तकनीकी रूप से बेंगलुरु को भारत सबसे आधुनिक शहर मना जाता है लेकिन बीते साल की आखिरी रात में भारत की “सिलिकॉन वैली” कहे जाने वाले इस शहर ने खुद को शर्मशार किया है. रोशनी से चमचमाते और नए साल के जश्न में डूबे इस शहर की गलियाँ उस रात लड़िकयों के लिए अंधेरी गुफा साबित हुई जब भीड़ द्वारा महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर छेड़छाड़ की गयी. लेकिन जैसे कि यह नाकाफी रहा हो इसके बाद नेताओं की बारी थी जिन्होंने महिलाओं को लेकर हमारी सामूहिक चेतना का शर्मनाक प्रदर्शन करने में कोई कसर नहीं छोड़ा. पहले कर्नाटक के गृहमंत्री जी.परमेश्वरा का बयान आया कि "ऐसी घटनाएं तो होती रहती हैं." फिर समाजवादी पार्टी के नेता अबु आजमी कहते हैं कि,"यह तो होना ही था महिलाएं नंगेपन को फैशन कहती हैं वे छोटे छोटे कपड़े पहने हुए थीं.” पुलिस भी पीछे नहीं रही और उनकी तरफ से इस तरह की घटनाओं के लिए स्मार्टफोन के बढ़ते इस्तेमाल, पश्चिमी देशों के बुरे असर और छोटे कपड़ों आदि की जिम्मेदार को ठहराया गया.
महान व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने कहीं लिखा है कि “भगवान पांच लड़कियों के बाद लड़का देकर अपने होने का सबूत देता रहता है”. यही हमारे समाज का साच है दरसल महिलायों को लेकर जीवन के लगभग हर क्षेत्र में हमारी यही सोच और व्यवहार हावी है जो “आधी आबादी” की सबसे बड़ी दुश्मन है. तकनीकी भाषा में इसे पितृसत्तात्मक सोच कहा जाता है, हम एक पुरानी सभ्यता है समय बदला, काल बदला लेकिन हमारी यह सोच नहीं बदल सकी उलटे इसमें नये आयाम जुड़ते गये , हम ऐसा परिवार समाज और स्कूल ही नहीं बना सके जो हममें पीढ़ियों से चले आ रहे इस सोच को बदलने में मदद कर सकें. वैसे तो शिक्षा शास्त्री ने स्कूलों को बदलाव का कारखाना कहते हैं लेकिन देखिये हमारे स्कूल क्या कर रहे वे पुराने मूल्यों को अगली पीढ़ी में हस्तांतरित करने के माध्यम साबित हो रहे हैं.
अगर हम महिला-पुरुष समानता की अवधारणा को अभी तक स्वीकार नहीं कर सके हैं तो फिर तरक्की किस बात की हो रही है ? वर्ष 1961 से लेकर 2011 तक की जनगणना पर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर उभर कर सामने आती है कि देश में पुरूष-महिला लिंगानुपात के बीच की खाई लगातार बढ़ती गयी है, पिछले 50 सालों के दौरान 0-6 वर्ष आयु समूह के बाल लिंगानुपात में 63 पाइन्ट की गिरावट आयी है. वर्ष 2001 की जनगणना में जहाँ छह वर्ष तक की उम्र के बच्चों में प्रति एक हजार बालक पर बालिकाओं की संख्या 927 थी तो वही 2011 की जनगणना में यह अनुपात कम हो कर 914 (पिछले दशक से -1.40 प्रतिषत कम) हो गया है,ध्यान देने वाली बात यह है कि अब तक की हुई सारी जनगणनाओं में यह अनुपात न्यून्तम है यानी गिरावट की दर कम होने के बजाये तेज हुई है. यदि देश के विभिन्न राज्यों में लिंगानुपात को देखें तो पाते हैं कि यह अनुपात संपन्न राज्यों में पिछड़े राज्यों की मुकाबले ज्यादा खराब है, इसी तरह से गरीब गांवों की तुलना में अमीर (प्रति व्यक्ति आय के आधार पर) शहरों में लड़कियों की संख्या काफी कम है. कूड़े के ढेर से कन्या भ्रूण मिलने की ख़बरें अब भी आती रहती हैं लेकिन उन्नत तकनीक ने इस काम को और आसान बना दिया है.
उपरोक्त स्थिति बताती है कि आर्थिक रूप से हम ने भले ही तरक्की कर ली हो लेकिन सामाजिक रूप से हम बहुत पिछड़े हुए समाज है गैर-बराबरी के मूल्यों और यौन कुंठाओं से लबालब. नयी परिस्थतियों में यह स्थिति विकराल रूप लेता जा रहा है. वैसे तो शिक्षा तथा रोज़गार के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या और अवसर बढ़े हैं और आज कोई ऐसा काम नही बचा है जिसे वो ना कर रही हों, जहाँ कहीं भी मौका मिला है महिलाओं ने अपने आपको साबित किया है. लेकिन इन सबके बावजूद हमारे सामाजिक ढाँचे में लड़कियों और महिलाओं की हैसियत में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है. असली चुनौती इसी ढांचे को बदलने की है जो की आसान नहीं है.
दरअसल लैंगिक समानता एक जटिल मुद्दा है, पितृसत्ता पुरषों को कुछ विशेषधिकार देती है अगर महिलाऐं इस व्यवस्था द्वारा बनाये गये भूमिका के अनुसार चलती हैं तो उन्हें अच्छा और संस्कारी कहा जाता हैं लेकिन जैसे ही वो इन नियमों और बंधनों को तोड़ने लगती है समस्याऐं सामने आने लगती हैं. हमारे समाज में शुरू से ही बच्चों को सिखाया जाता है कि महिलायें पुरषों से कमतर होती हैं बाद में यही सोच पितृसत्ता और मर्दानगी की विचारधारा को मजबूती देती है. मर्दानगी वो विचार है जिसे हमारे समाज में हर बेटे के अन्दर बचपन से डाला जाता है, उन्हें सिखाया जाता है कि कौन सा काम लड़कों का है और कौन सा काम लड़कियों का है. बेटों में खुद को बेटियों से ज्यादा महत्वपूर्ण होने और इसके आधार पर विशेषाधिकार की भावना का विकास किया जाता है. हमारा समाज मर्दानगी के नाम पर लड़कों को मजबूत बनने, दर्द को सहने, गुस्सा करने, हिंसक होने,दुश्मन को सबक सिखाने और खुद को लड़कियों से बेहतर मानने का प्रशिक्षण देता है, इस तरह से समाज चुपचाप और कुशलता के साथ पितृसत्ता को एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी तक हस्तांतरित करता रहता है.
आधुनिक समय में इस मानसिकता को बनाने में मीडि़या की भी हिस्सेदारी है. भूमंडलीकरण के बाद से तो मर्दानगी के पीछे आर्थिक पक्ष भी जुड़ गया और अब इसका सम्बन्ध बाजार से भी होने लगा है.अब महिलायें, बच्चे, प्यार, सेक्स, व्यवहार और रिश्ते एक तरह से कमोडिटी बन चुकी हैं. कमोडिटी यानी ऐसी वस्तु जिसे खरीदा, बेचा या अदला बदला जा सकता है. आज महिलाओं और पुरुषों दोनों को बाजार बता रहा है कि उन्हें कैसे दिखना है, कैसे व्यवहार करना है,क्या खाना है, किसके साथ कैसा संबंध बनाना है. यानी मानव जीवन के हर क्षेत्र को बाजार नियंत्रित करके अपने हिसाब से चला रहा है, यहाँ भी पुरुष ही स्तरीकरण में पहले स्थान पर है.
आजादी के बाद हमारे संविधान में सभी को समानता का हक दिया गया है और इन भेदभावों को दूर करने के लिए कई कदम भी उठाये गये हैं, नए कानून भी बनाये गए हैं जो की महत्वपूर्ण हैं परन्तु इन सब के बावजूद बदलाव की गति बहुत धीमी है. इसलिए जरुरी है कि इस स्थिति को बदलने का प्रयास केवल भुक्तभोगी लोग ना करें बल्कि इस प्रक्रिया में समाज विशेषकर पुरुष और लड़के भी शामिल हो. ये जरुरी हो जाता है कि जो भेदभाव से जुड़े सामाजिक मानदंडों को बनाये रखते हैं वे भी परिस्थियों को समझते हुए बदलाव की प्रक्रिया में शामिल हो.
अब यह विचार स्वीकार किया जाने लगा है कि जेंडर समानता केवल महिलाओं का ही मुद्दा नही है. जेंडर आधारित गैरबराबरी और हिंसा को केवल महिलाऐं खत्म नही कर सकती हैं लैंगिक न्याय व समानता को स्थापित करने में महिलाओं के साथ पुरुषों और किशोरों की भी महत्वपूर्ण भूमिका बनती है.व्यापक बदलाव के लिए जरुरी है कि पुरुष अपने परिवार और आसपास की महिलाओं के प्रति अपनी अपेक्षाओं में बदलाव लायें. इससे ना केवल समाज में हिंसा और भेदभाव कम होगा बल्कि समता आधारित नए मानवीय संबंध भी बनेगें. जेंडर समानता की मुहिम में महिलाओं के साथ पुरुष को भी जोड़ना होगा और ऐसे तरीके खोजने होगें जिससे पुरुषों और लड़कों को खुद में बदलाव लाने में मदद मिल सके और वे मर्दानगी का बोझ उतार कर महिलाओं और लड़कियों के साथ समान रुप से चलने में सक्षम हो सकें. अगर हम इस सोच को आगे बढ़ा सके तो हर साल 24 जनवरी को मनाये जाने वाले राष्ट्रीय बालिका दिवस की सार्थकता और बढ़ जायेगी.