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कश्मीर : स्थानीय मीडिया की आवाज दबाने की दास्तान

कश्मीर में मीडिया पहले से ही जंजीरों से बंधा हैं। राज्य में लगभग स्थायी कफ्र्यू के हालात में काम करने वाले मीडिया के लिए संचार के  श्रोतों पर प्रतिबंध लगा कर और मुश्किल हालात बना दिए गए हैं। फिर मौजूदा दमन और प्रतिबंध अलग कैसे है? इसका मकसद क्या है?


Image: PTI


दरअसल यह दमन पुलिस की क्रूर ताकतों, कानूनों के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघनों और नीति-नियमों और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को दरकिनार कर राज्य को पूरी तरह काबू करने की सरकार की बढ़ती चाहत का नतीजा है।

 
प्रोपगंडा का शातिराना इस्तेमाल करें तो लोग जहन्नुम को भी जन्नत मानने लगेंगे और बेहद परेशान हाल जिंदगी भी जन्नत लगेगी।
एडोल्फ हिटलर

हिटलर के नाजी शासन ने जर्मन जनता पर अपने दो औजारों के सहारे शासन किया था- प्रोपगंडा और सेंसरशिप। हर दिन हिटलर को महिमामंडित कर वह जनता पर अपनी पकड़ बनाए रखती थी। लोगों को अच्छी जिंदगी के ख्वाब दिखाए जाते थे लेकिन शासन यह भी पक्का कि ए रहता था कि नाजी शिविरों की जघन्य प्रताडऩाओं और नरसंहारों की बातें बाहर न आएं। लेकिन दुर्दांत यातनाओं, प्रताडऩाओं और हत्याओं की दिल दहला देने वाली कहानियां अंतत: बाहर आ ही गईं। कहीं  कथाओं के रूप में,कहीं उपन्यासों कहीं डायरियों तो कहीं रिपोर्टों के रूप में।

इन कहानियों और तथ्यों को ढक-छिपा कर रखने का कोई तरीका नहीं हो सकता। आखिकार ये ब्योरे वक्त के साथ उभर ही आते हैं। ये बार-बार बयां होते हैं और सुने जाते हैं।

अगर यही सच है तो आखिरकार जम्मू-कश्मीर सरकार यहां के  अखबारों को इतने निर्मम और बुरी तरीके से प्रतिबंधित करके क्या हासिल करना चाह रही थी।

किसी भी प्रतिबंध की जरूर तब पड़ती है,ृ जब कुछ छिपाना होता है। घाटी में 9 जुलाई से मोबाइल फोन और इंटरनेट कनेक्शन आंशिक तौर पर काट दिए गए थे। विरोध प्रदर्शनों से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों में तो लैंडलाइन फोन भी काट दिए गए थे। कफ्र्यू लगे होने की वजह अखबार भी खुल कर नहीं बंट सके। इन हालातों की वजह से जनता से मीडिया और मीडिया से जनता तक  पहुंचने वाली जानकारियां काफी कट-छंट कर पहुंच रही थी और रोक ली जा रही थीं।

जम्मू-कश्मीर में सरकार के इस कदम को देखते हुए कुछ अहम सवाल जरूर पूछे जाने चाहिए। भारतीय पत्रकारों के एक तबके और बुद्धिजीवियों की ओर से दिखाई गई असाधारण एकता की वजह से सरकार ने यह प्रतिबंध हटाया। लेकिन इस प्रतिबंध के पीछे किसी साजिश से इनकार नहीं किया जा सकता।

सरकार को डर है कि राज्य के मीडिया से जनता को जनता से मीडिया को मिल रही जानकारी अगर अखबारों में छपने लगेगी तो इससे हिंसा और भडक़ सकती है। अखबारों पर प्रतिबंध के बावजूद यह जानकारी डिजिटल तकनीक के जरिये एक छोटे तबके  तो पहुंच ही रही हैं।

 सरकार की एक और  चिंता है । चूंकि छपे हुए शब्द की विश्वसनीयता ज्यादा है और वे दस्तावेजी सबूत के तौर पर ज्यादा दिन तक सुरक्षित रहते हैं इसलिए सरकार अखबारों पर बैन के लेकर ज्यादा दुराग्रही नजर आती है।

कश्मीर में अशांति के दौर में चौबीसों घंटे चलने वाले राष्ट्रीय चैनल प्रतिबंध से बाहर रखे गए। राष्ट्रीय प्रिंट मीडिया पर भी कोई प्रतिबंध नहीं था। सरकार ने अखबारों पर जो बैन लगाया या जिस तरह बैन लगाने की जरूरत समझी उससे कश्मीर के संदर्भ में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मीडिया के बीच की गहरी खाई उजागर हो गई। दरअसल कश्मीर को लेकर राष्ट्रीय मीडिया का रुख अति राष्ट्रवादी हो जाता है जबकि क्षेत्रीय मीडिया संघर्ष से पैदा संकट में आम कश्मीरी और जम्मू के लोगों की आवाज बनता है। दरअसल ये स्थानीय अखबार ही होते हैं जो राष्ट्रीय प्रेस की चु्प्पी या फिर अंध राष्ट्रवाद की वजह से पैदा खालीपन को भरते हैं।  हाल के दिनों में कफ्र्यू  की अड़चनों और संचार माध्यमों के दमन के बीच प्रामाणिक सूचनाओं को हासिल करने की मुश्किल में स्थानीय अखबार ही लोगों पर हो रहे बर्बर अत्याचार की खबरों के स्रोत बने हुए थे। स्थानीय अखबारों के जरिये ही कश्मीर में लोगों को मार दिए जाने की दिल दहलाने वाली खबरें आईं। इन्हीं अखबारों ने बताया कि सुरक्षा बलों की हिंसा की जद में आने वाले कैसे अस्पतालों में घिसट रहे हैं या फिर किस तरह पैलेट गनों ने लोगों को हमेशा के लिए अंधा बना दिया है। इन बंदूकों ने अब तक 130 लोगों को अंधा कर दिया और इनमें से ज्यादातर बच्चे और किशोर हैं। मुख्यधारा के राष्ट्रीय कहे जाने वाले अखबारों में ऐसी स्टोरी शायद ही दिखाई दे। कश्मीर के बारे में राज्य जो झूठ फैलाना चाहता है, उसकी राह में ये स्थानीय अखबार ही चुनौती बन कर खड़े हैं।

कश्मीर को एक तरफ तो अखबारों से महरूम रखा गया वहीं कॉमर्शियल टेलीविजन को पूरी छूट दी गई। दिल्ली से आने वाले उनके क्रू मेंबरों को सुरक्षा मुहैया कराई गई। इन टीवी चैनलों की ओर वही कहा गया जो सरकार को पसंद था।

कॉमर्शियल मीडिया और सरकार मिलकर किस तरह काम करते हैं, उसका एक तय पैटर्न है। स्थानीय मीडिया का गला घोंट कर सरकार जन प्रतिरोध के डर को बढ़ा-चढ़ा कर पेश करती है। और लोगों के दमन को छोटा कर दिखाना चाहती है। इस तरह  वह अंध राष्ट्रवाद की हिस्ट्रिया पैदा करती है। अब तो कश्मीर के बारे में राष्ट्रीय मीडिया कहे जाने वाले अखबारों और टीवी चैनलों में सरकार के इस रुख को पुष्ट करते रिपोर्टों और खबरों का प्रसारण सामान्य मान लिया गया है।

स्थानीय मीडिया पर प्रतिबंध केंद्र से प्रेरित होकर लगाए गए होंगे लेकिन इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता है कि इसे पुलिस और प्रशासन में मौजूद उसके दलालों के जरिये लागू किया गया। राज्य सरकार भले ही इससे अनजान हो सकती है और वह ऐसा दिखा रही हो लेकिन इसके निष्प्रभावी रवैये और बिना कुछ सोचे-समझे कार्रवाई करने के फैसलों की अनदेखी नहीं की जा सकती। खासकर, इस रवैये की वजह के जो परिणाम निकले हैं, उन्हें देखते हुए तो बिल्कुल भी नहीं।
असल में सरकार के कदम कश्मीर के हालात से जुड़े दास्तानों को जकड़ और काबू में रखने की कोशिश के नतीजे हैं।  यह ब्योरों को बाहर आने से रोकने की कोशिश है। स्थानीय मामलों पर झूठ का मुल्लमा चढ़ा कर गढ़ी हुई कहानियों के जरिये यह सच को रोकना चाहती है। सरकार पेड एजेंट, जिहादी टेरर, हालात नियंत्रण में, दुश्मन पाकिस्तान जैसे जुमलों और सामान्य हालात बहाल होने और पर्यटन की खुशनुमा तस्वीर पेश कर असली हालातों पर परदा डाल रही है। कश्मीर के संघर्ष में सरकार की नैतिक हार का इससे बड़ा सबूत और क्या हो सकता है। गोलियां चलाने, बच्चों को अंधा करने, प्रताडऩा और क्रूरता की बदसूरत तस्वीरों को छिपाने के लिए ही झूठ के ये हथियार चलाए जा रहे हैं और प्रोपंगडा किया जा रहा है।

कश्मीर की दास्तानों को काबू मंे रखा गया है। 26 साल के अशांति के इतिहास में कई हथियारों जरिये मीडिया को चुप कराया जाता रहा है। नब्बे के दशक की शुरुआती में यह आतंकवादियों और सुरक्षा बलों की बंदूकों के बीच फंसा था। यहां पत्रकारों को काम करने से रोका गया। उन पर हमले हुए। उनकी हत्याएं हुईं। इन हालातों और कफ्र्यू के दौर के बावजूद अखबार लगातार प्रकाशित होते रहे। उन्होंने ज्यादा गहरी खबरें लिखीं और आत्महत्या करने की हद तक विस्तृत स्टोरी छापी। यहां तक कि दमन से बचने के लिए एडोटिरयल कंटेंट छापने से भी परहेज किया।

जब स्थानीय मीडिया ने आंदोलन विरोधी रुख और भारतीय राष्ट्रवादी विमर्श से खुद को अलग करना चाहा तो सरकार ने दमन का नया रास्ता निकाला। वह  डीएवीपी विज्ञापनों को बंद कर अखबारों के वित्तीय प्रवाह को रोकने लगी। जबकि यही विज्ञापन जम्मू-कश्मीर के अखबारों की आय के प्रमुख ोत हैं।

2010 में केंद्रीय गृह मंत्रालय की ओर से एक पत्र मिलने के बाद डीएवीपी ने कश्मीर के कई अखबारों के विज्ञापन रोक दिए। बाद के दिनों में मनमाने ढंग से कुछ अखबारों के विज्ञापन जारी कर दिए गए । लेकिन श्रीनगर और जम्मू से निकलने वाले कश्मीर टाइम्स(इसमें मैं कार्यकारी संपादक हूं) को खास तौर पर निशान बनाया गया और इसके लिए डीएवीपी विज्ञापनों के दरवाजे बंद ही रखे गए। आश्चर्य की बात तो यह है कि 2010 की हत्याओं के  बाद सरकार ने यह सुझाव दिया था कि श्रीनगर से राष्ट्रीय अखबार निकालने की जरूरत है क्योंकि स्थानीय अखबार विश्वसनीय नहीं हैं। 2010 में सरकार ने खबरों पर आधारित प्रोग्राम दिखाने के लिए श्रीनगर केबल टीवी चैनलों को यह कर बंद करा दिया था कि ये सही तरीके से रजिस्टर्ड नहीं हैं। हालांकि जम्मू में इस तरह के गैर रजिस्टर्ड चैनल चालू रहे।

कश्मीर में मीडिया पहले से ही जंजीरों से बंधा हैं। राज्य में लगभग स्थायी कफ्र्यू के हालात में काम करने वाले मीडिया के लिए संचार के ोतों पर प्रतिबंध लगा कर और मुश्किल हालात बना दिए गए हैं। फिर मौजूदा दमन और प्रतिबंध अलग कैसे है? इसका मकसद क्या है?

दरअसल यह राज्य में खाकी की क्रूर ताकतों, कानूनों के खुल्लम-खुल्ला उल्लंघनों और नीति-नियमों और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को दरकिनार कर राज्य को पूरी तरह काबू करने की सरकार की बढ़ती चाहत का नतीजा है।

केंद्र और राज्य की अब तक की सरकारें स्थानीय मीडिया को ऐसी मारक मिसाइलों की तरह देखती आई हैं, जिन्हेें काबू में रखना जरूरी है। सरकारें उन्हें ऐसी सूचना देने वाले ोत की तरह नहीं देखती जिस पर लोगों की रोजमर्रा की जरूरतों के फीडबैक के तौर पर भरोसा किया जा सके। इन्हें लोगों की राजनीतिक आकांक्षाओं के वाहकों के तौर पर नहीं देखा जाता। सरकार इन अखबारों में छपी दमन की दास्तानों को नहीं मानती। जबकि  राज्य में प्रोफेशनल क्षेत्रीय मीडिया अफवाहों को दरकिनार में अहम भूमिका निभाता रहा है।

एक स्वतंत्र मीडिया सरकार और जनता के बीच एक महत्वपूर्ण संपर्क बन सकता है। संघर्ष से घिरे क्षेत्र में यह जनता की आकांक्षाओं और भावनाओं को सरकार तक पहुंचाने का अहम जरिया होता है। यह याद रखना जरूरी है कि पीएम नरेंद्र मोदी ने 2015 में किस तरह मुफ्ती मोहम्मद सईद की इस सलाह की अनदेखी की थी कि कश्मीरियों से राजनीतिक बातचीत जरूरी है। मोदी ने बड़े ही रुखे अंदाज में कहा था कि हमें क श्मीर पर किसी से सलाह की जरूरत नहीं है। यही वह मानसिकता है जो लोगों को सत्ता में बैठे लोगों को न सिर्फ जनता को कुचलने को उकसाती है बल्कि उनके लिए बोलने वाली आवाजों को भी बंद करने लिए प्रेरित करती है।

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