नागरिक आजादी और मानवाधिकार बहाली के बगैर कश्मीर में अमन मुश्किल

केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में नागरिक आजादी बहाल करने के अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा करे। वह अफस्पा हटाए और मानवाधिकार सुनिश्चत करे। साथ ही उसे देश में उभर रहे `केसरिया राष्ट्रवाद’ पर भी काबू पाना  होगा। कश्मीर में शांति बहाल करने की दिशा में यह बेहद मददगार साबित होगा।

हिंसा और जवाबी हिंसा की वजह से जम्मू-कश्मीर एक बार फिर सुर्खियों में है। हालात काबू करने के लिए फिर नए सुझाव सामने आए हैं। लेकिन आगे बढ़ने और भविष्य की शांति सुनिश्चित करने के लिए एक बार जमीनी हालत की पड़ताल जरूरी है।
राज्य में हिंसा का जो मौजूदा दौर है उसकी शुरुआत हिजबुल मुजाहिदीन के लोकल कमांडर बुरहान वानी की सुरक्षा बलों की साथ मुठभेड़ में मौत के साथ हुई थी। हिजबुल वो संगठन है, जिसने फिदाइन हमलों के जरिये कश्मीर को आजाद करने की कसम खाई है। (टाइम्स ऑफ इंडिया, 4 सितंबर 2016)। कश्मीर की यह अशांति सिर्फ घाटी तक सीमित है। यह इलाका पूरे राज्य के भूभाग का 7.1 फीसदी है लेकिन इसमें राज्य की आबादी का 54.9 फीसदी हिस्सा रहती है। 2011 की जनगणना के मुताबिक यह आबादी 68 लाख है। बहरहाल, मौजूदा दौर की हिंसा में घाटी में अब तक 70 लोगों की मौत हो चुकी है और हजारों घायल हो चुके हैं।

घाटी के इस बिगड़े हालात के खात्मे के लिए जो हल सुझाए जा रहे हैं उसके मुताबिक पाकिस्तान कश्मीर में शामिल हो जाए या फिर उसे भारत से `आजाद’ कर दिया जाए। तीसरा हल यथास्थिति बनाए रखने की है, जिसे अलग-अलग शर्तों के साथ सभी राजनीतिक दल बनाए रखना चाहते हैं।

पाकिस्तान के साथ विलय
पाकिस्तान के साथ विलय के सुझाव में दम नहीं है। इसकी सीधी सी वजह यह है कि अगर कश्मीर पाकिस्तान में शामिल हो जाता है तो घाटी के लोग वहां एक और अल्पसंख्यक समुदाय की आबादी के तौर पर जुड़ जाएंगे।  और पाकिस्तान में जातीय और अलग-अलग पंथों के अल्पसंख्यकों की हालत अच्छी नहीं है। मोहाजिर, बलूच, पख्तून, अहमदी और हाजरा जैसे अल्पसंख्यक समुदाय के लोग मुश्किल में हैं। बड़ी तादाद में इन समुदायों के लोगों को पाकिस्तान से बाहर भागना पड़ा है।
यूनाइटेड नेशन हाई कमीश्नर फॉर रिफ्यूजिज (यूएनएचसीआर) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक यूरोपीय देशों में शरण मांगने वाले पाकिस्तानियों की आबादी खासी बड़ी है। सीरियाई, अफगानी और इराकियों के बाद शरण मांगने वालों में पाकिस्तानियों का नंबर छठा था।

वर्ष 2013-14 की ऑस्ट्रेलियाई इमिग्रेशन रिपोर्ट के मुताबिक मानवीय आधार पर वीजा ऑन अराइवल की मांग करने वालों में सबसे ज्यादा पाकिस्तानी थे।
( एलिब्रिट कार्लसन – 2014, ऑस्ट्रेलिया की संसद में पेश रिपोर्ट)

बलूचिस्तान में पाकिस्तान का मानवाधिकार रिकार्ड बेहद खराब रहा है। पिछले एक दशक के दौरान इस प्रांत से 18000 लोग कथित तौर पर गायब हो चुके हैं। वॉयस फॉर बलोच मिसिंग पर्सन्स के मुताबिक राज्य में 2015 में 157 लोगों के क्षत-विक्षत शव बरामद हुए थे। 463 लोग कहां गए इसका कुछ पता नहीं चला। (बलोचवार्ना न्यूज, 3 जनवरी 2016)। पहली नजर में इसके लिए सुरक्षा बलों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है।

पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर की हालत भी इससे कोई अच्छी नहीं है। चीन-पाकिस्तान इकोनॉमिक कोरिडर के तहत ऊर्जा सेक्टर में 38 अरब डॉलर का निवेश होना है लेकिन गिलगिट-बाल्टीस्तान में दूसरे राज्यों के मुकाबले कोई निवेश नहीं हुआ है (डॉन, 12 मई 2016)। इसके उलट योजना मंत्री ने क्षेत्र के किसानों को यह कह कर धमकाया है कि अगर उन्होंने परियोजना का विरोध किया तो उनके खिलाफ आतंकवादी रोधी कानून लागू किया जाएगा। (टाइम्स ऑफ इंडिया, 18 अगस्त, 2016)

कश्मीर की आजादी
जम्मू-कश्मीर की आजादी के विकल्प में भी दिक्कत है। अगर राज्य के पांचों क्षेत्रों ने आजादी की मांग कर दी तो भारत और पाकिस्तान के रुख को देखते हुए यह संभव नहीं होगा। अगर जम्मू और लद्दाख के लोगों के नजरिये को दरकिनार कर भारत के हिस्से के कश्मीर की आजादी के विकल्प पर गौर किया जाए तो वह भी संभव नहीं होगा।

सिर्फ कश्मीर घाटी की आजादी की मांग में भी भारी नैतिक दुविधा है। घाटी में रहने वाले पांच लाख कश्मीरी पंडित लगभग निर्वासन की स्थिति में हैं। इस आजादी का नकारात्मक असर पड़ सकता है क्योंकि पुंछ, रजौरी और किश्तवाड़ में मुस्लिम आबादी बहुसंख्यक है जबकि उधमपुर और जम्मू में हिंदू बहुसंख्यक हैं। इससे राज्य में अस्थिरता और बढ़ जाएगी।

कश्मीर की आजादी की मांग करने वाला आंदोलन हिंसक रहा है और यह आतंकवाद को हथियार के तौर पर इस्तेमाल कर रह है और इतिहास गवाह है कि हिंसक आंदोलन एक सफल लोकतांत्रिक राज्य की स्थापना करने में नाकाम रहे हैं। हिंसक विचारधारा के सहारे लड़ने वाले अफ्रीकी देशों के आंदोलन में यह स्थिति देखी जा सकती है।

हाल के दिनों में ऐसी खबरें आई थीं कि कश्मीर में आंदोलनों के लिए मस्जिदों का सहारा लिया जा रहा है और वहां आईएसआईएस के झंडे लहराए जा रहे हैं। ( इंडियन एक्सप्रेस, 21 अगस्त 2016)। इस तरह के आंदोलन अगर आगे चलकर सफल भी हुए तो इस पर धार्मिक सत्ता हावी हो जाएगी और यह `कश्मीरियत’ की भावना के खिलाफ साबित होगी। पिछले कुछ सालों में घाटी में इस भावना को काफी चोट पहुंची है।

आगे का रास्ता
केंद्र सरकार घाटी के आबादी वाले इलाके में नागरिक आजादी बहाल करने के अपने संवैधानिक दायित्व से बंधी है। उसे वहां से अफस्पा जैसे कानून हटाने होंगे। सरकार को मानवाधिकार उल्लंघन के मामले में जिम्मेदारी तय करनी होगी। एक सुनिश्चित और पारदर्शी गवर्नेंस देना होगा। लोगों को आतंकियों के प्रभाव से मुक्त करने के कार्यक्रम शुरू करने होंगे और वार्ता के लिए घाटी के वास्तविक नेतृत्व की पहचान करनी होगी। अगर वह देश भर में जोर पकड़ रहे `केसरिया’ राष्ट्रवाद को काबू कर सके तो कश्मीर में शांति बहाली में यह बेहद मददगार साबित होगा। मानवता को तवज्जो देने वाले और लोकतांत्रिक कश्मीर की दिशा में अब यही कदम उठाने होंगे।

(पुष्कर राज मेलबोर्न में रहते हैं और कश्मीरी मूल के लेखक हैं। वह दिल्ली यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान पढ़ा चुके हैं और पीयूसीएल के राष्ट्रीय महासचिव रह चुके हैं। इनसे raajpushkar@gmail.com  पर संपर्क किया जा सकता है।)

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