‘मैं जिंदा हूँ और गा रहा हूं.’ – ‘विद्रोही’


 
(जनकवि रमाशंकर 'विद्रोही' को जन संस्कृति मंच की श्रद्धांजलि)

कल ८ दिसंबर, २०१५ को शाम ४.३० के करीब जनकवि रमाशंकर 'विद्रोही' ने दिल्ली में अंतिम साँसें लीं. विद्रोही ने अपनों के बीच, आन्दोलन के मोर्चे पर अंतिम साँसे लीं. जैसा वे जिए, वैसा ही मरे. जैसे कोई मध्यकालीन संत शताब्दियाँ पार करके आधुनिक सभ्यता के जंगलों में आ निकले, उसकी सारी विडंबनाएं और चोटें झेलते, वैसे ही फक्कड़, मलंग बना फिरे, अपनी मातृभाषा में हमारे आज के समय के सबद और अभंग जोड़ते हमारे बीच से गुज़र जाए. कविता उनकी जीविका नहीं, ज़िंदगी थी और जन-आन्दोलन और मार्क्सवादी जीवन-दृष्टि उसकी सबसे पौष्टिक खुराक. कविता में वे बतियाते हैं, रोते और गाते हैं, खुद को और सबको संबोधित करते है, चिंतन करते हैं, भाषण देते हैं, बौराते हैं, गलियाते हैं, संकल्प लेते हैं. ”कविता क्या है?” जैसे सनातन विषय पर विद्रोही के  विचार देखें-

”कविता क्या है
खेती है
कवि के बेटा-बेटी है
बाप का सूद है,  मां की रोटी है।”
ऐसी कविता और ऐसी ज़िंदगी अक्सर उस सीमान्त पर विचरण करती हैं जहां मौत हाथ मिलाने के फासले पर होती है. जो दुनिया उन्हें मिली, उसमें जीने की 'शर्म की सी शर्त' उन्होंने नामंजूर कर दी. अपनी कविताओं में अलग दुनिया बनाई. उन्होंने अपने भौतिक अस्तित्व की रक्षा के लिए किसी से कोई गुहार नहीं लगाई. अपने लोगों से उनकी अपेक्षा यही थी कि वे अपने कवि को बचाएं –
”…तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे बचाओ-
जिसके खून के गारे से
पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं,
क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है,
जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की आखिरी सीढ़ी पर
पड़ी है।
मुझको बचाना उन इंसानों को बचाना है,
जिनकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं ।
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है,
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है,
तुम मुझे बचाओ!
मैं तुम्हारा कवि हूं। ”

और यह कवि बचा रहेगा, उन लोगों के बीच जिन्हें उसने जान से ज़्यादा प्यार किया है और जिनसे उसने खुद को बचाए रखने की उम्मीद की है. विद्रोही में पितृसत्ता-धर्मसत्ता और राजसत्ता के हर छ्द्म, हर पाखण्ड के खिलाफ अपरम्पार गुस्सा, तीखी घृणा है. प्राचीन और समकालीन मिथकों का कविता में रचा उनका पाठ हर उस शोषक , हर उस आततायी को तिलमिला देगा जिसे अपनी बदमाशियों को छिपाने के लिए संस्कृति की पोशाक चाहिए. विद्रोही ने कलजुगहे मजूर की आत्मा में प्रवेश किया और उसकी चाहतों का ऐसा अपूर्व विप्लवी, अछोर संसार रचा  जो पूरी हिन्दी कविता में अनन्य है, जिसे यहाँ मैं पूरा ही उद्धृत कर रहा हूँ- 

” जनि जनिहा मनइया जजीर मांगात
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगात
बीड़ी-पान मांगात
सिगरेट मांगात
कॉफ़ी-चाय मांगात
कप-प्लेट मांगात
नमकीन मांगात
आमलेट मांगात
कि पसिनवा के बाबू आपन रेट मांगात
ई भरुकवा की जगहा गिलास मांगात
औ पतरवा के बदले थार मांगात
पूरा माल मांगात
मलिकाना मांगात
बाबू हमसे पूछा ता ठकुराना मांगात
दूधे -दहिए के बरे अहिराना मांगात
दुलहिनी के बरे बरसाना मांगात
आलू-भांटा बरे बोड़री के चक मांगात
अंचारे बरे लखनी के बाग मांगात
बिहारै बरे पूरा वृन्दावन मांगात
गोड़ धोवै बरे राजा गंगासागर मांगात
अंचावै बरे पूरा जगन्नाथ मांगात
गंगा-जमुना मांगात  सरस्वती मांगात
तौ सौवै बरे जनक के बगीचा मांगात
दरी मांगै, गद्दा मांगै औ गलीचा मांगात
अपने बिटुआ के अंजोरिया का बच्चा मांगात
और बियाहे बरे राजा अंगरक्खा मांगात
औ बराते बरे बाजा अलगोजा मांगात
न ता धोखी मांगात ऽ ऽ न ता धोखा मांगात
न ता ओझा मांगात ऽ ऽ न ता सोखा मांगात
सोझा-साझा ई मनइया शासन सोझा मांगात
न इनाम मांगात ऽ ऽ न इकराम मांगात
न कउनो भीख मांगात, न अनुदान मांगात
न गऊदान मांगात ऽ ऽ न रतिदान मांगात
ई सड़किया के बीचे खुलेआम मांगात
मांगे बहुतै सकारे, सरे शाम मांगात
आधी रतियौ के मांगे, आपन दाम मांगात
ई तो खाय बरे घोंघवा के खीर मांगात
दुलहिनिया के द्रोपदी के चीर मांगात
औ नचावै बरे बानर महावीर मांगात
न ता साधू मांगात ऽ ऽ न फकीर मांगात
ना ई तोहरी तिरथिया के नीर मांगात
ई अपनी मइया बहिनिया से बीर मांगात
जनि जनिहा मनइया जगीर मांगात
ई कलिजुगहा मजूर पूरी सीर मांगात ऽ ऽ जनि जनिहा मनइया जगीर मांगात

विद्रोही की कविता के हलवाहे, चरवाहे, केवट, कहार, दलित, मजदूर, किसान, औरतें, बच्चे जितना अपनी यातनाओं, उतना ही अपने सपनों के साथ आते हैं. वे तमाम पंडे, पुरोहितों, मुल्ला, मौलवियों, महाजनों, ज़मीदारों, पूंजीपतियों, साम्राज्यवादियों से अपने भविष्य को लेकर ही नहीं लड़ते, बल्कि अपहृत अतीत का भी हिसाब माँगते हैं. विद्रोही की कविताएँ सबसे ज़्यादा यही लोग समझेंगे. विद्रोही हमारे अपवंचित राष्ट्र के  कवि हैं, उन लोगों के  कवि हैं जिन्हें अभी राष्ट्र बनना है. लेकिन विद्रोही के विकट व्यक्तित्व को दुनियाबी व्याकरण से समझना मुश्किल है. जिन्होंने उन्हें दुनिया से बेखबर बाउल गानेवालों की तरह अकेले में डूब कर गाते देखा है, खुद से बातें करते देखा है, भीतर के किसी श्मशान के प्रेतों से लड़ते-झगड़ते देखा है, वे विद्रोही की उस अलग, अगम और निराली दुनिया का सिर्फ बाहरी आभास पा सके हैं जिसमें प्रवेश करना शायद किसी के लिए भी आसान न था.

रमाशंकर यादव 'विद्रोही' का जन्म ३ दिसंबर, १९५७ को ऐरी फिरोजपुर ( जिला सुल्तानपुर) में श्री रामनारायण यादव व श्रीमती करमा देवी के घर हुआ. बचपन में ही शांतिदेवी से विवाह हो गया. शान्ति जी पढ़ती थीं और वे भैंसे चराते थे. गाँव में चर्चा होती कि रमाशंकर की पत्नी उन जैसे अनपढ़ को छोड़ देगी. इसी भय से विद्रोही शिक्षा के प्रति प्रेरित हुए. प्रारम्भिक शिक्षा गाँव के स्कूल में हुई , फिर सरस्वती इंटर कालेज, उमरी से इंटर पास किया और राज डिग्री कालेज, बनवारीपुर, सुलतानपुर से बी.ए. किया. एल.एल. बी. की पढ़ाई धनाभाव के चलते पूरी नहीं कर पाए. नौकरी की, लेकिन नौकरी ज़्यादा दिन उन्हें बांध नहीं पाई. १९८० में दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्विद्यालय में हिन्दी से एम. ए. करने आ गए. १९८३ के छात्र आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेने के चलते कैंपस से निकल दिए गए. १९८५ में उनपर मुक़दमा चला. तबसे उन्होंने आन्दोलन की राह से पीछे पलटकर नहीं देखा. वाम राजनीति और संस्कृतिप्रेमी छात्रों की कई पीढियों ने विद्रोही को उनकी ही शर्तों पर स्वीकार और प्यार किया है और विद्रोही छात्रों के हर न्यायपूर्ण आंदोलन में उनके साथ तख्ती उठाए, नारे लगाते, कविताएं सुनाते, सड़क पर मार्च करते रहे, यहाँ तक कि कल तक जब उन्होंने आखिरी साँसें लीं. जे़ एन. यू. में रहने के  चलते विद्रोही की आवाज़ दिल्ली की सडकों पर, बैरिकेडों और पुलिस पिकेटों के सामने तमाम तरह के लोकतांत्रिक जुलूसों, प्रदर्शनों के समय दशकों तक गूंजती रही है. जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय पार्षद वे २००८ के राष्ट्रीय सम्मलेन में बने जो कवि धूमिल के गाँव खेवली में हुआ था. उसके बाद से दिल्ली के  बाहर भी उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ आदि तमाम जगहों पर आयोजनों और आन्दोलनों में बुलाए जाते. विद्रोही कविता लिखते नहीं , कहते थे. उनकी खडी बोली की काफी कवितायेँ मित्रों ने लिपिबद्ध कीं जो 'नयी खेती' संग्रह में छपीं. कचोट इस बात की है कि उनकी ढेरों अवधी रचनाएं रिकार्ड नहीं की जा सकीं. एक स्मृति सदा के लिए खो गयी.   

याद आता है कि गोरख पाण्डेय के गाँव जाते हुए कैसे बच्चों जैसी जिज्ञासा से भरे और उत्फुल्ल थे. आन्दोलनों और प्रतिवाद सभाओं के दौरान कविता सुनाकर बच्चों की तरह उनका खुश होना, उसे अपना एकमात्र तमगा और पुरस्कार बताना याद आता है. याद आता है पटना के गांधी मैदान के निकटवर्ती चौराहे पर उनके कविता-पाठ के दौरान रिक्शेवालों, खोमचेवालों और मजूरों का स्वतःस्फूर्त जुटना और ताली बजाना. विद्रोही जहां जाते, हाथों हाथ लिए जाते. बाहर के लोग भी उन्हें उतना ही प्यार करते जितना उन्हें जे.एन.यू. के छात्रों से हासिल हुआ था. जे. एन.यू. में नबारूण दा के  काव्यपाठ के कार्यक्रम के बारे में सुधीर सुमन ने ११ दिसंबर, २०११ को मुझे विस्तृत मेल लिखा जिसका एक अंश नबारूण और विद्रोही की भेंट के बारे में था. दुर्ग में दोनों की मुलाक़ात हो चुकी थी. सुधीर ने लिखा, " जेएनयू के कार्यक्रम से बाहर निकलते वक्त जिस गर्मजोशी और प्यार से नबारूण दा छात्रों और जनता के प्यारे कवि विद्रोही से गले मिले, वह मेरी चेतना में एक बेहद सुकूनदेह अहसास की तरह दर्ज हो गया, जैसे बेचैन दिल को करार आ गया। पूरे देश में, खासकर हिंदी पट्टी में विद्रोही को जनता प्यार करती है, छात्रों के बीच वे बेहद लोकप्रिय हैं। उन्हें अपने लिए कोई कोई फंड, कोई पुरस्कार, सरकारों की कोई नजरे-इनायत नहीं चाहिए, उनके कवि को किसी साहित्यिक प्रोमोटर की जरूरत नहीं है….. आंदोलनकारियों और सामान्य जनता के बीच वे मशहूर हैं…., मैंने मन ही मन नबारूण दा को सलाम किया कि उन्होंने जनता के कवि को सम्मान दिया.., शायद यही जनता के क्रांतिकारी कवि की असली पहचान है।" आज दोनों हमारे बीच नहीं हैं. क्या सचमुच वे हमारे बीच नहीं हैं? विद्रोही इसे नहीं मानते. यकीन न हो तो उनकी ही एक कविता के इस अंश से आपको तसल्ली हो जाएगी-

"मरने को चे ग्वेरा भी मर गए
और चंद्रशेखर भी
लेकिन वास्तव में कोई नहीं मरा है
सब जिंदा हैं
जब मैं जिंदा हूँ
इस अकाल में
मुझे क्या कम मारा गया है
इस कलिकाल में
अनेकों बार मुझे मारा गया है
अनेकों बार घोषित किया गया है
राष्ट्रीय अखबारों में पत्रिकाओं में
कथाओं में, कहानियों में
कि विद्रोही मर गया।
तो क्या मैं सचमुच मर गया!
नहीं मैं जिंदा हूँ
और गा रहा हूं…… "

( प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी)

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