मध्यप्रदेश: जहाँ कानून का नहीं, संघ परिवार का सांप्रदायिक राज है

मध्यप्रदेश के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी पुलिस अधिकारी के तबादले के विरोध में इतना बड़ा जनाक्रोश देखने को मिला हो


Representational image

भारत में पुलिस और प्रशासन के कामों में राजनेताओं उनसे जुड़े लोगों और संगठनों का दखल कोई नया चलन नहीं है. इसकी वजह से अफसर और नौकरशाह सियासी देवताओं के मोहरे बनने को मजबूर होते हैं ऐसा वे कभी लालच और कभी मजबूरियों की वजह से करते हैं. पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों, अफसरों की नियुक्ति व तबादलों में होने वाली राजनीतिक दखलंदाजी पर सुप्रीम कोर्ट भी नाराजगी जता चुका है. कोर्ट द्वारा पुलिस अफसरों की व्यावसायिक स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए पुलिस ढांचे में आमूलचूल परिवर्तन करने के आदेश भी दिए जा चुके हैं  लेकिन हमेशा की तरह  घाघ सियासतदानों ने इसे अनसुना कर दिया.

पिछले दिनों मध्यप्रदेश में कटनी जिले के एसपी गौरव तिवारी के साथ भी यही दोहराया गया है. गौरव तिवारी एक जनप्रिय पुलिस अधिकारी थे जिन्होंने बिना कोई समझौता किये और सारे और दबावों को झेलते हुए अपने फर्ज को अंजाम दिया जो कि दुर्लभ है, अपने इसी दुर्लभता की वजह से वे सीधे जनता के दिल में उतर गये जो बाद में उनकी सबसे बड़ी ताकत बनी और शायद पूँजी भी. गौरव तिवारी ने पिछले दिनों 500 करोड़ रुपए के बहुचर्चित हवाला कारोबार का पर्दाफाश किया था जिसमें शिवराज सरकार के सबसे अमीर मंत्री मंत्री संजय पाठक और आरएसएस के एक वरिष्ठ नेता की संलिप्तता सामने आ रही थी. इससे पहले कि गौरव तिवारी किसी निष्कर्ष पर पहुँचते उनके तबादले की खबर आती है. मध्यप्रदेश में संजय पाठक माइनिंग माफिया के रूप कुख्यात रहे हैं जो चंद साल पहले कांग्रेसी थे तब खुद भाजपा के नेता उन्हें माइनिंग माफिया का खिताब देते नहीं थकते थे.

इस पूरे घटनाक्रम की सबसे खास बात यह रही है अपने चेहेते एसपी के तबादले के विरोध में बड़ी संख्या में कटनी की जनता का सड़कों पर उतर आना. मध्यप्रदेश के इतिहास में ऐसा कभी नहीं हुआ जब किसी पुलिस अधिकारी के तबादले के विरोध में इतना बड़ा जनाक्रोश देखने को मिला हो. लेकिन इन सबके बीच मुख्यमंत्री शिवराज सिंह पूरी तरह से संजय पाठक के पक्ष में खड़े नजर आये उन्होंने एसपी गौरव तिवारी को कटनी वापस बुलाने की मांग को खारिज करते हुए कहा है कि महज आरोपों के आधार पर किसी के भी खिलाफ कार्रवाई नहीं की जाएगी. इस दौरान संजय पाठक के बेटे यश पाठक का अहंकार से भरा एक फेसबुक पोस्ट भी सामने आता  है जिसमें वे लिखते हैं “जब हाथी चलता है, तो कुत्ते भौंकते हैं”.

मध्यप्रदेश में पिछले साल भी इसी तरह की कुछ और घटनायें सामने आ चुकी हैं जिसमें सबसे चर्चित बालाघाट की घटना है. बालाघाट जिले के बैहर में आरएसएस प्रचारक सुरेश यादव के साथ पुलिस की तथाकथित मारपीट के मामले में भी सरकार द्वारा की गयी कारवाही पर सवाल उठे थे कि राज्य सरकार ने संघ के दबाव में बिना जाँच किये ही पुलिस अधिकारियों के खिलाफ ही मामला दर्ज करा दिया. भड़काऊ सन्देश फैलाने के आरोप में सुरेश यादव को गिरफ्तार करने के  लिए जब पुलिसकर्मी स्थानीय संघ कार्यालय गए तो उन्हें धमकी दी गयी थी कि “आप नहीं जानते कि आपने किसे छूने की हिम्मत की है, हम मुख्यमंत्री और यहाँ तक की प्रधानमंत्री को हटा सकते हैं, हम सरकारेंबना और गिरा सकते हैं, तुम्हारी कोई हैसीयत नहीं, थोड़ा इंतजार करो अगर हम तुम्हारी वर्दी नहीं उतरवा सके तो संघ छोड़ देंगे.” भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का भी एक धमकी भरा ट्वीट सामने आया था जिसमें उन्होंने इसे ‘अक्षम्य अपराध’ करार देते हुए सवाल पुछा था कि है क्या हमारी सरकार में नौकरशाही की इतनी हिम्मत भी हो सकती है ?

बाद में धमकियां सच भी साबित हुईं और शिवराज सरकार ने संघ प्रचारक को गिरफ्तार करने गये पुलिसकर्मीयों पर ही हत्या के प्रयास,लूटपाट जैसे गंभीर चार्ज लगा दिए थे जिसकी वजह से उन्हें खुद की गिरफ्तारी से बचने के लिए फरार होना पड़ा. इस पूरे मामला में बताया जा रहा है कि संघ प्रचारक पर सोशल मीडिया में भड़काने वाले मेसेज पोस्ट करने का आरोप था जिसके बाद स्थानीय स्तर पर माहौल गर्माने लगा था और इसकी शिकायत थाने में की गयी. जिसके बाद पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया गया. इस दौरान संघ ने आरोप लगाया कि हिरासत के दौरान पुलिस ने संघ प्रचारक के साथ मारपीट की है जिसमें उसे गंभीर चोट आयीं हैं. संघ द्वारा इस पूरे  मामले को कुछ इस तरह पेश  किया गया कि मानो टीआई ने मुसलमान होने के कारण संघ कार्यालय पर हमला किया था. इस मामले को लेकर संघ ने पूरे प्रदेश में विरोध प्रदर्शन किया था जिसके बाद सरकार ने बिना किसी जांच के बालाघाट के एडिशनल एसपी, बैहर के थाना प्रभारी तथा 6 अन्य पुलिस कर्मियों के ऊपर धारा 307 सहित कई मामलों में केस दर्ज कर दिया गया और इन्हें सस्पेंड भी कर दिया गया. हालांकि बाद में इसको लेकर एक वीडियो भी सामने आया जिसमें में बहुत साफ़ दिखाई पड़ता है कि जैसा दावा किया जा रहा है उन्हें ऐसी घातक चोट नहीं लगी थीं. इस दौरान जिन पुलिसकर्मीयों पर कार्यवाही की गयी उनके  परिजनों का कहना था कि बालाघाट में पुलिस वालों को नक्सलियों से ज्यादा आरएसएस,बजरंग दल,गोरक्षा समिति और भाजपा कार्यकर्ताओं से डर लगता है अब ऐसी परिस्थिति में कानून व्यवस्था कैसे लागू की जाएगी. इस मामले को मध्यप्रदेश पुलिस के कई आला अफसर भी ये मान रहे थे कि इस मामले में सरकार के दबाव में पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्यवाही की गयी है.

इसी तरह से पिछले साल ही झाबुआ जिले के पेटलाबाद में हुए दंगों में भी वहाँ के प्रसाशन पर भाजपा सांसदों औए संघ के नेताओं द्वारा दबाव डालने का मामला सामने आया था  जिसके बाद वहाँ के एसडीओपी  राकेश व्यास को हटा दिया गया था. राकेश व्यास ने भी दंगा और आगजनी करने के आरोप में संघ परिवार से जुड़े संगठनों के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करने की गुस्ताखी की थी.

उपरोक्त घटनाओं को हलके में नहीं लिया जा सकता है. प्रशासन व कानून व्यवस्था चलाने वाली मशीनरी पर राजनीति का यह हस्तेक्षप घातक हो सकता है. नौकरशाही को अपने रुतबे से पीछे हटने और राजनीति को अपने हावी होने की आदत को बदलना होगा. लेकिन इतना ही काफी है इसके लिए सुधारों की भी जरूरत पड़ेगी. नौकरशाही के नियुक्तियों और तबादलों के लिए सवतंत्र मेकैनिज़म बनाना होगा. जिससे वे भारतीय न्यायपालिका के तरह काम कर सकें. अगर आज हमारी न्यायपालिका स्वतंत्र तरीके से काम कर पा रही है तो इसकी  वजह उसका काफी हद तक स्वायत्त होना है, जजों को यह डर नहीं सताता है कि राजनीति के खुर्राट उनका तबदाला करा देंगें . हालाँकि न्यायपालिका पर भी लगाम कसने की कोशिश की जा रही हैं. भारत सरकार द्वारा न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम व्यवस्था को बदलकर न्यायायिक आयोग की व्यवस्था लागू करने की जी तोड़ कोशिशें जारी हैं. यदि न्यायायिक आयोग की व्यवस्था लागू हो जाती  है तो यहाँ भी पदों के नियुक्ति में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ जाएगा.
 
 
 
 

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