एक ओर डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के सबसे ताकतवर सीईओ बनने और अमेरिका में दुनिया के मुसलमानों के घुसने से दूर रखने के दावे के साथ आगे बढ़ रहे हैं, तो दूसरी ओर भारत में संघ परिवार अपने युवाओं को हाथ में राइफल और लाठी देकर भारतीय मुसलमानों के खिलाफ 'प्रशिक्षण' दे रहा है! पिछले हफ्ते बजरंग दल को संभावित हमले के मद्देनजर एक व्यक्ति पर हमले का अभ्यास करते देखा गया, जिसे दाढ़ी और मुसलिम टोपी पहने पेश किया गया था। बनारस, मालेगांव या दूसरी तमाम ऐसी जगहें हैं, जहां आतंकवादी धमाके हुए, उसके लिए जिम्मेदार लोगों को पता नहीं कब पकड़ेगा जाएगा। कई ऐसी जगहों पर छिपा के काम नहीं होता है।
गौरतलब है कि इसमें किसी पाकिस्तानी या आईएसआईएल के झंडे निशाने पर नहीं थे, जिससे किसी को यह अंदाजा लगाने में शक नहीं रह गया कि दुश्मन के रूप में एक मुसलमान है। अब कोई भगवा योद्धा को देखने की अपेक्षा कर सकता है, लेकिन शायद वह भारतीय नागरिकों के बहुसंख्यकों का समूह होगा जो देशभक्ति के पहिए पर सवार होगा।
अब उस 'आत्म प्रशिक्षण अभ्यास' के मसले पर उत्तर प्रदेश में चुनाव छह से आठ महीने में आने वाले हैं, स्थानीय निकायों को कानूनी नोटिस भेजा गया। लेकिन जब उस घटना के बारे में पूछा गया तो संघ परिवार की ओर से कहा गया कि यह 'आत्म रक्षा' के लिए कराया गया अभ्यास भर है।
अब तक दाढ़ी वाले और सिर पर स्कल कैप पहने व्यक्ति को देख कर उसे दुश्मन के तौर पर देख कर हम असहज होते रहे हैं। लेकिन इस विरोधाभास को एक किनारे रखिए। एक मिनट के लिए मान लीजिए कि बजरंग दल ने जो प्रदर्शन किया, अगर यही काम मदरसा जाने वाले मुसलमान युवकों ने किया होता तो!
चिंता की बात यह है कि केंद्र की भाजपानीत सरकार पर उसके अपने ही युवा छत्रपों को इस बात पर विश्वास नहीं है कि वह अयोध्या और उत्तर प्रदेश के मुसलमानों से बचाने आएगी! दरअसल, जो भी हो चल रहा है उसके केंद्र में उत्तर प्रदेश के आगामी विधानसभा है। यह याद रखने की बात है कि कुछ समय पहले पांच राज्यों में चुनाव हुए, लेकिन भाजपा को जीत सिर्फ एक यानी असम में मिली। वहां भी बदलाव अपेक्षित थी, जहां पिछले पंद्रह सालों से कांग्रेस का शासन था। लेकिन इस जीत को ऐसे पेश किया गया, मानो इससे दुनिया हिल गई होगी। जबकि सच यह है कि तमाम गड़बड़ियों के बावजूद कुल पांचो राज्यों के चुनाव में कांग्रेस को ज्यादा वोट मिले हैं। लेकिन क्या इन वोटों को अब फिर कांग्रेस को जीवन देने के बराबर कर देखा जा सकेगा?
यों 2014 के चुनावों के दौरान किए गए वादों पर कितना अमल किया गया है, यह सोचने की बात है? और आज राष्ट्रवाद के नारे में क्या-क्या छिपाने और दबाने की कोशिश चल रही है, वह भी छिपा नहीं है। तो सवाल है कि राष्ट्रवाद के इस सफर में जिस तरह विभाजनकारी और हिंसक रणनीतियां अपनाई जा रही हैं, उसमें उससे लड़ने के लिए क्या उपाय है!