सावरगांव ग्रामीण मराठवाड़ा में सूखे से जुड़ी प्रतिनिधि कहानियां कहता है और यह भी बताता है कि कैसे दलित इन कहानियों के सबसे दुखियारे पात्र हैं
नांदेड़ जिले के हदगांव तालुके में 7000 की आबादी वाला सावरगांव. गांव में सुबह के छह बज रहे हैं. पानी भरने के लिए आ रहे लोगों की कतार लंबी होती जा रही है. बबन जोगदंड उनींदी आंखों के साथ घर लौट रहे हैं. कुओं के पास लोग जमा हो चुके हैं. अब बबन कुओं की सुरक्षा की परवाह किए बगैर घर जा कर आराम से सो सकते हैं.
गांव के सूख चुके तालाब में सात गड्ढे खोदे गए हैं. इनकी गहराई 15 फीट से अधिक नहीं है. इन गड्ढों, जिन्हें कुआं कहा जा रहा है, में जमीन से मटमैला पानी रिसकर इकठ्ठा होता है. गांव का एक तबका जो निजी टैंकरवाला पानी नहीं खरीद सकता, अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए इसी पानी पर निर्भर है. इसी की पहरेदारी में बबन जोगदंड रातभर जागते रहे थे.
गांव में 60 फीसदी आबादी आंद आदिवासियों की है. तालाब में खोदे गए सात में से चार कुओं पर इन्हीं का कब्ज़ा है. इसके बाद लिंगायत, मराठा और दलितों के पास एक-एक कुएं की हिस्सेदारी बचती है
सावरगांव एक तरह का ‘जमीनी टापू’ है. यहां से बाहर निकलने या यहां पहुंचने के लिए आपको कम के कम 8-10 किमी पैदल तो चलना ही पड़ता है. नीमगांव से नौ किलोमीटर का सफ़र पूरा करके आप जैसे ही सावरगांव में दाखिल होते हैं आपको गांव के एक सिरे पर सार्वजनिक जलापूर्ति के मकसद से बनी दो टंकियां दिखाई देंगी. ग्रामीणों के हिसाब से पुरानी टंकी की उम्र 40 साल से अधिक है. उसके बिल्कुल बगल में खड़ी निर्माणाधीन टंकी बस आठ साल पहले बनी है.
पुरानी टंकी में गांव के तालाब से पानी चढ़ाया जाता था. इससे गांव में छह नल कनेक्शन हैं. पिछले 10 सालों से इन नलों का पानी जैसी किसी चीज से कोई साबका नहीं पड़ा है. दूसरे टंकी में नौ किलोमीटर दूर नीमगांव से पाईपलाइन बिछा कर पानी लाने की योजना थी. इसके लिए आठ साल पहले 78 लाख रुपये आवंटित हुए थे. आज यहां एक चार इंच की पाइपलाइन के अवशेषभर मौजूद हैं. टंकी का काम अभी-भी पूरा नहीं हुआ और इसका इतिहास देखते हुए कहा भी नहीं जा सकता कि इसमें कब तक पानी आएगा. लेकिन इससे पहले यह सवाल जेहन में आता है कि जब गांव के तालाब से पानी इकठ्ठा कर गांव में सप्लाई करने के लिए पहले से टंकी मौजूद है तो नौ किलोमीटर दूर से पानी लाने की जरूरत क्यों पड़ी? इसके लिए हमें 22 साल के माधव मुलेकर और एक साल के दीपक कराले की बेवक्ती मौत के कारणों को समझना पड़ेगा.
यह 2014 की जुलाई की बात है. माधव को अचानक दोपहर में उल्टियां होने लगीं. शाम होते-होते उन्हें दस्त लगने भी शुरू हो गए. तब तक आसपास के लोग स्थिति की गंभीरता नहीं समझे थे और उनका इलाज घरेलू नुस्खों से करने की कोशिश की गई. सुबह होते-होते माधव की स्थिति यह थी कि वे खाट से उठकर खड़े नहीं हो सकते थे. 11 बजे के लगभग उन्हें नांदेड़ में भर्ती करवाने के लिए ले जाने की कवायद शुरू हुई. ग्रामीण बताते हैं कि माधव को गांव के चौराहे तक ही ला पाए थे कि उसने दम तोड़ दिया. इस चौराहे से उस नई टंकी की झलक साफ-साफ दिखती है.
सावरगांव में पानी सप्लाई के लिए आठ साल पहले एक टंकी का निर्माण शुरू हुआ था लेकिन यह आज तक नहीं बन पाई
दीपक प्रकाश कराले की उम्र महज एक साल की थी. पिछले साल हुई बारिश के बाद ऐसे ही एक दिन उसकी तबीयत बिगड़ गई. सावरगांव जो एक जमीनी टापू है, से दीपक के पिता प्रकाश कराले ने नौ किलोमीटर पैदल सफ़र तय किया. वे दीपक को नीमगांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र लेकर पहुंचे. लेकिन तब तक दीपक दम तोड़ चुका था. दीपक सहित गांव में पिछली बारिश में मरने वालों की संख्या चार थी. यह वही नीमगांव था जहां से पानी उस टंकी में पहुंचना था, जिसे गांव के मुख्य चौराहे से साफ-साफ देखा जा सकता है.
इन दो घटनाओं का जिक्र बस यह बताने के लिए किया गया है कि हर साल सावरगांव में मॉनसून मौत ले कर आता है. माधव के भाई विजय मुलेकर बताते हैं, ‘हमारे गांव के तालाब के पास बेशरम और दूसरी जहरीली झाड़ियां हैं. इनका तालाब के पानी पर भी असर पड़ता है. बारिश के समय पूरे गांव में लोग दस्त और उल्टी से परेशान हो जाते हैं. कई लोग और जानवर हर साल मरते हैं. ये टंकी इसलिए बनाई जा रही है कि हमें नीमगांव का साफ़ पानी मिल सके, लेकिन पिछले आठ साल में एक लोटा पानी नसीब नहीं हुआ.’
बहरहाल हम वापस तालाब की ओर मुड़ते हैं जिसकी तलहटी में सात कुएं खोदे गए हैं. इन कुओं की संख्या सात यूं ही नहीं है. वैसे तो भारतीय संस्कृति में ‘सात’ का अंक बड़ा महत्वपूर्ण है और कई मामलों में शुभ माना जाता है लेकिन इन सात कुओं की पृष्ठभूमि में सांवरगांव की सामाजिक संरचना का अहम योगदान है.
गांव में 60 फीसदी आबादी आंद आदिवासियों की है. सात में से चार कुओं पर इन्हीं का कब्ज़ा है. इसके बाद लिंगायत, मराठा और दलितों के पास एक-एक कुएं की हिस्सेदारी बचती है. कई दशकों से तालाब के पेंदे में ये कुएं इसी तरह से मौजूद हैं. हर साल तालाब में पानी सूख जाने के बाद इन्हें फिर से खोदा जाता है. 45 वर्षीय नंदकुमार मेतकर बताते हैं, ‘हमारा गांव पहाड़ पर बसा है. यहां हर साल पानी की किल्लत रहती है. हमारे से पिछली पीढ़ी के लोगों ने पानी की वजह से हो रहे झगड़ों को रोकने के लिए अलग-अलग कुएं खोद लिए थे. आज भी वही परंपरा कायम है. इससे हर घर को अपने हिस्से का पानी मिल जाता है और गांव में झगड़े जैसी स्थिति नहीं बनती.’
तालाब की तलहटी में खोदा गया एक कुआं
नंदकुमार छुआछूत की बात से साफ़ इंकार करते हैं, ‘हमारे गांव में मुस्लिम समाज के तीन, कसार समाज (पिछड़ा वर्ग) के पांच, सुथार समाज (पिछड़ा वर्ग) के पांच और राजपूतों के 10 घर हैं. ये लोग भी मराठा और आंद समाज के कुएं से ही पानी भरते हैं. अगर छुआछूत जैसी कोई बात होती तो हम इन्हें अपने कुएं से पानी क्यों भरने देते? ऐसा तो है नहीं कि अगल-अलग कुओं का रिवाज सिर्फ तालाब में है. गांव में पहले से हर समाज के अपने अलग-अलग कुएं हैं.’
नंदकुमार के बयान से आपको पहली नजर में लगेगा कि यह मामला छुआछूत से ज्यादा सर्वाइवल का है. जब पानी जीवन की सबसे बड़ी जद्दोजहद के रूप में उभर रहा है तो रोज-रोज की लड़ाई से बेहतर है कि लोग अपने कुएं अलग कर लें. गांव के लोग बराबर दावा करते हैं कि यह आपसी सहमति से लिया गया फैसला है.
नंदकुमार मेतकर बयान के सामानांतर सदानंद सोनाले का बयान है जो आपको 16 साल पीछे खींच ले जाता है. यह जून 2000 की बात है. गांव में सालाना पानी की किल्लत का दौर था. कुछ दलित मराठा जाति से आने वाले मारुतराव क्षीरसागर के कुएं पर खड़े होकर पानी के लिए इंतजार कर रहे थे. तब यह रोज की कहानी हुआ करती थी. अक्सर लोगों को पानी लेने के लिए किसी ऊंची जाति के आदमी का इंतजार करना होता था. वही पानी निकालकर उन्हें देता था. उस दिन काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब पानी भरने के लिए कोई नहीं आया तो कुछ लोगों ने साहस करके खुद कुएं से पानी खींचना शुरू कर दिया. इस बात को लेकर गांव में मारपीट की स्थितियां बन गई. इसके विरोध जब अंबेडकरवादी कार्यकर्ता अपना विरोध जताने गांव में पहुंचे तो उन्हें गांव में घुसने नहीं दिया गया.
इस मामले में स्थानीय पत्रकार सदानंद सोनाले पर एफआईआर दर्ज हुई थी. वे बताते हैं, ‘हम मोर्चा लेकर गांव की तरफ बढ़ रहे थे. हमारे साथ 500 से ज्यादा लोग थे तभी बीच में पुलिस इंस्पेक्टर अशोक जुग्टे ने हमें बताया कि पहाड़ियों में लिंगायत, आंद और मराठा समुदाय के लोग घेरा डालकर बैठे हुए हैं. उनके पास तलवार, मिर्च पाउडर, फरसे और लाठियां हैं और अगर हम गांव की तरफ बढ़ेंगे तो कानून व्यवस्था बिगड़ सकती है. उस समय गांव के अंदर रह रहे दलित समुदाय को लेकर हम और ज्यादा चिंतित हो गए थे. हालांकि बाद में पुलिस ने हालात काबू में कर लिया था.’
नारायण बताते हैं, ‘हमारी बस्ती में जिस आदमी के टैंकर आते हैं वो गांव का ही लिंगायत है. हम बारिश के बाद उसके खेत में काम करके पानी का पैसा चुकाते हैं'
वे आगे कहते हैं, ‘आपको पहली नजर में सबकुछ एकदम ठीकठाक दिखेगा. लेकिन यहां छुआछूत समाज के बहुत गहरे में मौजूद है. यहां हर साल गुड़ीपडवा के दिन ब्रह्मदेव की यात्रा निकलती है. दलितों के लिए ब्रह्मदेव के मंदिर में जाना आज भी वर्जित है. यात्रा में शामिल दलित समाज के लोगों को ब्रह्मदेव के मंदिर से नीचे की तरफ बने मरीआई नाम की देवी के मंदिर तक ही जाने दिया जाता है. यात्रा के बाद होने वाले सामूहिक भोजन में भी दलितों की पंगत अलग से लगती है. ये मैं आपको सिर्फ उदहारण के तौर पर बता रहा हूं. छुआछूत यहां के जीवन की सच्चाई है और वह हर जगह है.’
गांव के मुख्य चौराहे से बाईं तरफ 31 टीन की छत वाले मकान हैं. इन मकानों पर अशोक चक्र वाला नीला झंडा लगा हुआ है. ये सभी दलितों के घर हैं. नारायण लोखंडे का परिवार भी यहां की एक छत के नीचे रहता है. अपने परिवार की जरूरतों के लिए वे रोज स्थानीय टैंकर व्यवसायी से 40 रुपये के हिसाब से 200 लीटर (एक ड्रम) पानी खरीदते हैं. हर साल जनवरी में तालाब सूखने की कगार पर आ जाता है. अब चूंकि तालाब में दलितों के नाम का सिर्फ एक ही ‘कुआं’ हैं और उसमें भी कोई इतना पानी नहीं होता कि गांव के सारे दलितों को हर रोज पानी मिल जाए. लिहाजा नारायण के पास साल की शुरुआत से मॉनसून आने तक पानी खरीदने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचता.
जिस जमीन पर नारायण का टीन की छत वाला घर खड़ा है, उसके अलावा उनके पास संपत्ति के नामपर कुछ भी नहीं है. वे और उनकी पत्नी खेत मजदूर का काम करती हैं. नारायण के पास इस समय टैंकर वाले को देने के लिए पैसे नहीं है. उनको इस पानी की कीमत बारिश के बाद खेत में काम करके चुकानी पड़ेगी. तब 200 रुपये की मजदूरी के हिसाब से वे हर दिन पांच ड्रम पानी कमा पाएंगे.
नारायण बताते हैं, ‘हमारी बस्ती में जिस आदमी के टैंकर आते हैं वो गांव का ही लिंगायत है. हम बारिश के बाद उसके खेत में काम करके पानी का पैसा चुकाते हैं. अगर उसके खेत में इतना काम नहीं लगता तो वो हमसे दूसरों के खेत में काम करवा कर अपना पैसा भर लेता है. ये जगह सूखी है और बारिश के मौसम में चार महीने काम मिलता है. उसमें से हर साल मेरी एक महीने की मजदूरी पानी का पैसा चुकाने में चली जाती है. क्या करें साहब, पानी के बिना जिंदा भी तो नहीं रह सकते ना.’
सामाजिक-आर्थिक पिरामिड में सबसे नीचे होने की वजह से प्राकृतिक आपदा के समय सबसे ज्यादा बोझ भी दलितों पर ही पड़ता है
इस गांव के ज्यादातर दलितों की कहानी नारायण से अलग नहीं है. और बड़े स्तर पर देखें तो पूरे मराठवाड़ा के ग्रामीण इलाकों में यही स्थितियां हैं. सामाजिक-आर्थिक पिरामिड में सबसे नीचे होने की वजह से प्राकृतिक आपदा के समय सबसे ज्यादा बोझ भी दलितों पर ही पड़ता है.
विकट स्थितियों में सामाजिक भेदभाव दलितों की जिंदगी किस तरह मुहाल कर सकता है, यह उसका उदाहरण है लेकिन समाज की कई परतों में छिपे इस भेदभाव की कोई औपचारिक शिकायत नहीं की जा सकती. स्थानीय पुलिस स्टेशन पर असिस्टेंट पुलिस इंस्पेक्टर एमडी भोसले काफी देर कागज पलटने के बाद बताते हैं कि पिछले पांच साल में सावरगांव से दलित उत्पीड़न के किसी मामले का आधिकारिक रिकॉर्ड मौजूद नहीं है. टैंकर माफिया के खेत में नारायण के काम को भी आधिकारिक तौर पर बेगार नहीं कहा जा सकता. क्योंकि यह 40 रुपये प्रति ड्रम के एवज में 200 रुपये प्रति दिन का किया गया भुगतान है.
इसबीच सावरगांव को तकरीबन दो हफ्ते बाद आनेवाले मॉनसून का इंतजार है. ग्रामीणों को उम्मीद है कि बारिश शुरू होने के बाद उनके लिए पानी की दिक्कत उतनी बड़ी नहीं रहेगी, हां लेकिन इस दौरान तालाब के जहरीले पानी से फिर किसी की मौत होने का खतरा जरूर शुरू हो जाएगा.
Article First Published in: Satyagrah.scroll.in