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राजस्थान पत्रिका के मालिक के नाम खुला ख़त

राजस्थान पत्रिका के मालिक के नाम खुला ख़त

मोतीराम मेनसा

अमाननीय कोठारी जी,

जय भारत.

सुबह सुबह कोई भी व्यक्ति अपना दिन खराब नही करना चाहता है पर आज आपने देश के बहुसंख्यक लोगों के दिन को अपने कुत्सित विचारों के संकीर्ण प्रवाह से खराब करने की कोशिश की परन्तु जब आप मेरा जवाब पढ़ेंगे तो आपकी शाम जरूर खराब होगी.

शायद आपने अपना सम्पाकीय सम्पादित करते वक्त सोचा नहीं होगा कि अब प्रिंट मीडिया के अंडरवर्ल्ड का जमाना नहीं रहा. ये दौर सोशल मीडिया का है और इस दौर में कितने लोग आपके इस प्रकार के विचारों पर थूकेंगे इसका अंदाजा आपको भी नहीं था. जिस संविधान की प्रथम पंक्ति को आप बदलना चाहते है उसी संविधान के अनुच्छेद 19 में अभिव्यक्ति आजादी जैसी मौलिक चीज निहित जिसकी बुनियाद पर आपका अखबार खड़ा है.

जिस बुनियाद पर आपने और आपके पिताजी कर्पूर चन्द कुलिश जी अपनी हस्ती बनाई उसी बुनियाद को बदलने का अभियान आप अपने अखबार के माध्यम से करना चाहते है. एक जगह बाबासाहाब अम्बेडकर कहते है कि ब्राह्मण अपनी बुद्धि का इस्तेमाल ठीक उसी प्रकार से करता है जिस प्रकार से एक वैश्या अपने शरीर का इस्तेमाल करती है. आपके इस संविधान विरोधी लेख पर उक्त बात फिट प्रतीत होती है.

जिस पवित्र पेशे से आप सम्बन्ध रखते है वह लोकतांत्रिक जीवन पद्धति के लिए कितना जरुरी है इसका मूल्यांकन रूज़वेल्ट की इस बात से लगाया जा सकता है कि "जिस देश का मीडिया इमानदार हो वहाँ की सरकार कभी भी जन विरोधी नहीं होती." इतने महान साधन के साधक होने के बावजूद भी आपने अपने अखबार को धर्म के प्रचार के साधन के रूप में स्थापित करके बेहद घटिया स्तर की मानसिकता का परिचय दिया है.

दरअसल आपकी मानसिकता के लोग मानसिक रूप से धरातल से दूर एक ऐसे दर्शन और चिंतन का जीवन जीते है जिनका वास्तविक बिंदुओं और जीवन पद्धति से कोई लेना देना नहीं होता. मैं आपको बिंदुवार आपके द्वारा उठाये गए सवालों का जवाब दूँ उससे पहले आपको अपना पत्रकार धर्म(कर्तव्य) याद दिलाना चाहता हूँ. एक पत्रकार को किसके लिए लड़ना चाहिए? क्या उसे धर्म के लिए लड़ना चाहिए या उसकी विचार प्रणाली में केवल धार्मिक ग्रन्थों की शुचिता, सात्विकता प्रमाणित करने का जिरह होना चाहिए या एक पत्रकार को समानता, स्वन्त्रता और बन्धुता जैसे महान मूल्य स्थापित करने के लिए लड़ना चाहिए?

खैर यह बात आप नहीं समझ पाएंगे क्योंकि आपको अपना वर्चस्व प्यारा है. यह इतिहास भी है. जब जब हमने( शोषित वंचित समाज ने) संगठित होने की कोशिश की तब तब आपकी कलम हमारे प्रयासों को कलम करने के लिए उठी है. इसलिए आज का सम्पादकीय कोई नई बात नहीं है. हम यह भी जानते है कि आपका संघ परिवार के प्रति क्या अनुराग रहा है? संघ अपने वास्तविक एजेंडा( ब्राह्मणी वर्चस्व स्थापित करना) के वास्तविक एजेंडा से इतर जाकर राजनीतिक रूप ले रहा है(जैसा आपको लगता है). आप आरक्षण के घोर विरोधी भी है. इन सबके बावजूद आपको जवाब तो बनता है..

आपने पहला सवाल खड़ा किया कि हिंदुत्व राष्ट्रीयता है, धर्म नहीं. धर्म नहीं है यह तो साबित हो गया पर हिंदु राष्ट्रीयता कब से हो गया? आप अपनी मर्जी से सब तय कर रहे है. एक तरफ आप कह रहे है कि उपनिषद और तमाम ग्रन्थ राष्ट्रीयता और मानवता के प्रचारक है और दूसरी तरफ आप कह रहे है कि इन ग्रन्थो में यह शब्द ही नहीं है. क्या आप यह साबित करना चाहते है कि आपके ऋषि जिन्होंने यह ग्रन्थ लिखे वह इस राष्ट्रीयता से परिचित नहीं थे? अगर ऐसा है तो आप फिर गुमराह क्यों करना चाहते है ? यह समझ से परे है. आपका दुसरा सवाल आपकी असली पीड़ा को दर्शाता है जिसने आपको उक्त कहानी गढ़ने पर मजबूर किया है.

संविधान लिखते वक्त बाबासाहाब अम्बेडकर जिन्हें आज आप खण्डित दृष्टि के नेता कह रहे है असल में वे कितने दूरदृष्टा थे कि उन्होंने पहले ही संविधान में INDIA का अनुवाद भारत किया है, क्योंकि वह जानते थे कि आप जैसे महान लोगों जब भी अवसर मिलेगा तो आप इसका अनुवाद हिन्दुस्तान करेंगे जैसा कांग्रेस के लोग भी भारत को हिन्दुस्तान कहते आये है और इसी दृष्टि ने ही भारत का विभाजन करवाया और इस कृत्य के जिम्मेदार आपके ही महान पुरखे थे जिनका गुणगान आप अक्सर अपने 'महासमर' भाग में करते है. आपने अचानक पैंतरा क्यों बदला ?

जब आप बरसों से हिन्दू हिन्दू करते आये है. जबकि आपके अखबार को स्थापित हुए 50 साल से अधिक समय हो चुका है. इसकी असल वज़ह आपकी सोची समझी राजनीति तो नही है? क्या इसकी वजह शोषित, वंचितों की और मुसलमानों की नजदीकिया तो नहीं है? मुझे तो यही प्रतीत होता है. तभी अचानक आपका महान धर्म जो संकट के दौर से गुजर रहा है राष्ट्रीयता बनाकर इसे बचाने की जुगाड़ में तो नहीं लगे है? क्योंकि  हमारी प्रगति और स्वतन्त्र चिंतन प्रणाली आपको कब सहन हुई है.

आपने पहला सवाल खड़ा किया कि हिंदुत्व राष्ट्रीयता है, धर्म नहीं. धर्म नहीं है यह तो साबित हो गया पर हिंदु राष्ट्रीयता कब से हो गया? आप अपनी मर्जी से सब तय कर रहे है. एक तरफ आप कह रहे है कि उपनिषद और तमाम ग्रन्थ राष्ट्रीयता और मानवता के प्रचारक है और दूसरी तरफ आप कह रहे है कि इन ग्रन्थो में यह शब्द ही नहीं है. क्या आप यह साबित करना चाहते है कि आपके ऋषि जिन्होंने यह ग्रन्थ लिखे वह इस राष्ट्रीयता से परिचित नहीं थे?

आपका तीसरा मुद्दा है कि India अंग्रेजी पहचान है. जब इंडिया का अनुवाद संविधान में 'भारत' है तो यह अंग्रेजी पहचान कैसे हुई? जर्मनी और जापान के लोग अगर खुद की जर्मन और जापानी राष्ट्रीयता बताते है तो हम हिन्दुस्तानी की बजाय भारतीय क्यों नहीं बता सकते? इस मुद्दे का दूसरा पहलू भी है. वह है वे एक ही नस्ल और भाषा के लोग है. जबकि हम विभिन्न नस्लों और  भाषाओं का विशाल समूह है. हम अगर अपनी अपनी पहचान के साथ भारतीय रहें तो आप जैसे मनीषियों की गुलामी से भी मुक्त हो सकते है और भरतीय होने का गर्व भी महसूस कर सकते है. वैसे आप अगर भूल गए है तो यह भी बता दूँ कि आपके पुरखे भी मूल भारतीय नस्ल के नहीं थे. इसलिए यह मुद्दा भी हवाबाजी के अलावा कुछ नही है.

चौथा मुद्दा आपने बताया कि आरक्षण ने हिन्दुओ के ही धड़े बना दिए. असल में हिन्दू शब्द विदेशी मुस्लिमों के साथ भारत आया( जैसा आपने ही अपने लेख में कहा है) तो आप एक तरफ अंग्रेजों द्वारा दी गई पहचान को नकार रहे हैं और दूसरी तरफ दूसरें विदेशी द्वारा दी गई पहचान को अपनाने के लिए बांह फैला खड़े है. यह दोहरापन क्यों? सिर्फ आरक्षण के विरोध के लिए अखण्ड भारत की जगह आपके व्यक्तित्व को खण्डित ना होने दीजिये.

 अब आपके महान उपनिषदों पर आते है. मैं आपके सारे उपनिषदों को कण्ठस्थ कर भी लूँ तो मेरा राष्ट्र, मेरे लोग कैसे मजबूत बनेंगे. इस देश में कैसे संसाधनो के समान वितरण प्रणाली करने के लिए, सबके हित सुनिश्चित करने के लिए, हमारे जीवन की भौतिक सुविधाएं( ठीक आपकी तरह) बढ़ाने हेतु कहाँ काम आएंगे? आप भी अजीब किस्म के व्यक्ति है उपनिषदों के खोखले चिंतन से लोगों का पेट भरने चले है.

कोठारी जी असलियत यह कि इस ज्ञान की सिर्फ जरूरत आपको है, हमको नहीं. आज आपने जिस प्रकार से अपने परदादा जी मनु की स्मृति के पुनरलेखन की शुरुआत नए सिरे से की है. आपका यह सपना कभी पूरा नहीं होगा क्योंकि अब हमारे पास राजस्थान पत्रिका तो नहीं फेसबुक पत्रिका जरूर है.

आपका शुभेच्छु
एक भारतीय.
 

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