मीडिया की मार से मरते अमेरिकी मुसलमान

पिछले तेरह जून को जैसे ही ऑरलैंडो नाइट क्लब में हुई गोलीबारी की खबर सामने आई, अमेरिका के सभी मुसलमान भय से कांप उठे। हालांकि मन ही मन वे उम्मीद और दुआ कर रहे थे कि अपराधी कोई मुसलिम पहचान वाला न हो। लगभग इसी किस्म की प्रतिक्रिया मुसलमानों के बीच 2013 के बोस्टन मैराथन बमबारी और सन बर्नार्डीनो गोलीबारी की घटना के बाद हुई थी।

दरअसल, अमेरिकी मुसलमान किसी आतंकी घटना के बाद इसी तर्ज पर प्रतिक्रिया करने के आदी हो गए हैं। जब कभी इस किस्म का हमला होता है और पकड़े गए हमलावर के बारे में घोषणा होती है कि वह मुसलमान है तो अमेरिका के सभी मुसलमान इसी भाव में चले जाते हैं। मीडिया और दूसरी संस्थाएं घरेलू अतिवादियों के प्रसार के खतरों के प्रति आगाह करते हुए इस बात पर बहस करते हैं कि क्या इस्लाम हिंसा को जायज करार देता है? दूसरी ओर,राजनेता और विशेषज्ञ मुसलमान आप्रवासियों और नागरिकों की स्वतंत्रता को सीमित करने वाली नीतियों का ढोल पीटते हैं।

मीडिया के मनोविज्ञान की अध्येता के तौर मैंने देखा है कि कैसे मीडिया मुसलमान विरोधी नफरत की भावना और नीतियों को अमेरिका में हवा देता है। चूंकि बहुत कम अमेरिकी व्यक्तिगत रूप से मुसलमानों जानते हैं, इसलिए मीडिया द्वारा मुसलमानों को आतंकवादी के तौर पर चिहि्नत करना बेहद खतरनाक है, क्योंकि कई लोग यह मान लेते हैं कि सारे मुसलमान आतंकवादी होते हैं।

मीडिया की ताकत
गैर-आतंकी हमलों की कवरेज के दौरान भी मुसलमानों की बहुत खराब तरीके से आलोचना की जाती है। केबल न्यूज, टेलीविजन, सिनेमा और अखबार में आतंकी मुसलमानों से संबंधित सामग्रियों के विश्लेषण से यह पता चलता है कि मुसलमानों को अमेरिकी मीडिया में हिंसक, आतंकवादी, अत्याचारी और असहिष्णु बताया जाता है। उसकी कोई सकारात्मक छवि पेश नहीं की जाती।

सामाजिक मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक अपने से भिन्न 'बाहरी' माने जाने वाले सामाजिक समूहों के साथ संपर्क रखने से पूर्वाग्रहों को कम करने में मदद मिलती है। लेकिन अध्ययनों से पता चलता है कि जब सीधा संपर्क सीमित या न के बराबर होता है तो 'बाहरी' समूहों के साथ हमारे रवैये को तय करने में मीडिया द्वारा इन समूहों का चित्रण अपेक्षाकृत बड़ा प्रभाव डालता है।

चूंकि कुल अमेरिकी जनसंख्या में मुसलमानों की संख्या मात्र एक प्रतिशत है, इसलिए अधिकतर अमेरिकी लोगों का उनसे दैनिक आधार पर संपर्क नहीं होता। इसका सीधा मतलब यही हुआ कि मुसलमानों को देखने के उनके तरीके में मीडिया या समाचारों की बड़ी भूमिका होती है।

चंद गलत लोगों की वजह से कौन होता है बदनाम
हाल के कुछ अध्ययनों में हमने पाया है कि मुसलमानों का नकारात्मक चित्रण किस कदर प्रभावी होता है। मिसाल के तौर पर, हमने एक प्रायोगिक सर्वेक्षण किया, जिसमें प्रतिभागियों को खबरों में मुसलमानों के बारे में नकारात्मक, तटस्थ और सकारात्मक चित्रण को देखने के लिए कहा गया। उसके बाद उन्हें सभी मुसलमानों के बारे में उनके अपने दृष्टिकोण और मुसलमानों को हानि पहुंचाने वाली नीतियों के प्रति उनके समर्थन से जुड़े सवालों का जवाब देने को कहा गया।

नकारात्मकता देखने वाले प्रतिभागियों के सामने 2007 में फोर्ट डिक्स पर आतंकी हमले की कोशिश से संबंधित बहस चलाने वाली खबर पेश की गई। अन्य प्रतिभागियों के मुकाबले ये प्रतिभागी मुसलमानों को उग्र और हिंसक मानने के लिए कहीं अधिक तत्पर नजर आए। यही नहीं, हम यह देख कर हैरान थे कि वे कितनी आसानी से अमेरिकी मुसलमानों के नागरिक अधिकारों तक पर प्रतिबंध लागने के पक्षधर थे- चाहे हवाई अड्डों पर उन्हें सुरक्षा जांच के लिए एक अलग पंक्ति में खड़ा रखने का मसला हो या उनके मतदान के अधिकार को सीमित करने का या फिर सरकार को उनकी निगरानी की अनुमति का मामला हो। ये प्रतिभागी मुसलिम देशों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई के लिए भी अपेक्षाकृत अधिक पक्षधर थे। उन्होंने इस्लाम के प्रभाव को संकुचित करने की इच्छा भी जाहिर की।

यहां ध्यान देने लायक बात यह है कि इन प्रतिभागियों ने जिन नीतियों की वकालत की की, उनमें से अधिकतर 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में खड़े उम्मीदवारों द्वारा मुसलमानों के बारे में प्रस्तावित नीतियों से जबर्दस्त ढंग से मेल खाते हैं।

गौरतलब है कि राजनीतिक दलों के कुछ प्रत्याशियों ने अमेरिकी मुसलमानों की निगरानी बढ़ाने, मस्जिदों को जबरन बंद करने, अमेरिकी मुसलमानों का डाटाबेस तैयार करने, धार्मिक मतों को इंगित करने वाले विशेष पहचान चिह्न रखने और मुसलिम देशों से आने वाले आप्रवासियों पर रोक लगाने की जरूरत पर बल दिया है।

यह तथ्य है कि इनमें कई प्रस्ताव असंवैधानिक हैं और अमेरिकी मुसलमानों की बेचैनी और भय कम नहीं करते। कई लोग इस बात से अच्छी तरह वाकिफ हैं कि पर्ल हार्बर पर आक्रमण के बाद जापानी मूल के अमेरिकी लोगों के साथ इसी किस्म का सलूक किया गया था।

हालांकि इस तरह का सर्वेक्षण यह कतई नहीं कहता कि मीडिया को मुसलमान पहचान वाले आतंकियों द्वारा किए गए हमलों की रिपोर्ट नहीं करना चाहिए। इसके उलट, यह अमेरिकी मुसलिम समुदाय का संतुलित चित्रण के महत्त्व को रेखांकित करता है। अमेरिकी मुसलमानों से जुड़ी सकारात्मक खबरों की भरमार है, जिसकी रिपोर्टिंग बड़े आराम से की जा सकती है।
 

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