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सच्चर कमेटी के दस साल, मुसलमानों का वही हाल

सच्चर कमेटी के दस साल, मुसलमानों का वही हाल

 

सच्चर कमेटी के दस साल, मुसलमानों का वही हाल
 

नई दिल्ली। कुछ बातें साल डर साल बीत जाने पर भी उसी तरह से रह जाती हैं। हजार सुझाव के बावजूद कुछ सवाल वहीँ के वही रह जाते हैं। ऐसा ही कुछ हाल भारतीय समाज में मुसलमानों का भी है। सच्चर कमेटी को आज दस वर्ष पूरे हो चुके हैं लेकिन मुस्लिमों के हालत आज भी जस के तस हैं।
 
आज दस साल बाद अलग अलग प्राकशित कुछ रिपोर्टों के माध्यम से भारत में मुसलमानों की स्थिति को समझने की एक कोशिश। क्या और कितना बदला है भारत का मुसलमान? और इस बदलाव में सच्चर कमेटी की सलाह को कितना लागू किया गया है? 
 
-राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम (एनएमडीएफसी) से कर्ज लेने की योग्यता इतनी सीमित है कि दिल्ली के कुछ भिखारी ही इसके पात्र हो सकते हैं।
-मुस्लिम समुदाय को फायदा पहुंचाने वाले कार्यक्रमों की परिकल्पना सही नहीं है और वे लक्ष्य से बहुत दूर है।
-अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय अल्पसंख्यकों की समस्याओं के मूल कारणों का निवारण नहीं कर रहा है।
-सच्चर समर्थित सरकारी नीतियों के बावजूद मुस्लिम समुदाय का मार्जिनलाइजेशन (हाशिए पर होना) और एक्सक्लूजन जारी है।
 

ये निष्कर्ष हैं ‘सिक्स ईयर्स आफ्टर द सच्चर कमेटी रिपोर्टः अ रिव्यू ऑफ सोशली इनक्लूसिव डेवलपमेंट सिंस 2006 ऐंड रिकम्नडेशन ऑन पॉलिसीज ऐंड प्रोग्राम्स’ नामक 189 पेज की रिपोर्ट के, जिसकी एक प्रति इंडिया टुडे के पास है। इसमें 10 अध्याय हैं, जिनमें आरटीआइ, सरकारी और निजी रिपोर्ट के आधार पर यह बताया गया है कि सच्चर की सिफारिशों के छह साल बाद भी मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक-शैक्षिक हालत में बदलाव नहीं आया है।
 
देश में मुसलमानों की सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक दशा जानने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2005 में दिल्ली हाइकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में समिति गठित की थी। 403 पेज की रिपोर्ट को 30 नवंबर, 2006 को लोकसभा में पेश किया गया। पहली बार मालूम हुआ कि भारतीय मुसलमानों की स्थिति अनुसूचित जाति-जनजाति से भी खराब है।
 
समिति ने भारतीय मुसलमानों को समान अवसर मुहैया कराने के लिए कई तरह के सुझाव दिए थे और साथ ही उचित मेकैनिज्म अपनाने का भी सुझाव दिया था। समिति के छह सदस्यों में से एक दिल्ली स्थित नेशनल  काउंसिल ऑफ एप्लाएड इकोनॉमिक रिसर्च के तत्कालीन सीनियर फेलो/मुख्य अर्थशास्त्री और अब वाशिंगटन स्थित यूएस-इंडिया पॉलिसी इंस्टीट्यूट के चीफ स्कॉलर डॉ। अबुसालेह शरीफ की इस रिपोर्ट से जाहिर है कि मुसलमानों के प्रति सरकार की उदासीनता से हालात बदतर हो रहे हैं।

डॉ. शरीफ ने अपनी रिपोर्ट विभिन्न स्रोतों से जुटाए गए आंकड़ों के आधार पर तैयार की है। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की एक रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है, “मुस्लिम परिवारों और समुदायों के लिए तय फंड और सेवाएं उन इलाकों में भेज दी जाती हैं, जहां मुसलमानों की संख्या कम है या न के बराबर है।”

इसी तरह 12 गांवों में सोशल और डेवलपमेंटल इन्फ्रास्ट्रक्चर के सर्वेक्षण पर सोशल इक्विटी वॉच की रिपोर्ट के हवाले से कहा गया है,  “स्कूल, आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य केंद्र, सस्ते राशन की दुकान, सड़क और पेयजल सुविधा जैसे संकेतकों के डाटा से जाहिर होता है कि एससी, एसटी और अल्पसंख्यकों के आबादी वाले गांवों और आवासीय इलाकों में इन चीजों की काफी कमी है।”

यही नहीं, सामाजिक न्याय और आधिकारिता पर संसद की शीर्ष समिति की 27वीं रिपोर्ट के मुताबिक, “समिति ने पाया कि माइनॉरिटी कंसंट्रेशन डिस्ट्रिक्ट (एमसीडी) में पैसे का पूरा इस्तेमाल नहीं किया। यही नहीं, फंड जिला स्तर पर आवंटित किया जाता है और यह उन ब्लॉक में ज्यादा चला गया जहां अल्पसंख्यकों की तादाद कम है।”

साक्षरता, शिक्षा और काबिलियत हासिल करना 21वीं सदी के भारत में जीविकोपार्जन और अच्छी जीवन-शैली की बुनियाद है। मैट्रिकुलेशन तक की शिक्षा से कामगारों की संख्या में इजाफा होता है। एससी-एसटी समेत सभी सामाजिक-धार्मिक समुदायों के मुकाबले मुसलमानों में मैट्रिक तक की शिक्षा सबसे कम रही।

रोजगार के मामले में यह चैंकाने वाला है कि मनरेगा में मुसलमानों की भीगीदारी नगण्य है। उन्हें जॉब कार्ड जारी करने के समय से ही नजरअंदाज किया जाता है। यही नहीं मुसलमानों को ‘मास आंगनवाड़ी’ कार्यक्रम, प्राइमरी और एलीमेंटरी शिक्षा कार्यक्रम और मास माइक्रो क्रेडिट प्रोग्राम जैसे प्रमुख कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया गया है। लेकिन योग्य मुसलमानों के इस कार्यक्रम से बाहर रहने से नौकरशाही को कोई फर्क नहीं पड़ता, न ही नेताओं को इसकी परवाह है।

तत्कालीन प्रधानमंत्री ने संसद में बयान दिया था कि भारतीय लोकतंत्र के ढांचे के भीतर सरकारी संसाधनों पर पहला दावा अल्पसंख्यकों का है, लेकिन ऐसा कोई सबूत नहीं है कि सरकार इस जिम्मेदारी को निभा रही है। प्रमुख बैंकरों की एक कमेटी ने पाया कि सरकार अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों को कर्ज देने के लिए तैयार नहीं है।
 
ध्यान रहे कि बैंक का कर्ज वित्तीय इनक्लूजन का संकेतक होता है। गुजरात इस मामले में फिड्डी है। देश के 121 अल्पसंख्यक बहुल जिलों में सिर्फ 26 फीसदी खाते अल्पसंख्यकों के हैं, जबकि कर्ज सिर्फ 12 फीसदी है। उन अल्पसंख्यकों में भी मुसलमानों को मिलने वाला कर्ज न के बराबर है। सच्चर की सिफारिश के छह साल बाद भी बैंकिंग के मामले में हालात बिगड़े हैं।
 
रिपोर्ट का कहना है कि राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम से कर्ज लेने की योग्यता बहुत सीमित है। देश के करीब 20 करोड़ अल्पसंख्यकों में से ज्यादातर गरीब हैं और आयोग ने पिछले 17 साल में स्वरोजगार के लिए सिर्फ 1,750 करोड़ रु। दिए हैं! राज्य के ऐसे निगमों की भी कमोबेश यही हालत है। यह रिपोर्ट इण्डिया टूडे ने 2012 में प्रकाशित की थी। 2014 के लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र। 

इससे पहले 2007 में मजदूर बिगुल ने 2007 में एक रिपोर जारी करते हुए बताया था कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट मुस्लिम आबादी की जिस दोयम दर्जे की स्थिति को सामने लाती है उसका अनुमान चन्द आँकड़ों से लगाया जा सकता है।

– देश में मुसलमानों की आबादी 13।4 प्रतिशत है लेकिन सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिनिधित्व सिर्फ़ 4।9 प्रतिशत है, इसमें भी ज़्यादातर निचले पदों पर हैं। उच्च प्रशासनिक सेवाओं यानी आईएएस, आईएफएस और आईपीएस में मुसलमानों की भागीदारी सिर्फ़ 3।2 प्रतिशत है।
 
– रेलवे में केवल 4।5 प्रतिशत मुसलमान कर्मचारी हैं जिनमें 98।7 प्रतिशत निचले पदों पर हैं। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश और असम जहाँ मुस्लिम आबादी क्रमश: 25।2 प्रतिशत, 18।5 प्रतिशत और 30।9 प्रतिशत है, वहाँ सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की भागीदारी क्रमश: सिर्फ़ 4।7 प्रतिशत, 7।5 प्रतिशत और 10।9 प्रतिशत है।

-उनमें साक्षरता की दर भी राष्‍ट्रीय औसत से कम है। शहरी इलाकों में स्कूल जाने वाले मुस्लिम बच्चों का प्रतिशत दलित और अनुसूचित जनजाति के बच्चों से भी कम है। प्रचार के विपरीत सच्चाई यह है कि केवल 3 से 4 प्रतिशत मुस्लिम बच्चे ही मदरसों में पढ़ने जाते हैं।
 
 
ये आँकड़े सच्चाई की झलक मात्र देते हैं। आम मुसलमान इस देश में किस अपमान और डर के साये में जीता है इसे समझने के लिए जाकर किसी मुसलमान से पूछिए कि उसके लिए शहर में एक कोठरी या मकान किराए पर लेना कितना कठिन है। या हर बमकाण्ड के बाद हर मुसलमान को आतंकवादी मान लेने वाली नज़रों और ग़रीब मुसलमानों की बस्तियों में आधी रात को पड़ने वाले पुलिसिया छापों को याद कीजिए।
 
सच्चर कमेटी ने मुसलमानों को हर क्षेत्र में ज्यादा तरजीह देने की सिफारिश की थी ताकि उनके रहन-सहन और सामाजिक-आर्थिक हालत में सुधार हो सके। इसके बाद तत्कालीन पीएम ने 15 प्वाइंट प्रोग्राम की शुरूआत भी की जिसमें मुसलमानों को शिक्षा और नौकरी के लिए बेहतर अवसर मुहैया कराए जाने की रणनीति का खाका खींचा गया।
 
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पर अभी मुसलमान गौर कर ही रहा था कि अगले साल यानि 2007 में रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट आ गई। इस आयोग ने कुछ कदम आगे बढ़ कर ऐसी सिफारिशें कर दीं जिसने सरकार को सांसत में डाल दिया। आयोग की सिफारिश थी कि केंद्र और राज्य सरकार की नौकरियों में अल्पसंख्यकों को 15 फीसदी आरक्षण दिया जाए। शिक्षा में भी ये आरक्षण 15 फीसदी
होगा और इसमें 10 फीसदी हिस्सा अकेले मुसलमानों को दिया जाए।


 
इन रिपोर्टों को अगर ठीक से पढ़ें तो हम पायेंगे कि दस साल बाद भी मुसलमानों की स्थिति में कोई ज्यादा सुधार नहीं हैं। वो अब भी उसी तरह के दोयम दर्जे का जीवन गुजारने को मजबूर हैं। समय बदला सरकारें बदली लेकिन ना ही केंद्र की कोई सरकार और ना ही किसी राज्य की सरकार ने सच्चर कमेटी की मांगों को पूरी तरह से लागू करने कि तत्परता दिखाई। भारत में मुसलमान सिर्फ वोट बैंक या फिर आतंकवादी बन कर रह गया है। मौजूदा सरकार को इस पर गहराई से सोचने और सच्चर कमेटी को लागू करने की जरूरत है।

Courtesy: Nationaldastak
 

 

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