसने जिंदगियां बरबाद की होंगी। नहीं, बिल्कुल नहीं। यह भी हमने किया है। उसने बड़ी बेरहमी से दूसरों को चोट पहुंचाई होगी। इसका भी जवाब नहीं में है। यह सारे काम तो हमने किए हैं।
 
बदकिस्मती यह है कि सिर्फ 11 साल का नासिर ही नहीं ( यहां मेरे ये शब्द भी कश्मीर के हालात को बयां नहीं कर पा रहे हैं) तमाम कश्मीरी जनता, नवजात से लेकर 90 साल के कब्र में पैर लटकाए बुजुर्ग, गर्भवती महिलाओं से लेकर विकलांगों और बेहतर भविष्य वाले जहीन बच्चे से लेकर तमाम औरत-मर्दों की जिंदगी उलट चुकी है। हमारे और आप जैसे बच्चों से लेकर बड़े लोगों यानी हमारे पैरेंट्स की जिंदगी पूरी तरह बदल गई है। इस कश्मीर में इन सारे लोगों की जिंदगी घिसट रही है। धरती की जन्नत मानी जाने वाली इस धरती पर रह रहे ये लोग बेकसूर हैं लेकिन धीरे-धीरे मर रहे हैं। देह से भले ही ये मौत की तरफ न बढ़ रहे हों लेकिन उनकी मानसिक मौत जारी है।
 
क्या आप खुद को एक सेकेंड के लिए इन हालातों में होने की कल्पना कर सकते हैं? क्या आप पैलेट गन की गोली से बच कर सुरक्षित घर लौटने या मारे जाने की कल्पना कर सकते हैं? क्या आप ऐसी स्थिति की कल्पना कर सकते हैं, जब आप जिधर देखें आपको बंदूक थामे सिपाही नजर आएं। क्या आप हर रात यह सोचते हुए बिस्तर में जा सकते हैं कि कल जिंदा बचूंगा या नहीं? क्या आप हर वक्त डर के साये में जी सकते हैं। 

यह डर आपको अंदर ही अंदर मार डालेगा। आपके दिमाग की नसों को खा जाएगा। आप जिंदा लाश बन जाएंगे। भय, सिहरन, झुरझरी और अवसाद आपको घेर लेगा। किसी के लिए यह दोजख साबित होगी। मेरे लिए? जी हां मेरे लिए भी।
 
ये कश्मीर के हालात नहीं हकीकत हैं। आपसे हजारों किलोमीटर दूर की एक हकीकत। जब आप अपने आरामदेह कंबलों में लिपटे हुए चाय की चुस्कियों के साथ टीवी देख रहे हों तो मुमकिन है कश्मीर में लोगों की लाशें मच्छरों की तरह गिर रही हों। उसी तरह जैसे मच्छर मारने की दवाई छिड़कने या लगाने पर झुंड दर झुंड ये मारे जाते हैं। इससे ज्यादा दुखद स्थिति और क्या हो सकती है….. और हम कहते हैं कि हम तो इंसान हैं।
 
यह सोचने वाली बात है। ऐसे हालात में कुछ न कुछ करने की जरूरत है। हम कुछ कर क्यों नहीं रहे हैं। हम न्यूजपेपर में कश्मीर के बारे में पढ़ते हैं और इसे कश्मीर मुद्दा कहते हैं। हमें लगता है हम जो पढ़ रहे हैं वही हो रहा है। मसलन –
 
एक शख्स की मौत…. कितना दुखद।
भारतीय सेना ने कार्रवाई की।… यही इस मर्ज की दवा है।
पाकिस्तानी सेना ने हमला किया।….. यह तो होना ही था।
लोगों की जिंदगियों पर कर्फ्यू लग चुका है।….. ठीक है, ऐसा होना लाजिमी है। 
 
जी नहीं। यह बिल्कुल लाजिम नहीं है। हम इंसानों की बात कर रहे हैं। हम उन लोगों की बात कर रहे हैं जो घायल हो रहे हैं, कत्ल किए जा रहे हैं पीटे जा रहे हैं। हम जिंदा की इंसानों की बात कर रहे हैं। क्या हम ऐसा नहीं कर रहे हैं।
 
हम सिर्फ इन चीजों को तथ्य या घटनाएं कह कर खारिज नहीं कर सकते। कश्मीर के लोग अच्छी जिंदगी के हकदार हैं। एक बेहतरीन जिंदगी के हकदार। और कुछ नहीं कर सकते तो उनके प्रति संवेदनशील तो हो सकते हैं। क्या आप ऐसा करेंगे। अगर नहीं कर सकते हैं तो कुछ और करिये।
 
मैं दरख्वास्त करती हूं। कुछ भी करिये, वहां के लोगों और हालातों को खारिज मत कीजिये। अगर आप इसके बारे में सोच रहे हैं तो कम से कम इन हालातों की चर्चा तो कीजिये। इससे एक अच्छी तस्वीर बन सकती है। भले ही आपको लगे कि ऐसा संभव नहीं है।
 
इसे पढ़ने के बाद हो सकता है आप सोचेंगे और फिर भूल जाएंगे। लेकिन क्या यह भूलने वाली बात है। मुझे नहीं लगता कि यह चीज कभी दिमाग से हटेगी। इस त्रासदी की इबारतें उन हजारों कश्मीरियों के दिमाग में तब तक उभरी रहेंगे जब तक वे जिंदा रहेंगे। हां, उनके लिए जिंदा रहना भी तो एक नेमत ही है।
 
कश्मीरियों के लिए खून, गोलिया, लाशें और खौफ जिंदगी का हिस्सा बनता जा रहा है। यह डरावना सपना है। सपना भी नहीं हकीकत है। हमारी और हमारी तरह ही ये हालात भी वहां की तरह हकीकत हैं।

आप सांस में हवा लेते हैं। लेकिन मौत ही उनकी सांसें हैं। आप खाना खाते हैं, कश्मीर आदमियों को खाता है। आप पानी में नहाते हैं। कश्मीर में लोग खून में नहा रहे हैं।
 
फिर भी हमारी सोच अभी तक कश्मीर नाम के जन्नत पर अटकी है। यहां भारतीय अपनी कहानी कहते हैं और पाकिस्तानी अपनी सोच बयां करते हैं।… और मीडिया पाठकों और दर्शकों को ये दोनों नजरिया बेचता है। हमारे और आपके जैसे पाठकों को।
 
पाठकों को अब यह समझना होगा यह कश्मीर का मामला भारत बनाम पाकिस्तान नहीं है। यह हमारे ( हम सभी) बनाम बेकसूर कश्मीरियों का मामला है। वो कश्मीरी जो जिंदगी के लिए लड़ रहे हैं। जो सिर्फ जिंदा रहने, सांस लेने के लिए जूझ रहे हैं।

क्या इसे ही जम्हूरियत कहते हैं। क्या यही उदारवाद है। क्या इसे ही समाजवाद और जीने का हक कहते हैं।
 
अगर ऐसा हो तो लानत है हम पर। शर्म आनी चाहिए हमें खुद पर।

मैं दरख्वास्त करती हैं। प्लीज इन हत्याओं को रोकिए। चाहे आप चुपचाप ये हत्याएं क्यों न कर रहे हों। कश्मीर को पाकिस्तान , भारत या किसी दूसरे देश के नागरिक की तरह न देखें। उन्हें एक इंसान के तौर पर देखें। सोचिए। वो एक अच्छी जिंदगी के हकदार हैं। एक बेहतर जिंदगी के।
 
(आनंदी पांडे 11वीं क्लास में पढ़ती हैं और लखनऊ के स्टडी हॉल की स्टूडेंट हैं।)

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