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मोरारजी भाई के अनुसार गोडसे आरएसएस का सदस्य था

अगले कुछ दिनों में  न्यायपालिका इस मुद्दे पर विचार करेगी कि महात्मा गांधी की हत्या किसने की थी? राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने एक संगठन के रूप में गांधी जी की हत्या करवाई थी या एक व्यक्ति नाथूराम गोडसे ने। कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने यह आरोप लगाया है कि महात्मा गांधी की हत्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने की थी। संघ ने राहुल गांधी के इस कथन को चुनौती दी है।


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न्यायपालिका ने भी राहुल गांधी से कहा है कि अपने इस कथन की वास्तविकता को सिद्ध करें। कुछ दिनों के बाद इस गंभीर ऐतिहासिक प्रश्न पर न्यायपालिका विचार करेगा।

वैसे तो गांधी की हत्या के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की न तो कोई सदस्यता सूची होती थी और ना ही संघ की कार्यवाही का विवरण विधिवत रूप से रखा जाता था। इसलिए यह कहना मुश्किल था कि नाथूराम गोडसे संघ के सदस्य थे या नहीं। वैसे भी संघ की कार्यप्रणाली हमेशा गुप्त रही है। जब संघ की बैठक होती है तो जिस स्थान पर बैठक संपन्न होती है वहां परिंदे को भी प्रवेश करने नहीं दिया जाता।

इसलिए यह सिद्ध करना पूरी तरह कठिन है कि संघ ने पूरी योजना बनाकर यह प्रस्ताव पारित कर गांधी जी की हत्या करवाने का निर्णय लिया होगा।

परंतु दो ऐसे सबूत उपलब्ध हैं जिनसे यह कहा जा सकता है कि नाथूराम गोडसे संघ के सदस्य थे।

जब गांधी जी की हत्या हुई उसके तुरंत बाद मोरारजी भाई ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट की, जो उनकी आत्मकथा में शामिल है। मोरारजी भाई लिखते हैं ‘‘30 जनवरी को जब बापू अपनी प्रार्थना सभा स्थल की ओर जा रहे थे तब एक रिवाल्वर से तीन गोलियां चलाई गईं। बापू गिर गए और कुछ ही क्षणों में उनकी मृत्यु हो गई। नाथूराम गोडसे नाम के व्यक्ति ने उनकी हत्या की थी। वह पुणे में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का सदस्य था और एक अखबार का संपादन करता था। पुलिस ने उसे तुरंत गिरफ्तार कर लिया। गोडसे का विचार था कि बापू मुसलमानों के पक्षधर हैं और हिन्दुओं के साथ उनका व्यवहार अन्यायपूर्ण है। उसकी सोच थी कि गांधी जी की हत्या करके उसने हिन्दू समाज की महान सेवा की है। जहां तक मुझे याद है उसने इसी तरह का वक्तव्य अदालत में दिया था। मुझे जब गांधी जी की हत्या का समाचार मिला, तो मुझे दिली धक्का लगा। उस समय तक मुझे नहीं मालूम था कि यह अपराध किसने किया है। परंतु मुझे इस बात की बड़ी चिंता थी कि यदि हत्यारा मुसलमान निकला तो उससे देश में तूफान आ जाएगा और हिन्दू बड़े पैमाने पर खतरनाक कदम उठा लेंगे। मेरी यह चिंता उस समय समाप्त हो गई जब मुझे बताया गया कि यह हिंसक कार्य एक हिन्दू ने किया है।’’  मोरारजी देसाई ने, जो उस समय बाम्बे प्रेसिडेन्सी में गृहमंत्री थे, ने यह महत्वपूर्ण बात अपनी आत्मकथा में शामिल की है, जिससे यह सिद्ध होता है कि नाथूराम गोडसे संघ के सदस्य थे।

दूसरा सबूत, प्रसिद्ध पत्रिका ‘आउटलुक’ में छपे एक समाचार से सिद्ध होता है। वर्ष 1998 के 27 अप्रैल के अंक में तत्कालीन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह का साक्षात्कार छपा था। इस साक्षात्कार को लेने वाले राजेश जोशी ने अपने लेख के प्रारंभ में कहा कि संघ के सामने हमेशा यह उलझन रही है कि वह नाथूराम गोडसे को अपना आदमी माने या नहीं। संघ की अधिकृत सोच यह है कि ‘संघ का गोडसे से कोई लेनादेना नहीं है’। परंतु सिर्फ तीन महीने पहले प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह ने आउटलुक को दिए एक साक्षात्कार में कहा था कि ‘‘गोडसे अखंड भारत के सपने से बहुत प्रभावित था। उसके इरादे ठीक थे परंतु उसने गलत रास्ता अपनाया’’। राजेन्द्र सिंह ने अपने इस कथन में यह कदापि नहीं कहा कि गोडसे का संघ से कोई संबंध नहीं है। इसके विपरीत उन्होंने यह अप्रत्यक्ष रूप से माना है कि गोडसे संघ से संबंधित था।

इन दोनों उद्धरणों से इस बात के स्पष्ट संकेत मिलते हैं कि नाथूराम गोडसे संघ के ही स्वयंसेवक थे।

परंतु संघ की एक आदत है और वह आदत है ‘यूज़ एंड थ्रो’ (उपयोग करो और त्याग दो)। इसी आदत के चलते संघ ने नाथूराम गोडसे से भी अपने संबंध तोड़ लिए।

इस बात में कोई संदेह नहीं कि नाथूराम गोडसे महात्मा गांधी से अपने दिल और दिमाग की गहराईयों से घृणा करते थे। अदालत में दिए अपने बयान में उन्होंने बार-बार यह कहा कि उन्हें हिंसा में अटूट विश्वास है। गोडसे ने भगवान राम द्वारा रावण की हत्या और महाभारत में अर्जुन की भूमिका का बार-बार उल्लेख किया। उनकी राय में इस देश में मुसलमानों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। उनका आरोप था कि गांधी जी ने अपने संपूर्ण जीवनकाल में सिर्फ मुसलमानों का तुष्टिकरण किया है। वे अनेक स्थानों पर गांधी जी को एक कायर और ढोंगी मानते हैं।

गांधी जी की हत्या के बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया। तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने गांधी जी की हत्या में संघ की भूमिका के बारे में स्वयं गोलवलकर को एक पत्र के माध्यम से जो कुछ लिखा वह भी पढ़ने लायक है। सरदार पटेल ने 19 सितंबर, 1948 के अपने पत्र में लिखाः

‘‘हिन्दुओं का संगठन करना, उनकी सहायता करना एक प्रश्न है पर उनकी मुसीबतों का बदला, निहत्थे व लाचार औरतों, बच्चों व आदमियों से लेना दूसरा प्रश्न है। इसके अतिरिक्त उन्होंने कांग्रेस का विरोध करके और इस कठोरता से कि न व्यक्तित्व का ख्याल, न सभ्यता व शिष्टता का ध्यान, जनता में एक प्रकार की बेचैनी पैदा कर दी थी। इनके सारे भाषण सांप्रदायिक विष से भरे थे। हिन्दुओं में जोश पैदा करने व उनकी रक्षा के प्रबन्ध करने के लिए यह आवश्यक न था कि वह जहर फैलाते। इस जहर का फल अन्त में यही हुआ कि गांधी जी की अमूल्य जान की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी और सरकार व जनता की सहानुभूति जरा भी आरएसएस के साथ नहीं रही, बल्कि उसके खिलाफ हो गयी। उनकी मृत्यु पर आरएसएस वालों ने जो हर्ष प्रकट किया था और मिठाई बांटी उस से यह विरोध और बढ़ गया और सरकार को इस हालात में आरएसएस के खिलाफ कार्यवाही करना जरूरी ही था।

‘‘तब से अब 6 महीने से ज्यादा हो गए। हम लोगों की आशा थी कि इतने वक्त के बाद सोच विचार कर के आरएसएस वाले सीधे रास्ते पर आ जाएंगे। परन्तु मेरे पास जो रिपोर्टें आती हैं उनसे यही विदित होता है कि पुरानी कार्यवाहियों को नई जान देने का प्रयत्न किया जा रहा है।’’ 

गांधी जी की हत्या के बाद, 4 फरवरी 1948 को आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने के पीछे  उसके कई राष्ट्र विरोधी कार्य भी थे। सरकार का आरएसएस पर प्रतिबंध लगाने वाला आदेश अपने आप में बहुत स्पष्ट था। भारत सरकार ने 2 फरवरी 1948 को अपनी घोषणा में कहा कि ‘‘सरकार ने उन सभी विद्वेषकारी तथा हिंसक शक्तियों को जड़मूल से नष्ट कर देने का निश्चय किया है, जो राष्ट्र की स्वतत्रंता को खतरे में डालकर उसके उज्जवल नाम पर कलंक लगा रही हैं। उसी नीति के अनुसार, चीफ कमिश्नरों के अधीनस्थ सब प्रदेशों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को अवैध घोषित करने का निश्चय भारत सरकार ने किया है। गवर्नरों के अधीन राज्यों में भी इसी ढंग की योजना जारी की जा रही है।’’ सरकारी विज्ञप्ति में आगे कहा गयाः ‘‘संघ के स्वयंसेवक अनुचित कार्य भी करते रहे हैं। देश के विभिन्न भागों में उसके सदस्य व्यक्तिगत रूप से आगजनी, लूटमार, डाके, हत्याएं तथा लुकछिप कर शस्त्र, गोला-बारूद संग्रह करने जैसी हिंसक कार्यवाहियां कर रहे हैं। यह भी देखा गया है कि ये लोग पर्चे भी बांटते हैं, जिनमें जनता को आतंकवादी मार्गों का अवलंबन करने, बंदूकें एकत्र करने तथा सरकार के बारे में असंतोष फैला कर सेना और पुलिस को उपद्रव कराने की प्रेरणा भी दी जाती है।’’

संघ ने भले ही औपचारिक रूप से गोडसे को अपने संगठन का हिस्सा नहीं माना परंतु गांधी जी की हत्या के बाद से संघ ने और संघ के कार्यकर्ताओं ने गोडसे को नहीं भुलाया। इसका सुबूत 5 अक्टूबर, 1997 के आर्गेनाइज़र में छपा एक विज्ञापन है। इस विज्ञापन का शीर्षक था ‘‘रीडेबिल अटरेक्टिव न्यू बुक्स’’ (पठनीय, आर्कषक नई किताबें)। इस सूची में जो किताबें दी गईं थीं उनमें गोपाल गोडसे की ‘गांधीजीस मर्डर एंड आफ्टर’ (गांधी जी की हत्या और उसके बाद), कीमत 150 रूपए और नाथूराम गोडसे की ‘‘मे इट प्लीज योअर आनर’’ छपा था। उसके पूर्व और बाद में भी इन किताबों का प्रचार किया जाता रहा।

अभी दो वर्ष पूर्व गोडसे का गौरवमंडल करने वाले अनेक कार्यक्रम पूरे देश में आयोजित किए गए। महाराष्ट्र में कई स्थानों पर इस तरह के कार्यक्रम आयोजित होते हैं।

इस सब से यह सिद्ध होता है कि संघ का गोडसे से प्रगाढ़ संबंध था और संघ के कार्यकर्ता गोडसे को देश का हीरो शहीद मानते हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्ध कार्यकर्ता हैं) 
 

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