पलायन की लहरें: गरीब आदिवासियों की कब्र पर बनते अमीरों के आरामगाह

आदिवासी बहुल राज्यों- छत्तीसगढ़, झारखंड, ओड़िशा, बंगाल में हाल के वर्षों में तीन अलग किस्म के पलायन की लहरें देखी गई हैं। पहली तरह की लहर आदिवासी युवतियों का महानगरों की ओर पलायन है। इसके पीछे वजह इन युवतियों का घर या गांव में लाभकारी या सार्थक रूप से समायोजन नहीं हो पाना है।

अपने छोटे खेतों में धान की एक-फसली खेती के बाद आदिवासी परिवारों को यह महसूस होता है कि इस उपज से महज कुछ महीनों का ही काम चल पाएगा। लिहाजा, घर पर खाली बैठने या भूख से तड़पने के बजाय ये महिलाएं शहरों और कस्बों में जाकर मध्यमवर्गीय परिवारों में घरेलू सहायिका या नौकरानी के तौर पर काम करने को तरजीह देती हैं। वे इसके पीछे के खतरों से बिल्कुल अनजान होती हैं। वे कुछ दलाल पुरुषों/महिलाओं के संपर्क में आती हैं और अक्सर अपने माता-पिता को बगैर सूचित किए या उनकी सहमति लिए शहरों की ओर निकल जाती हैं।

दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में पहुंचने के बाद वे पूरी तरह से प्लेसमेंट एजेंसियों की दया पर निर्भर होती हैं और भावी नियोक्ता को चुनने और काम की प्रकृति, वेतन और रहने की शर्तों को तय करने पर उनका कोई अख्तियार नहीं होता। एक मोटे अनुमान के मुताबिक ऐसी महिलाओं की संख्या तीन से चार लाख के आसपास है।

दूसरे किस्म की लहर समूचे परिवार का उत्तरी राज्यों की ओर मौसमी पलायन है। जून से लेकर दिसंबर तक मानसून आधारित खेती का मौसम होता है। चूंकि यह खाद्यान्न पूरे परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं होता और न ही उपयुक्त सिंचाई की व्यवस्था के अभाव के कारण दूसरी फसल की गुंजाइश होती है, लिहाजा सैकड़ों झारखंडी परिवार जनवरी से मई तक अस्थायी रूप से अपना घर छोड़ देते हैं। पीछे जानवरों की देखरेख के लिए सिर्फ परिवार के बुजुर्ग रह जाते हैं। और सरकार इस सालाना त्रासदी को आंखें मूंद कर देखती रहती है।

तीसरे किस्म की लहर आदिवासी युवाओं का अस्थायी या अनुबंधित मजदूर के तौर पर दक्षिणी राज्यों की ओर पलायन है। इनमें से हजारों लोग कर्नाटक और तमिलनाडु के शहरों में विनिर्माण के काम में लगे होते हैं और केरल के खेतों और बगानों में जुते रहते हैं। वे उन स्थानों पर या तो वहां पहले से काम रह रहे लोगों के संपर्क के जरिए पहुंचते हैं या फिर बिचौलियों और दलालों के द्वारा समूहों में ले जाए जाते हैं।

संक्षेप में, यह गरीबों द्वारा अमीरों के जीवन को अधिक आरामदायक बनाने की कहानी है।

पूर्वी और मध्य भारतीय राज्यों के हजारों आदिवासियों के दक्षिण भारत पहुंचने के पीछे दो मुख्य वजहें हैं। पहली वजह घोर गरीबी है। भारतीय अर्थव्यवस्था भले ही सबसे तेज गति से बढ़ने वाली बताई जा रही है, लेकिन मध्य भारत के आदिवासी इलाकों में घोर गरीबी बढ़ती जा रही है। खनिज पदार्थों के मामले में उनकी अमीरी अब उनके लिए एक अभिशाप बन गई है। जहां तक नीतियों और प्रवृत्ति का सवाल है, औद्योगिक घरानों द्वारा निर्देशित और नियंत्रत भारतीय राज-व्यवस्था किसी भी कीमत पर इन खनिज संसाधनों के दोहन पर आमादा है। आदिवासियों के हितों के संरक्षण के तमाम संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों को दरकिनार कर दिया गया है। आदिवासियों को उनकी जमीन के बदले क्षतिपूर्ति के रूप में नाममात्र की नकद राशि फेंकी जा रही है और वे अधिग्रहण के नाम पर अनुचित रूप से अपना घर-बार  त्यागने को मजबूर किए जा रहे हैं। यही वजह है कि युवा पीढ़ी अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए दूसरे विकल्पों को आजमाने पर मजबूर है।

दक्षिण की ओर उनके पलायन की दूसरी वजह बढ़ता राजकीय दमन है। इस शोषणकारी हालात को आदिवासी चुपचाच सहन नहीं कर रहे हैं। जल, जंगल और जमीन को लेकर वे प्रतिरोधी मुहिम चला रहे हैं। उनकी इस मुहिम की वजह से मित्तल, वेदांता और पॉस्को जैसे विशाल औद्योगिक घरानों को खाली हाथ लौटने पर मजबूर होना पड़ा है।

इस बीच, आदिवासियों के हितों के संरक्षण से जुड़े कानूनों, पंचायत (अधिसूचित क्षेत्र विस्तार) अधिनियम, 1996 अनुसूचित जाति एवं अन्य परंपरागत वन्य जाति वनाधिकार अधिनियम 2006 को सुचिंतित तरीके से लागू नहीं किया गया। शायद यह आदिवासियों को नेस्तनाबूद करने की योजना का एक हिस्सा है।

दुर्दशा की इन स्थितियों ने अधिकतर आदिवासी युवाओं को असुरक्षित वातावरण से थोड़ी देर के लिए ही सही, निकलने और परिवार के लिए कुछ अर्जित करने के लिए दक्षिण भारत जाने को मजबूर किया है।

प्रसिद्ध इतिहासकार रामचंद्र गुहा के शब्दों में 'स्वतंत्र भारत का संविधान अवसर की समानता और किसी को भी अनदेखा नहीं करने पर बल देता है। लेकिन ये सारी अपेक्षाएं धूमिल हुई हैं। चुनावी लोकतंत्र के छह दशकों में आदिवासियों ने खोया ज्यादा है और पाया बहुत कम है। शिक्षा, स्वास्थ्य और सम्मानजनक रोजगार के मामले में उनकी स्थिति दलितों से भी बदतर साबित हुई है। शहरी भारतीय उपभोक्ताओं के हितों के लिए बांध, कारखाना और खनन परियोजनाओं के नाम पर उन्हें उनके घरों से निकाल फेंका गया है।'
 
 

Trending

IN FOCUS

Related Articles

ALL STORIES

ALL STORIES