क्या अब मोदी खेलेंगे यूबीआई (Universal Basic Income ) का दांव

मोदी सरकार पांच राज्यों के चुनावों से पहले यूनिवर्सल बेसिक इनकम स्कीम का ऐलान कर सकती है। नोटबंदी की वजह से गिरती लोकप्रियता को थामने के लिए सरकार यह कदम उठा सकती है।

Modi

नोटबंदी के बाद मोदी सरकार की लोकप्रियता जिस कदर गिरी है, उससे वह बुरी तरह हताश है। लिहाजा वह कुछ नया ऐलान करने की जुगत में लगी है। ताजा कयास यह है कि क्या मोदी सरकार पांच राज्यों में चुनाव से पहले यूनिवर्सल बेसिक इनकम लागू करने की तैयारी में है। पार्लियामेंट के बजट सत्र से ठीक पहले यानी 31 जनवरी को इसका खुलासा हो सकता है। सरकार बजट में यूबीआई का ऐलान कर सकती है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या चुनाव आयोग इसकी इजाजत देगा। नोटबंदी से लोगों के बीच फैली नाराजगी के बाद मतदाताओं को लुभाने के लिए बड़ी चालाकी से नीतिगत घोषणाएं करने की यह कवायद क्या रोकी जा सकती है।

ऐसी रिपोर्टें आ रही हैं कि सरकार यूबीआई को एक प्रगतिशील कदम बता रही है। भारत में गरीबों की आबादी को देखते हुए सरकार जनवरी में आर्थिक सर्वे जारी  करने के बाद यूबीआई का ऐलान कर सकती है। यूनिवर्सल इनकम के पायलट प्रोजेक्ट पर काम कर चुके एक प्रोफेसर का कहना है कि यह योजना भारत को आगे ले जाने वाला कदम है। ब्रिटेन के अखबार इंडिपेंडेंट में भारत की इस योजना की रिपोर्ट छापी गई है। इसमें कहा गया है कि भारत अगर यूबीआई को लागू करता है तो यह भी फिनलैंड जैसे देशों में शामिल हो जाएगा, जहां लोगों को मुफ्त रकम मुहैया कराई जाती हो।

इस बात पर संदेह है कि क्या मोदी सरकार सचमुच में इस यूनिवर्सल स्कीम को लागू करेगी, जिससे देश की 42 फीसदी गरीब आबादी को फायदा होगा या फिर वह इसे आबादी के एक छोटे हिस्से तक ही सीमित रखेगी। हो सकता है कि बजट में यह दिखे कि यह ऐलान सबके लिए है। आखिर मोदी अपने लुभावने वादों को घुमाने-फिराने में होशियार रहे हैं।

यूनिवर्सल इनकम सिस्टम के तहत नागरिकों को सरकार की ओर से एक तय रकम मिलेगी। लेकिन उसे राज्य की ओर से मुफ्त में मिल रही सभी अन्य सहूलियतें छोड़नी होंगी। लगभग एक अरब 30 करोड़ की आबादी वाला भारत बढ़ोतरी दर्ज कराने वाला अर्थव्यवस्था है लेकिन इसकी लगभग 42 फीसदी आबादी गरीबी में जी रही है।

यूपीए सरकार की ओर से 2005 में गरीबी का निर्धारण करने के लिए बनी तेंदुलकर कमेटी का ही मानना था कि देश में गरीबों की आबादी 42 फीसदी है। उसने ही बड़े ही विवादास्पद तरीके से सुझाया था कि शहरों में रोजाना 33 रुपये और गांवों में रोजाना 27 रुपये कमाने वाले लोग गरीब हैं। इस कमेटी ने प्रति व्यक्ति मासिक खपत के आधार पर गरीबी की रेखा खींची थी। इसी आधार पर योजना आयोग ने गरीबी रेखा और गरीबी रेखा अनुपात के अपने निष्कर्ष पर पहुंची थी।

नव उदारवादी नीतियों को आगे बढ़ाने वाले कॉरपोरेट पैरोकार और कई अर्थशास्त्री गरीबी के आंकड़े को 29.5 फीसदी पर निर्धारित करना चाहते हैं।

भारत के मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यन ने इधर हाल में नोटबंदी का फैसला करने से पहले बताया था कि बजट से पहले 31 जनवरी 2017 को आने वाले आर्थिक सर्वे रिपोर्ट में यूनिवर्सल बेसिक इनकम का जिक्र होगा।

सुब्रमण्यन का कहना है यूबीआई के विचार में काफी संभावना है और यह जनधन, आधार और मोबाइल मनी (यानी जेएएम-जैम) का ही विस्तार होगा। यह कैश ट्रांसफर पर आधारित होगी।

सुब्रमण्यन कहते हैं कि आप चाहे इसे कोई भी नाम दे सकते हैं लेकिन यह कैश ट्रांसफर पर स्थित स्कीम होगी। यह सब्सिडी का विकल्प हो सकती है,जो अक्सर लीकेज और भ्रष्टाचार का शिकार हो जाती हैं।

यूबीआई के भारतीय स्वरूप में बेसिक इनकम सब्सिडी की बजाय कैश ट्रांसफर हो सकता है। सरकार बड़ी सब्सिडी और मनरेगा स्कीम में हर साल 3,00,000 करोड़ रुपये खर्च कर रही है। यह हमारी जीडीपी का दो फीसदी है।  
 
कल्याणकारी राज्य या कैशलेस अनुदान
कल्याणकारी राज्य के पैरोकार, लोगों को नकदी ( या कैशलेस ट्रांसफर) देने का विरोध करते रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि यह कुपोषण की समस्या को खत्म करने के लक्ष्य को पूरा नहीं करता। इससे शिक्षा और जन स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने में मदद नहीं मिलती। 

ये लोग गरीबों को पैसा देने का विरोध नहीं कर रहे हैं लेकिन उनका कहना है कि यूबीआई स्वास्थ्य और शिक्षा संसाधन मुहैया कराने के राज्य की प्रतिबद्धता और जिम्मेदारी का विस्तार नहीं है। यह सक्षम कैश ट्रांसफर और अक्षम सब्सिडी व्यवस्था के बीच बहस भी खड़ी करती है।
 
 
यूबीआई का वित्तीय स्त्रोत
 
सब्सिडी को खत्म कर यूबीआई लागू करने के पक्षधर कहते हैं कि जीडीपी के 2 फीसदी तक सीमित की गई सब्सिडी के तहत 2016-17 के लिए 3,00,000 रुपये कैश ट्रांसफर किए जाने हैं। इस रकम से प्रति परिवार सालाना 12,000 या 1000 रुपये प्रति महीने अदा करने में कोई दिक्कत नहीं है।

सरकार के 2014-15 के आर्थिक सर्वे में अनुमान लगाया था कि अनाज, दालों, चीनी, तेल उत्पादों, लौह अयस्क, बिजली, पानी और रेल सेवाओं पर दी जाने वाली सब्सिडी मिलाकर जीडीपी की 4.2 फीसदी पड़ती है। अगर यूबीआई के तहत सीलिंग लिमिट दो फीसदी से बढ़ा कर चार फीसदी कर दी जाए तो प्रति परिवार हर महीने 2000 रुपये की रकम ट्रांसफर की जा सकती है। अगर सरकार यूनिवर्सिल बेनिफिट रूट का पालन न करने वाले गरीबों के एक वर्ग तक इस सुविधा को सीमित रखती है तो यह रकम 4000 रुपये तक पहुंच सकती है।

क्या अक्सर टूटे हुए वादों के लिए जाने जाने वाले मोदी की ओर से हर भारतीय को 15 लाख रुपये देने ( ब्लैकमनी लाकर बांटे जाने वाला पैसा) का वादा 4000 रुपये तक सीमित हो जाएगा यह दयनीय विकल्प होगा। लेकिन यह चीजों को तोड़ने-मरोड़ने वाले मोदी के लिए भी दयनीय होगा। मोदी को पता नहीं है कि नोटबंदी पर लोग क्या प्रतिक्रिया देंगे। लिहाजा यूबीआई को वह किसी भी कीमत पर आजमाना चाहेंगे। अगर मोदी गरीबों के एक बड़े मसीहा के तौर पर उभरना चाहते हैं और अपनी पार्टी को पांच राज्यों के चुनावों में जिताना चाहते हैं तो यूबीआई उनका  बड़ा दांव हो सकता है।

लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या आचारसंहिता लागू हो जाने के बाद भी चुनाव आयोग इसकी इजाजत देगा?

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