कल से मन द्रवित है…व्यथित है…उद्वेलित है….सोच नहीँ पा रहा हूँ कि हृदयविदारक जानकारी को आप से भी साझा करूँ या ना करूँ….फिर सोचता हूँ कि आप से वैचारिक साझेदारी करना ठीक ही होगा….दर्द का बँटवारा ही हो जाएगा…
कल लखनऊ गया था…थिँक टैँक की मीटिँग ज्वाइन करने…साथ मेँ भाई उत्कर्ष अवस्थी भी थे…रेउसा ब्लाक के बसँतापुर गाँव के युवा प्रधान हैँ…जिला ग्राम प्रधान सँघ के अध्यक्ष भी हैँ….
अभी हम रास्ते मेँ ही थे कि उनके पास गाँव से किसी का फ़ोन आया…उसने जो जानकारी दी वह रोँगटे खडी करने वाली थी…उत्कर्ष ने बताया कि उनके गाँव के चार लोग मजदूरी करने लखनऊ गए थे…कहीँ काम नहीँ लगा….अँटी मेँ जो दस पाँच लेकर गए थे रूखी सूखी खाने मैं निकल गया…दो दिन के भूखे…अण्टी मेँ वापसी का किराया तक नहीँ….अब पैदल चलकर लखनऊ से बसँतापुर आ रहे हैँ…किसी से खुशामद कर के गाँव मेँ फ़ोन करवाया तब प्रधान जी को खबर दी गई….खैर प्रधान उत्कर्ष अवस्थी ने अपना दायित्व निभाया….महमूदाबाद मोड के पास बाइक से अपने किसी आदमी को बुलाया…उसे चारोँ आदमियोँ को कुछ खाने पीने के लिए और वापसी भाडे के लिए पैसे दिए और लखनऊ के रास्ते पर रवाना किया कि वह मजदूर लखनऊ से पैदल आते जहाँ पर मिल जाएँ उन्हेँ भोजन करवाकर और वापसी किराया देकर आओ….कुछ चैन मिला….खैर….
वापसी मेँ मैने सीतापुर से बस पकडी… यह मजदूरोँ की पैदल वापसी वाली बात दिमाग के किसी कोने मेँ थी लेकिन अचानक फिर वह ताजा हो गयी जब सीतापुर से एक दुबला पतला देखने मेँ ही बेहद गरीब लग रहा लडका बस मेँ चढा…शहर से बाहर आते ही कँडक्टर ने उससे जाने की जगह पूछी और किराया माँगा….लडके ने बहुत दयनीय आवाज मेँ कहा कि पैसा तौ नाहीँ हैँ…साहब वैल (ओयल) तक लिहे चलौ…कँडक्टर ने झिडका और उतरने के लिए कहा…तब बस यात्री सक्रिय हुए और उससे पूछताँछ शुरू की…लडके ने भी वही बताया…साहब लखनऊ मजूरी करै गए रहेन…काम मिला नाहीँ…पइसा रहैँ नाहीँ…बडी मुसकिल से माँगे जाँचे बीस रुपया पाएन तो अटरिया तक बस ते आएन फिर हुआँ से सीतापुर तक पइदर आएन…अब राति होई गई औ कोहरा हाड कँपावति है…साहेब लिए चलौ….
लेकिन कँडक्टर नहीँ पसीजा….बस रुकवा दी….तब मुझसे नहीँ रहा गया….मैने जेब टटोली…पचास का एक नोट मिला….मैनेँ कँडक्टर को दिया कि भैया इसका टिकट बना दो…तब कुछ महिलाओँ ने भी अपनी रूमाल की गाँठेँ खोलीँ और दस दस रुपये उस लडके को खाने के लिए दिए….कँडक्टर ने सोलह रुपये मुझे वापस किए मैने वह भी उस लडके को पकडा दिए….बस चली….लाइट बँद कर दी गयी तब मैने चुपके से रूमाल निकाली और आँखोँ के आँसूँ पोँछ लिए….
आज लिखते समय फिर…ये साले आँसू…क्या करूँ इनका….खैर आप पढिए….मैँ फिर रूमाल का इस्तेमाल कर लूँ….क्या करूँ…
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हर एक सीने मेँ जो दर्द है हमारा है….