पूर्व पत्रकार, वर्तमान हिंसक मनोरोगी!


डॉ. अनिल दीक्षित

भाषा, किसी भी संस्कृति का अहम चिह्न है और इस लिहाज से वैसे भी संघ और उसके हिंदुत्व के समर्थकों की भाषा, लगातार उनकी संस्कृति की पहचान रही है। पिछले 30 सालों में आरएसएस या विहिप से जुड़े कट्टरपंथी-विक्षिप्त लोग, लगातार मीडिया में अपने सम्पर्कों के दम पर नौकरियां जुगाड़ते आए हैं और आज ऊंचे पदों पर हैं। यह सायास ही नहीं है कि तमाम मीडिया, इस वक्त हिंदू कट्टरपंथ और अंधराष्ट्रवाद को भड़काने में लगी है। अनिल दीक्षित नाम के इस शख्स (पूर्व पत्रकार कहना, पत्रकारिता का अपमान है) उसी श्रृंखला की छोटी सी कड़ी है। हालांकि अनिल दीक्षित ने काफी फजीहत होने के बाद, यह पोस्ट डिलीट कर दी, लेकिन उसका स्नैपशॉट हमारे पास है। यही नहीं, इन सज्जन ने लम्बे समय पहले नौकरी छोड़ देने के बावजूद, सोशल मीडिया पर अभी तक ख़ुद को एक बड़े अखबार में सम्पादक स्तर का पत्रकार बताया हुआ था, पोस्ट पर विवाद के बाद, इन्होंने अब ख़ुद को पूर्व पत्रकार कर दिया है। हालांकि इनकी भाषा और सोच से पत्रकार होने की हल्की सी भी गंध नहीं आती है। इनकी भाषा का संक्षिप्त विश्लेषण इस तरह देखिए…

जेएनयू में वामपंथ की काली कोख  
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दरअसल यह मुहावरा, काली कोख, सिर्फ वामपंथ से वैचारिक विरोध से नहीं आता है। यह महिलाओं के खिलाफ भी छुपे हुए नज़रिए का प्रतीक है। वरना कोख, जो कि ओवरी के लिए प्रयोग होता है, उसकी जगह स्रोत का कोई और विकल्प भी इस्तेमाल किया जा सकता था।
इनकी भी धुनाई चाहिए, वकील करें या जेल में कैदी  
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जेल के अंदर किसी व्यक्ति को न्यायिक सुरक्षा प्राप्त होती है, जो अदालत और संविधान की शक्ति से संचालित है। साफ है कि अनिल दीक्षित नाम का यह व्यक्ति आपराधिक प्रवृत्ति का व्यक्ति है, जो क़ानून को या संविधान को कुछ नहीं समझता।
ये लौंडे कैदियों का कई रात 'काम चला' सकते हैं 
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हालांकि इसके ज़रिए इस मनोरोगी ने एक तरह से समलैंगिकता के समाज में होने को मान्यता दे दी है, लेकिन यह बात यह यौन उत्पीड़न और यंत्रणा के संदर्भ में कर रहा है। मतलब साफ है कि यह व्यक्ति बदला लेने के लिए किसी के यौन उत्पीड़न का सही मानता है। मतलब मूल प्रवृत्ति में ही यह ख़तरनाक़ मनोरोगी है और कभी ख़ुद भी ऐसा कर चुका है या कर सकता है। इसको पागलखाने भेजे जाने की ज़रूरत है। हैरानी है कि इसको ऐसे बड़े अखबार ने सम्पादक बनाया था।

बलात्कार का मज़ा  
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जिस तरह से यह व्यक्ति बलात्कार को किसी वैचारिक विरोध की सज़ा के तौर पर इस्तेमाल करने का हिमायती है। कल को संभव है कि यह वैचारिक विरोध किसी महिला की ओर से आए, तब भी यह ऐसे ही तरीके का समर्थन करे। ऐसे व्यक्ति की जगह भी जेल या पागलखाना ही है। ज़रा सोच कर देखिए कि किसी भी स्थिति में बलात्कार को सज़ा के तौर पर देखने वाला व्यक्ति आखिर कितना समझदार हो सकता है।

इसकी भाषा के विश्लेषण के आधार पर यह व्यक्ति न केवल यौन कुंठित है, बल्कि हिंसक रूप से मनोरोग के स्तर पर है। इसके जितनी जल्दी हो इलाज की ज़रूरत है। दुर्भाग्य यह तो है ही कि यह एक बड़े मीडिया संस्थान में ऐसे पद पर रहा, जहां और लोगों पर भी असर डालता रहा होगा, बल्कि बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यह देश ऐसे ही लोगों की पागल भीड़ में बदलता जा रहा है।

(लेखक, पूर्व टीवी पत्रकार हैं। टेलीविजन, रेडियो और प्रिंट समाचार मीडिया में एक दशक से अधिक का अनुभव, फिलहाल स्वतंत्र लेखन करते हैं।)

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