ठीक पच्चीस वर्ष पूर्व 28 सितंबर, 1991 को छत्तीसगढ़ के मशहूर मजदूर नेता शंकर गुहा नियोगी को दुर्ग स्थित उनके अस्थायी निवास पर तड़के चार बजे के करीब खिड़की से निशाना बनाकर गोली मारी गई थी। देर रात वह रायपुर से लौटे थे। महज 48 वर्ष के नियोगी सिर्फ एक ट्रेड यूनियन नेता भर नहीं थे, बल्कि एक चिंतक और सामाजिक कार्यकर्ता भी थे। उनकी लड़ाई चौतरफा थी। एक ओर शराब से लेकर लोहे के धंधे से जुड़े बड़े उद्योगपतियों से वह आर्थिक समानता और श्रम की वाजिब कीमत की लड़ाई लड़ रहे थे, तो दूसरी ओर विचारधारा के स्तर पर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से। एक अन्य स्तर पर वह सामाजिक बुराइयों, जातिवाद और नशाखोरी से भी लड़ रहे थे। यह विडंबना ही है कि जब देश आर्थिक उदारीकरण की रजत जयंती मना रहा है, नियोगी की पच्चीसवीं बरसी है! क्या वह नई आर्थिक नीति के पहले शहीद थे?
नियोगी जानते थे कि उनकी लड़ाई बहुत ताकतवर लोगों से है, इसके बावजूद उस रात भी वह निहत्थे थे। जो लोग उन्हें मारना चाहते थे, वह भी जानते थे कि रात के अंधेरे में ही उन पर कायराना हमला कर गोली चलाई जा सकती है। उनकी लड़ाई बेहद खुली थी, किसी से छिपी नहीं थी। संभवतः 1970 के दशक की शुरुआत में नियोगी जलपाईगुड़ी से छत्तीसगढ़ पहुंचे थे। यह नक्सलबाड़ी के हिंसक आंदोलन के आसपास की बात है। शुरुआत में उन्होंने संभवतः भिलाई इस्पात संयंत्र में अस्थायी नौकरी भी की थी। लेकिन बाद में उन्होंने छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा बनाकर एक बड़ा मजदूर आंदोलन खड़ा कर दिया। आपातकाल के दौरान वह जेल में भी रहे।
दल्ली राजहरा माइंस को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले नियोगी ने लोहे की खदान में मजदूर के रूप में काम भी किया। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के रूप में उन्होंने एक बड़ा श्रमिक संगठन बनाया। वह छत्तीसगढ़ की जमीनी हकीकत से वाकिफ थे, लिहाजा एक ओर तो वह औद्योगिक और खदान मजदूरों की लड़ाई लड़ रहे थे, तो दूसरी ओर उद्योगों और खदानों के कारण अपनी जमीन से बेदखल हो रहे किसानों के संघर्ष में साथ थे। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा आदिवासियों, किसानों और मजदूरों का संगठन था। जिन लोगों ने नियोगी की मजदूर रैलियां देखी हैं, उन्हें याद होगा कि उनके आंदोलन में महिलाओं की भी बराबर की भागीदारी होती थी। उनके आंदोलन का दर्शन इस एक नारे में समझा जा सकता है, 'कमाने वाला खाएगा' यानी खेत में या उद्योगों में जो काम कर रहा है, हक उसी का है।
नियोगी थे तो कम्युनिस्ट और उनके आंदोलन के दौरान गोलीकांड भी हुए, लेकिन उन्होंने एक साक्षात्कार में स्वीकार किया था कि गांधीवादी रास्ता ही विकल्प है। उन्होंने छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा को श्रमिक संगठन के साथ ही एक सामाजिक आंदोलन में भी बदलने का प्रयास किया। जिसमें नशाबंदी को लेकर चलाई गई उनकी मुहिम का असर भी देखा गया।
नियोगी ने खुद कभी चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा को राजनीतिक तौर पर खड़ा करने की कोशिश की। हालांकि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा सिर्फ दो बार ही अपना एक विधायक विधानसभा तक पहुंचा सका। 1989 के लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा ने छत्तीसगढ़ के जाने माने कवि हरि ठाकुर को राजनांदगांव से उम्मीदवार बनाया था। उनके नामांकन दाखिल करने के समय नियोगी भी जिला कार्यालय में मौजूद थे। मैंने और मेरे दिवंगत चचेरे भाई और मित्र अक्षय ने नियोगी से पूछा था, दादा आप चुनाव नहीं लड़ते? नियोगी का जवाब था, नहीं रे बाबा, बड़े लोगों का काम है। पता नहीं वह खुद क्यों चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे। बहुत संभव है कि यदि वे छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा को एक राजनीतिक दल में बदल पाते और खुद भी चुनावी राजनीति में आते तो शायद स्थिति कुछ और होती। राज्य सत्ता और उद्योगपतियों के लिए चुनौती बन गए नियोगी की लोकप्रियता को कोई खारिज नहीं कर सकता था।
उनसे हुई कुछ गिनी चुनी मुलाकातों में एक बार नियोगी ने अक्षय और मुझसे से कहा था, तुम लोगों को आंदोलन से जुड़ना चाहिए।
उनसे आखिरी मुलाकात 28 सितंबर, 1991 को हुई थी, जब वह दुनिया को छोड़ चुके थे। उस रात मैं अक्षय के साथ ही उसके घर पर था। तड़के लैंडलाइन पर छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के राजनांदगांव के नेता प्रेमनारायण बाबू का फोन आया, बोले, नियोगी ला मार दिस ( नियोगी को मार दिया)! डेढ़ घंटे के भीतर ही हम तीनों दुर्ग के उनके निवास पर थे, तब तक वहां काफी लोग जमा हो चुके थे। उन दिनों अक्षय कृषक युग नामक टेबलायट अखबार निकालते थे, जिसे मेरे चाचा विद्याभूषण ठाकुर ने शुरू किया था। हमने खबर लिखी… नियोगी को मार डाला…।
दल्ली राजहरा में उनकी अंतिम यात्रा में हजारों का हुजूम था। चारों और नारे लग रहे थे, लाल हरा झंडा जिंदाबाद, नियोगी भैया जिंदाबाद…मैंने आज तक कोई इतनी विशाल अंतिम यात्रा नहीं देखी है..
कॉमरेड नियोगी लाल जोहार….
(सुदीप ठाकुर के फेसबुक वाल से)