Ambedkar Bhavan | SabrangIndia News Related to Human Rights Tue, 02 Aug 2016 09:51:36 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png Ambedkar Bhavan | SabrangIndia 32 32 भाजपा के खिलाफ क्यों उठ खड़े हुए हैं दलित-2 https://sabrangindia.in/bhaajapaa-kae-khailaapha-kayaon-utha-khadae-haue-haain-dalaita-2/ Tue, 02 Aug 2016 09:51:36 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/08/02/bhaajapaa-kae-khailaapha-kayaon-utha-khadae-haue-haain-dalaita-2/ एक के बाद एक अत्याचार की घटनाओं ने दलितों को जगा दिया है। उन्हें अब भाजपा का असली चरित्र दिखने लगा है। Image: AFP / Sam Panthaky दलित हनुमानों की बेशर्मी भाजपा ने तीनों दलित रामों को सफलतापूर्वक हनुमान बना लिया है। अपनी बात कहने के लिए उन्होंने कुछ कथित दलित बुद्धिजीवियों को अपने पाले […]

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एक के बाद एक अत्याचार की घटनाओं ने दलितों को जगा दिया है। उन्हें अब भाजपा का असली चरित्र दिखने लगा है।


Image: AFP / Sam Panthaky

दलित हनुमानों की बेशर्मी
भाजपा ने तीनों दलित रामों को सफलतापूर्वक हनुमान बना लिया है। अपनी बात कहने के लिए उन्होंने कुछ कथित दलित बुद्धिजीवियों को अपने पाले में कर लिया है। यह भी बेशर्मी की हद है कि एक तरफ जहां पूरे देश में ऊना कांड को लेकर जबरदस्त गुस्सा हैं वहीं ऐसे कथित दलित बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि गुजरात को दलित अत्याचार से जोड़ कर नहीं देखा जाना चाहिए। उनकी बेहयाई और बौद्धिक बेईमानी का आलम यह कि वह नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो के दलित दमन और अत्याचार के आंकड़ों का संदर्भ से काट कर हवाला दे रहे हैं। एक पैनल डिस्कशन में जब अन्य गैर दलित वक्ता गुजरात में दलितों की पिटाई की आलोचना कर रहे थे तो यह महाशय बड़े ही अजीब ढंग से गुजरात की तुलना अन्य राज्यों से करने में लगे थे। उनका कहना था कि दूसरे राज्यों की तुलना में तो गुजरात में दलितों पर काफी कम अत्याचार के मामले में होते हैं।

जबकि सच्चाई यह है कि गुजरात दलितों पर अत्याचार के मामले में देश के शीर्ष पांच राज्यों में शामिल है।  वर्ष 2013 में जब लोकसभा चुनावों से पहले की गहमागहमी और वाइब्रेंट गुजरात अपने चरम पर था और नरेंद्र मोदी को देश के अगले पीएम के तौर पर देखा जा रहा था तो गुजरात में दलितों पर होने वाले अत्याचार भी उफान पर थे।  2013 में अनुसूचित जाति के एक लाख लोगों में 29.21 लोग इन अत्याचारों के शिकार हो रहे थे। जबकि इससे पिछले सालों में यह आंकड़ा 25.23 का था। इस तरह गुजरात दलितों पर अत्याचार के मामले में देश में चौथे नंबर पर था। पहले नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो संपूर्ण एक लाख आबादी (दलित, गैर दलित मिलाकर ) पर दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार के आंकड़े इकट्ठा करता था। लेकिन अब इसमें सुधार किया गया है और अब यह आंकड़ा अनुसूचित जाति के प्रति एक लाख की आबादी पर जुटाया जाता है। इसलिए नीचे एनसीआरबी के जो आंकड़े दिए गए हैं उनमें सुधार की जरूरत है। इसके बावजूद ये आंक ड़े दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार के मामले में गुजरात का रिकार्ड सुधार नहीं सकते। हत्या और बलात्कार जैसे बड़े मामलों में गुजरात का रिकार्ड बेहद खराब है।

अनुसूचित जाति की प्रति लाख आबादी के हिसाब से हत्या और रेप के आंकड़ें
Table 1: Rate of incidence of Murders and Rapes (per lakh population of the Scheduled Castes)

Year 2012 2013
  Murder Rape Murder Rape
Gujarat 0.56 2.29 0.71 3.82
Andhra Pradesh 0.39 1.49 0.38 1.64
Bihar 0.16 0.49 0.30 0.85
Chhattisgarh 0.18 3.86 0.18 3.37
Haryana 0.37 2.79 0.43 5.45
Jharkhand 0.03 0.41 0.15 0.31
Karnataka 0.34 0.83 030 1.29
Kerala 0.03 6.34 0.07 7.36
Madhya Pradesh 0.78 6.75 0.68 7.31
Maharashtra 0.27 1.49 0.30 2.75
Odisha 0.15 2.21 2.26 2.77
Rajasthan 0.54 3.44 0.62 5.01
Tamil Nadu 0.26 0.47 0.19 0.39
Uttar Pradesh 0.57 1.45 0.54 1.91

Source: Crime of India, 2012 and 2013. National Crime Research Bureau, Govt. of India, New Delhi
 
इन आंक ड़ों से साफ है कि 2012 में उत्तर प्रदेश (0.57) और मध्य प्रदेश (0.78) को छोड़ कर हत्या के मामले में गुजरात सब राज्यों से आगे था। 2013 में इसका रिकार्ड सबसे खराब रहा। इस साल गुजरात दलितों के खिलाफ अत्याचार के लिए बदनाम रहे उत्तर प्रदेश के बराबर ही था। रेप के मामले में वाइब्रेंट गुजरात,  2012 मेंं छत्तीसगढ़  (3.86) , हरियाणा (2.79), केरल (6.34) मध्य प्रदेश (6.75), राजस्थान (3.44) को छोड़ कर दलितों के खिलाफ अत्याचार में आगे रहा। 2013 में इसने यह केरल (7.36), मध्य प्रदेश (7.31) , हरियाणा (5.45) और राजस्थान (5.01) को छोड़ कर इस मामले में आगे रहा।

मोदी के घडिय़ाली आंसू
ऐसी  खबरें हैं कि मोदी ऊना की घटना से विचलित हैं, जैसे उनके मॉडल गुजरात में यह पहली बार हो रहा है। सितंबर, 2012 में सुरेंद्रनगर जिले के एक छोटे शहर थानगढ़ में मोदी की पुलिस 22 और 23 सितंबर को लगातार तीन दलित युवकों को गोलियों से मार गिराया। लेकिन उन्होंने एक शब्द भी नहीं कहा। जबकि घटना के दिन वह उस जगह से महज 17 किलोमीटर दूर विवेकानंद युवा विकास यात्रा की अगुवाई कर रहे थे। 22 सितंबर को पुलिस ने एक दलित युवक की पिटाई करने वाले भारवाड़ों का विरोध में उतरे दलितों पर गोली चलाई। इस घटना में एक 17 वर्षीय दलित किशोर पंकज सुमरा बुरी तरह घायल हो गया। बाद में उसकी राजकोट के एक अस्पताल में मौत हो गई। इस घटना से नाराज दलित फिर सडक़ों पर उतर आए। अगले दिन प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने फिर फायरिंग की और तीन दलित युवक घायल हो गए। इनमें से मेहुल राठौड़ (17) और प्रकाश परमार (26) की राजकोट अस्पताल में मौत हो गई। ये हत्याएं 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले हुई थीं। पूरे राज्य में इससे शोक फैल गया और चार पुलिसकर्मियों के खिलाफ शिकायत दर्ज हुई। सीआईडी को जांच का जिम्मा सौंपा गया। पुलिसकर्मियों के खिलाफ तीन एफआईआर दर्ज होने के बावजूद सिर्फ एक मामले में चार्जशीट फाइल हो पाई। और पुलिसकर्मियों में से एक आरोपी बीसी सोलंकी की तो गिरफ्तारी भी नहीं हो पाई।

गुजरात में दलित समुदाय के खिलाफ सामंती दमन का लंबा इतिहास रहा है। यहां दलितों की आबादी 7.1 प्रतिशत है, जबकि राष्ट्रीय औसत है 16.6 प्रतिशत। दलित राजनीति में कमोबेश जड़ता की स्थिति है।  1970 में दलित पैंथर्स के उभार के बाद उनकी गांधीवादी नींद 1981 में आरक्षण विरोधी दंगों के दौरान टूटी। उस समय पहली बार राज्य में जगह-जगह गांधी जयंती मनाई गई। लेकिन यह जागरुकता थोड़े समय के लिए ही रही।

जब भाजपा को दलितों की चुनावी अहमियत का अहसास हुआ तो पार्टी ने उन्हें लुभाना शुरू किया। इस रणनीति के बाद दलित1986 में जगन्नाथ रथ यात्रा जैसे उत्सवों में भाग लेने लगे। यहां तक कि दलितों 2002 में गोधरा के बाद भडक़े दंगों के दौरान पार्टी के सैनिकों की तरह काम किया। गुजरात में अब भी दलितों के खिलाफ अपमान, अत्याचार और भेदभाव जारी है। राज्य खुलेआम या ढके-छिपे तौर पर दलित विरोधी कार्यों में शामिल है। लेकिन राज्य में बढ़ती समृद्धि के बीच खुद को अंधेरे भविष्य से घिरा देख कर नई पीढ़ी के दलित अब बेचैन है। दलितों के अंदर भाजपा की  चिकनी-चुपड़ी राजनीति के खिलाफ मौजूद गुस्सा भडक़ चुका है। ऊना जैसे मामलों से यह साबित हो चुका है।

दलितों का अभिशाप

हाल की घटनाओं से दलित जागरण के नए संकेत मिल रहे है। भाजपा, कांग्रेस की नकल करते हुए अंबेडकर का स्मारक बनवा रही है। वह खुद को बड़ा अंबेडकर भक्त साबित करने पर तुली है। लेकिन हाल के दलित विरोधी कृत्यों ने उसकी कलई खोल दी है। जब अक्टूबर 2002 में हरियाणा में झज्जर जिले के दुलियाना ने विहिप के गुंडों ने पांच दलितों को पीट-पीट कर मार डाला था तो इसके उपाध्यक्ष गिरिराज किशोर ने इसका समर्थन किया था। उन्होंने कहा था कि हमारे पुराणों में एक गाय की जान की कीमत क ई लोगों की जिंदगी से ज्यादा बताई गई है। उस समय हरियाणा के भाजपा प्रमुख रामबिलास शर्मा ने गोवध को मानव हत्या जैसा जघन्य अपराध घोषित कराने का वादा किया था। शायद दलितों ने इस तरह की घटनाओं को एक-आध घटना मानकर भाजपा को माफ कर दिया था। लेकिन इस बार एक के बाद एक हो रही दलित विरोधी घटनाओं ने उन्हें जगा दिया है और उन्हें भाजपा के असली चरित्र का अहसास होने लगा है।

हालांकि हिंदुत्व कैंप को बाद में हिंदू राष्ट्र निर्माण के अपना एजेंडा लागू करने में दलित वोटों की भूमिका का अहसास हो गया है लेकिन दोनों के बीच जो वैचारिक विरोधाभास है वह आसानी से नहीं सुलझ सकता। बार-बार स्वामी और साध्वी जैसे लोगों की दलित विरोधी भावनाएं या हिंदुत्व के गुंडों का अत्याचार उभर कर सामने आ ही जाते हैं।

सबसे अहम है हिंदुत्व का एजेंडा। उसका दोमुंहापन और अतार्किकता। एक तरफ  तो वह मवेशियों पर प्रतिबंध लगा कर बूचडख़ानों को बंद करवा रहा है। इससे लाखोंं मुस्लिमों और दलितों का रोजगार छिन रहा है। दूसरी ओर इस देश में मांस का निर्यात करने वाले छह सबसे बूचडख़ानों में से चार हिंदुओं के हैं। इनमें से दो ब्राह्मणों के हैं। इसके बावजूद मवेशी वध अगर हिंदुत्व का सांस्कृतिक मूल्य है तो भी यह दलित हितों और आकांक्षाओं के विरुद्ध जाता है। बहरहाल, देश में जैसे-जैसे हिंदुत्व का दलित विरोधी रुख सामने आ रहा है, उसकी आंच भाजपा को महसूस होने लगी है। अगले विधानसभा चुनावों में भाजपा को इस आंच की तपिश जरूर मालूम होगी। 
 
आनंद तेलतुंबड़े कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ डेमोक्रेटिक राइट्स (सीपीडीआर) के जनरल सेक्रेट्री हैं।
 

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भाजपा के खिलाफ क्यों उठ खड़े हुए हैं दलित? – 1 https://sabrangindia.in/bhaajapaa-kae-khailaapha-kayaon-utha-khadae-haue-haain-dalaita-1/ Mon, 01 Aug 2016 10:13:55 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/08/01/bhaajapaa-kae-khailaapha-kayaon-utha-khadae-haue-haain-dalaita-1/ हिंदुत्व का दलित विरोधी रुख खुल कर सामने आने लगा है। भाजपा को अगले साल के विधानसभा चुनावों में इसके नतीजे भुगतने होंगे। हाल में देश के अलग-अलग हिस्सों में उठ खड़े हुए दलितों के आंदोलन में भाजपा विरोध का एक खास रंग दिख रहा है। चाहे रोहित वेमुला की संवैधानिक हत्या पर देश भर […]

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हिंदुत्व का दलित विरोधी रुख खुल कर सामने आने लगा है। भाजपा को अगले साल के विधानसभा चुनावों में इसके नतीजे भुगतने होंगे।

हाल में देश के अलग-अलग हिस्सों में उठ खड़े हुए दलितों के आंदोलन में भाजपा विरोध का एक खास रंग दिख रहा है। चाहे रोहित वेमुला की संवैधानिक हत्या पर देश भर में उठ खड़े हुए छात्रों के विरोध का मामला हो या फिर गुजरात में कथित गौरक्षकों की ओर से दलित युवकों की बर्बर पिटाई पर हर राज्य में उठ खड़े हुए आंदोलन का मुद्दा। मुंबई में अंबेडकर भवन गिराने के खिलाफ उनके समर्थकों के उमड़े जन-सैलाब का मामला हो या फिर राजस्थान में नाबालिग लडक़ी के रेप और हत्या के खिलाफ दिखा दलितों का गुस्सा। या फिर मायावती के खिलाफ भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर की बेहद अश्लील टिप्पणी के विरोध में सडक़ों पर दिखे विरोध का मामला।  इन सभी में भाजपा के खिलाफ दलितों का गुस्सा साफ देखा जा सकता है। भाजपा के दलित हनुमानों की टोली भले ही दलितों में भडक़ी आग को बुझाने की कितनी भी कोशिश क्यों न करें लेकिन यह अगले साल कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों से पहले बुझने से तो रही।

 दलितों के इन आंदोलनों में एक खास तरह की जागरुकता दिख रही है। अगर दलितों के बीच यह जागरुकता सचमुच ठोस है तो यह संघ परिवार के हिंदू राष्ट्र के प्रोजेक्ट के लिए विनाशकारी साबित हो सकती है। 
 

रोहित की बार-बार हत्या

रोहित की जिस तरह से संवैधानिक हत्या हुई, वह जगजाहिर है।  इसकी दोबारा चर्चा यहां जरूरी नहीं। लेकिन इसे जिस तरह से दबाने की कोशिश की गई वह वास्तविक हत्या से कम आपराधिक करतूत नहीं है।

दलितों के खिलाफ अत्याचार से जुड़े कानून के तहत गाछीबावड़ी पुलिस ने हैदराबाद सेंट्रल यूनिवर्सिटी के विवादास्पद वाइस चासंलर अप्पा राव पोडाइल, मंत्री बंडारू दत्तात्रेय, और एबीवीपी के अध्यक्ष एन सुशील कुमार के खिलाफ  रोहित वेमुला को आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए मामला दर्ज किया था। लेकिन  पुलिस ने इस मामले में कोई छानबीन नहीं की। रोहित की हत्या ने देश भर छात्रों का बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया। छात्रों ने पूरे देश में इस मामले में लडऩे के लिए संयुक्त एक्शन कमेटी खड़े कर दिए। छात्रों के इस विरोध ने अप्पा राव को यूनिवर्सिटी कैंपस  से भागने पर मजबूर कर दिया।  लेकिन छात्रों का गुस्सा थोड़ा कम हुआ तो अप्पा राव 22 मार्च को फिर कैंपस में लौट आए। जाहिर है, छात्रों को विरोध करना ही था और उन्होंने भारी पुलिस मौजूदगी के बावजूद वाइस-चासंलर का घर घेर लिया। अंदर अप्पा राव एक मीटिंग कर रहे थे। छात्र यह देख कर भौचक थे कि अंदर उनके साथ मीटिंग में एबीवीपी के सदस्य मौजूद थे। विरोध कर छात्र अंदर घुसना चाहते थे। इस पर पुलिस ने उन पर जबरदस्त लाठी चार्ज किया। दो फैकल्टी सदस्यों को भी उन्होंने नहीं छोड़ा। पुलिस ने उन्हें कई किलोमीटर तक खदेड़ा। छात्रों को पीटा और छात्राओं के साथ छेडख़ानी की। छात्रों और फैकल्टी सदस्यों पर नए दौर के पुलिस अत्याचार हुए। मानो इतना काफी नहीं था। जिन प्रोफेसरों को गिरफ्तार किया गया था उन्हें निलंबित कर दिया गया। जब ये प्रोफेसर यूनिवर्सिटी गेट पर आमरण अनशन पर बैठ गए और जनता और तमाम प्रगतिशील संगठनों की ओर से उनके लिए समर्थन का सैलाब उमड़ पड़ा तो अप्पा राव डर गए और उन्होंने निलंबन वापस ले लिए।

मानव संसाधन मंत्री जैसे मंत्रालय का जिम्मा लिये बैठी बेहद कम काबिल मंत्री स्मृति ईरानी पालिर्यामेंट में अपनी ड्रामाई क्षमता का प्रदर्शन करते हुए झूठ पर झूठ बोलती रहीं। अपने तुच्छ कदमों के समर्थन में उनके झूठ लगातार जारी रहे।  उन्होंने रोहित के समर्थन में आंदोलन कर रहे छात्रों पर तीखे हमले किए।

रोहित की जाति पर सवाल उठा कर इस मुद्दे को भटकाने की कोशिश की गई। मानो रोहित का दलित होना उन्हें तुरंत न्याय मुहैया करा देता। अगर रोहित दलित नहीं होते तो उनके खिलाफ हुआ अपराध छोटा हो जाता।

उस दौरान तेलंगाना सरकार की पूरी मशीनरी और उसके 600 लोग (इनमें कई दलित थे) ने रोहित की दुखी मां पर पिल पड़े कि वह अपनी जाति साबित करंð।  रोहित के पास दलित होने का सर्टिफिकेट था। वह दलित के तौर पर जिए और मरे। लेकिन तेलंगाना प्रशासन यह झूठ फैलाता रहा कि रोहित दलित नहीं वडेरा जाति के थे। महादुख की इस घड़ी में रोहित का परिवार यह साबित करने के लिए दौड़ता रहा कि वह वास्तव में दलित थे। खुशकिस्मती से सरकार की चालाकियां नाकाम रहीं और रोहित का दलित होना साबित हो गया।

लेकिन जैसी कि उम्मीद थी इससे भी दोषियों पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वे अपने सत्ता केंद्रों पर काबिज रहे। अप्पा राव ने दमन की हद पार कर दी। रोहित और यूनिवर्सिटी के बर्खास्त दोस्तों के अस्थायी ठिकाने दलित विधि को गिरा दिया गया। उनके आंदोलन के प्रतीक स्थल के तौर पर स्थापित शॉपकॉम को भी हटा दिया गया। अंबेडकर की मूर्ति चुरा ली गई और रोहित की टंगी तस्वीर खराब कर दी गई।

 

गुजरात में गुंडागर्दी

11 जुलाई को गुजरात में सोमनाथ जिले के ऊना तालुका के मोटा समधियाला गांव में कुछ स्वयंभू गो-रक्षकों ने मरे हुए जानवरों की खाल निकालने का काम करने वाले कुछ युवकों पर गोवध का आरोप लगाते हुए उनकी बर्बर पिटाई शुरू कर दी। गो रक्षा समिति के कुछ लोगों ने पहले पूरे परिवार की पिटाई की और फिर चार युवकों को उठा कर ले गए। उन्हें कमर तक नंगा कर दिया गया। जंजीरों से बांधा गया और एसयूवी से बांध कर घसीट कर ऊना शहर तक ले जाया गया। एक पुलिस स्टेशन के ठीक सामने उनकी एक बार पिटाई की गई और यह सबकुछ बड़ी भीड़ के सामने घंटों तक होता रहा।

पिटाई करने वाले कानून से इतने बेखौफ थे कि उन्होंने पूरी पिटाई की वीडियो बनाई और उसे वायरल कर दिया। उनकी इस करतूत ने दलितों में गुस्सा भर दिया और वे स्वत:स्फूर्त ढंग से विरोध प्रदर्शन के लिए सडक़ों पर उतर आए। हालांकि गुजरात दलितों के लिहाज से कोई आदर्श राज्य कभी नहीं रहा लेकिन दिनदहाड़े उन पर इस तरह का अत्याचार इससे पहले वहां कभी नहीं हुआ था।

इस घटना  के बाद वहां खुद ब खुद दलित विरोध की लहर उमड़ पड़ी। करीब 30 दलितों ने अपने प्रति हो रहे अन्यायों का पर्दाफाश करने के लिए खुदकुशी की कोशिश की। लेकिन सबसे कारगर रहा दलितों वह अद्भुत विरोध, जिसके बारे में पूरे देश में चर्चा हो रही है। विरोध के तौर पर दलितों ने कई जगहों पर कलक्टर के दफ्तर के बाहर जानवरों के कंकाल फेंक दिए। उन्होंने मरे हुए जानवरों को उठाने और उनकी खाल निकालने का धंधा बंद कर दिया । दलित विरोध के प्रति अपना समर्थन और अद्भुत एकता जारी रखते हुए उन्होंने इससे होने वाली कमाई से हाथ धोने से भी परहेज नहीं किया।
 

अंबेडकर की विरासत का विध्वंस

25 जून को मुंबई में तडक़े खुद को अंबेडकरवादी बताने वाले सैकड़ों बाउंसर आए और दलित संघर्ष और अस्मिता के प्रतीक और प्रसिद्ध बिल्ंिडग अंबेडकर भवन और अंबेडकर प्रेस गिरा दिया। दादर में यह कुकृत्य रिटायरमेंट के बाद चीफ इनफॉरमेशन ऑफिसर के मलाईदार कुर्सी पर काबिज रत्नाकर गायकवाड़ के इशारे पर हुआ। बाबा साहेब से जुड़े इस प्रेस का ऐतिहासिक महत्व था। उनके दो अखबार जनता और प्रबुद्ध भारत यहीं से प्रकाशित होते थे। यहीं से इनकी छपाई भी होती थी।  यह प्रेस 1940 से ही अंबेडकरवादी आंदोलन का कें द्र रहा था। उनकी मृत्यु के बाद भी यह प्रेस इस आंदोलन का केंद्र बना रहा।  नामातंर आंदोलन समेत कई आंदोलनों की योजना यहीं से बनी और यहीं से इन्हें चलाया भी गया। दूसरा अंग्रेजी के यू आकार का बनाया गया एक मंजिला अंबेडकर भवन 1990 में स्थापित किया गया था। इन दो भवनों का यह कह कर गिराना कि ये बेहद कमजोर हो चुके हैं और खतरनाक हैं, सिर्फ बहाना है। यह इन भवनों की गिराने की साजिश थी। जिस निर्लज्ज तरीके से इस भवन को गिराने के तर्क दिए गए और जिस तरह के अहंकार का प्रदर्शन किया गया या फिर जिस तरह के घटनाक्रम सामने आए, उससे यह साफ हो गया है कि यह राज्य में भाजपा के बड़े नेताओं  की साजिश थी। मुख्यमंत्री को ट्रस्ट की विवादित स्थिति के बारे में अच्छी तरह से पता था। ट्रस्ट ने यहां 17 मंजिल के अंबेडकर भवन बनाने के लिए चुपचाप कहीं और भूमि पूजन करा लिया था। मुख्यमंत्री ने इसके लिए 60 करोड़ रुपये का अनुदान दिया था। इसलिए 25 जून को जो हुआ वह सीधे तौर आपराधिक कृत्य था और इसके लिए गायकवाड़ को सार्वजनिक रूप से माफी मांगने पर मजबूर किया गया। इस काम के लिए तो गायकवाड़ को गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए लेकिन उनके संवैधानिक पद का झूठा बहाना बना कर ऐसा नहीं किया गया।

गायकवाड़ और भाजपा सरकार की इस कारस्तानी से नाराज होकर मुंबई में 19 जुलाई को विशाल प्रदर्शन रैली हुई। लेकिन इस पूरे एपिसोड ने दलितों में वर्ग विभाजन को एक बार अपने भोंडे रूप में पूरी तरह उजागर कर दिया।  एक ओर विदेश में रहने वाले दलितों, उच्च मध्य वर्ग के दलितों और दलित ब्यूरोक्रेट्स के भ्रष्टाचार के पैसे पर पलने वाले बौद्ध भिक्षुओं ने गायकवाड़ का पक्ष लिया, जबकि अन्य दलितों ने उसकी गिरफ्तारी की मांग की और अंबेडकर बंधुओं का  उनके रिश्तेदारों का समर्थन किया। अंबेडकर के तीनों पोतों ने आम तौर पर स्वतंत्र रुख अख्तियार किया हुआ है। उन्होंने हमेशा कांग्रेस और भाजपा से दूरी बना रखी है। राजनीतिक रूप से उन्होंने जनसंघर्षों का पक्ष लिया है।  भले  ही वे कितने भी कमजोर क्यों न हो गए हों लेकिन अंबेडकर प्रतिष्ठानों के वे एक मात्र प्रतिनिधि हैं। वे ही उन प्रतिष्ठानों के वारिस हैं, जो हिंदुत्व की ताकतों के खिलाफ तन कर खड़े हैं। लिहाजा भाजपा के लिए यह जरूरी था कि उनकी छवि खराब की जाए। इसके लिए मध्यवर्गीय दलितों के एक वर्ग को उकसाया भी गया। उन लोगों ने धीरे-धीरे यह प्रोपगंडा करना शुरू किया कि बाबा साहेब के वारिस अंबेडकरवादी नहीं बल्कि माओवादी समर्थक हैं। कम से कम एक दलित अखबार महानायक लगातार बड़े जोर-शोर से पिछले पांच साल से इस झूठ का प्रचार कर रहा  है।

अंबेडकर से जुड़े भवन औैर प्रेस को गिराने से जुड़े इस नाटक के दौरान भाजपा ने ऐसी ही कुछ मकसदों को हासिल करने की कोशिश की। गायकवाड़ ने अंबेडकर के तीनों पोतों और उनके पतिा यशवंतराव अंबेडकर को नाकारा वारिस करार दिया और कहा कि ये लोगों की जमीन हड़पने वाले गुंडे हैं।

गायकवाड़ के सामने दो काम थे। एक – अंबेडकर भवन का विध्वंस और दूसरा उनके वारिसों को बदनाम करना। इस काम में भाजपा उनकी मदद कर रही है। लेकिन इस चक्कर में वह यह नहीं देख पा रही भाजपा के खिलाफ देश भर में गुस्सा फैलता जा रहा है।  पुलिस और सरकारी मशीनरी जिस तरह से काम कर रही हैं और जिस निर्ममता से दलितों से निपट रही है, उससे उसका दलित विरोधी रुख साफ है।

जारी…..
 

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Why Dalits are turning against the BJP https://sabrangindia.in/why-dalits-are-turning-against-bjp/ Fri, 29 Jul 2016 07:31:32 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/07/29/why-dalits-are-turning-against-bjp/ With Hindutva baring its anti-Dalit fangs, the BJP is bound to feel the heat in the next elections. Image: Indian Express The recent stream of spontaneous agitations of the Dalits has a distinct anti-BJP tinge. Whether it was countrywide students’ protests over Rohith Vemula’s institutional murder, or the statewide protests in Gujarat over a shameful […]

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With Hindutva baring its anti-Dalit fangs, the BJP is bound to feel the heat in the next elections.


Image: Indian Express


The recent stream of spontaneous agitations of the Dalits has a distinct anti-BJP tinge. Whether it was countrywide students’ protests over Rohith Vemula’s institutional murder, or the statewide protests in Gujarat over a shameful incident of public flogging of four Dalit youth in a full public view, or the 19th July protest in Mumbai over the demolition of the iconic Ambedkar Bhavan, or the outrage over a minor school girl’s alleged rape and murder in Rajasthan, or the massive protests in Uttar Pradesh over the state BJP vice-presidents’s prostitute remark for Mayawati, the Dalit anger against the BJP was palpable. Howsoever BJP’s Dalit hanumans may try dousing the fire it is unlikely to be extinguished until the next years’ state elections. Moreover, there is a tinge of awakening to these demonstrations, a sense of being cheated, which, if true, could be devastating to the Hindu Rashtra project of the Sangh Parivar.

Rohith’s Repeated Murder

Rohith’s institutional murder is too well known to be discussed here. But the manner in which it is sought to be suppressed is no less criminal than the original murder. The Gachibawdi Police had filed a case under the Atrocity Act against Appa Rao Podile, the controversial vice-chancellor of the Hyderabad Central University (HCU), Bangaru Dattatreya, the BJP MP and minister in Modi’s cabinet and N Sushil Kumar, the president of ABVP in the HCU for abetting the suicide but the police never acted upon it. His death sparked off a massive agitation of students who formed Joint Action Committees all over the country. It forced Appa Rao to flee the campus.

But on March 22, after two months, when the tempers had receded, he made a sudden comeback. Naturally, the agitating students staged a protest at the vice-chancellor’s residence, surrounded by abnormally huge contingent of police, where he held a meeting. When the protesting students sighted ABVP members inside the building, they were shocked and wanted to get in. Making an alibi of the scuffle at the door, the police resorted to a severe lathi charge. The two faculty members who pleaded with the police were also not spared. They chased students into the bushes up to kilometers thrashing students and molesting girls.

In all 27 students and two faculty, Prof KY Ratnam and Tathagat Sengupta, were shoved into two police vans and a new round of brutal assault was mounted on them as the vans made rounds of Hyderabad for hours. Until late evening, there was no news about their whereabouts. They came out on bail only after seven days of incarceration. There was no question of doing justice to Rohith; instead those who demanded it were punished.

As if this was not enough, the professors who were arrested were later suspended. When they protested with an indefinite fast outside the gate of the university a flood of support poured in from the public and several progressive organisations. Scared of the consequences, a sense dawned on Appa Rao to take back the suspension orders.

Smriti Irani, the controversial minister, singularly unqualified to head arguably the most important ministry of human resource development, displayed her theatrical skills in Parliament reeling off lies after lies in justification of her and her minions’ actions. Instead of regret over what happened, she aggressively attacked those who agitated for justice to Rohith. There were hideous attempts to divert the issue by questioning Rohith’s caste as though his dalitness would have brought him instant justice and lack of it would lessen the crime of the culprits.

The full force of the Telangana state – for which nearly 600 people, many of them Dalits, gave their life – was unleashed on the aggrieved mother to prove her caste. Despite Rohith possessing a caste certificate as Dalit, despite having lived and died as a Dalit, the Telangana administration spread a canard that he was a Vaddera and not a Dalit. The family was made to run around to prove that Rohith was indeed a Dalit, leaving aside their pain of losing him. Fortunately all the tricks of the government failed and Rohith’s dalitness has been established.

Expectedly, it made no difference to the culprits. They are well ensconced in their respective positions of power, while the students who are struggling for justice are driven to their wits end as Appa Rao removed the Dalit vidhi, the temporary shelter Rohith and his four expelled friends had erected at the Shopcom, which worked as symbolic pivot for the current agitation. Ambedkar’s bust therein was stolen and Rohith’s portrait at his makeshift memorial was disfigured.     

Gundagardi in Gujarat

On July 11, a group of Shiv Sena men styled as Gau Raksha Samiti came across a Dalit family skinning the carcass of a dead cow, its caste-ordained vocation, in Mota Samadhiyala village in Una taluka of the Gir Somnath district of Gujarat. Accusing them of cow slaughter, they beat up the entire family and then picked up four youth. They stripped them up to waist, chained them to the back of an SUV and dragged them to Una town, where they were beaten right near a police station for several hours in full public view.

The assaulters, confident that they would never be prosecuted, filmed their sinister act and published the video which, however, backfired, enraging Dalits to come out on streets in a spontaneous protest. Although Gujarat has never been a model as far as the condition of Dalits in the state was concerned, such a blatant atrocity on Dalits in broad daylight was never witnessed before.

There were massive protests all over the state in a spontaneous wave. Nearly 30 Dalits tried to commit suicide to expose the injustice to their community. But the sanest act was to dump the cattle carcasses before the collectors’ offices at many places. Dalits stopped their traditional work of lifting carcasses and skinning them, sacrificing the income it entailed in an unusual act of solidarity. According to a report in The Times of India dated July 28, carcasses were rotting in Gujarat everywhere threatening an epidemic. According to animal husbandry department figures, there are nearly one crore cows and buffaloes in Gujarat with a mortality rate of 10%, which  means every day 2,740 animals die all over the state. Even the stench from a stray carcass rotting anywhere could make it unbearable for the public and hence the above number could spell a veritable calamity.

Cow protection outfits have been brought to their senses, forced to admit that they were not aware about the problem and they would now have to devise ways of disposing the carcasses. Dalits engaged in manual scavenging (they do exist in thousands despite the government’s sworn denials) should join this protest and so also all the sanitation workers all over the state, if not the entire country.

Destruction of Ambedkar’s Legacy

In the wee hours of June 25, hundreds of bouncers masquerading as Ambedkarites came with two backhoes and demolished the iconic Ambedkar Bhavan and Ambedkar’s press in Dadar at the instance of one Ratnakar Gaikwad, a retired bureaucrat who managed to get himself a plum post-retirement assignment as chief information commissioner. The press had historical value being associated with Babasaheb Ambedkar. Two of his important papers, Janata and Prabuddha Bharat, were printed and published from there and it was also a center of the Ambedkarite movement from 1940s. It continued to be so even after his death; most agitations like land struggles, agitation over the ‘Riddles’ controversy and the Namantar struggle were planned and executed from here.

The other structure, the Ambedkar Bhavan, was a single story inverted ‘U’ shaped structure built in 1990s. The alibi for demolition of these two structures that they were structurally dangerous was obviously ‘manufactured’ by Gaikwad. People were aghast at his dare-devilish act, more so at his shameless and arrogant defense of it. As the prior and subsequent events revealed, he was just a stooge for the BJP bigwigs in the state.

The chief minister, well aware of the disputed state of the trust had surreptitiously performed bhumipujan (funnily at some other place) for the proposed 17-storey Ambedkar Bhavan and declared a grant of Rs 60 crores to it. What happened on June 25 was a blatant criminal act which Gaikwad was forced to publicly admit. He should have been arrested but a false alibi of his constitutional status was projected for not doing so.

Enraged by the misdemeanour of Gaikwad and the BJP government, a massive protest morcha was taken out in Mumbai on July 19. The entire episode exposed the class divide among Dalits in the ugliest possible manner. While upper middle class Dalits, including the Dalit Diaspora and the Buddhist monks who live in comfort on the ill-gotten money from the Dalit bureaucrats supported Gaikwad, the vast majority of Dalits angrily demanded his arrest and supported the Ambedkars who stood against Gaikwad. The three grandsons of Babasaheb Ambedkar have generally been independent and have refused to be co-opted by either the Congress or the BJP.

Politically they have taken a pro-people stance lending support to peoples’ struggles. Howsoever weak, they represent the only Ambedkarite establishment today that is firmly against the Hindutva forces.

It is therefore imperative for the BJP to tarnish their image. A section of middle class Dalits is being covertly instigated to accomplish this task. They have slowly built up the propaganda that Babasaheb Ambedkar’s heirs are not Ambedkarites but supporters of Maoists. At least one Dalit paper, Mahanayak, has been feverishly spreading this canard over the last five years. Through the demolition drama the BJP intended to achieve the same objective. Gaikwad described the three grandsons and their father, Yashwantrao Ambedkar, as unworthy usurpers and goondas.

The demolition of Ambedkar Bhavan and sullying the image of the Ambedkar family were the twin tasks before Gaikwad in which he is being supported by the BJP government ignoring the mass ire erupting all over the country. The government’s approach is clear from the manner in which police and the state machinery have behaved and are behaving in dealing with this blatantly criminal case.

Shamelessness of Dalit ‘Hanumans’   

BJP has succeeded in transforming all three Dalit Rams into its ‘Hanumans’. They have also lured some so-called Dalit intellectuals to do their bidding. In the heat of the countrywide outrage over the flogging of Dalit youths in Gujarat, one such Dalit ‘Hanuman’ was shamelessly projecting how Gujarat was not to be identified with atrocities on the Dalits. His slavishness and intellectual dishonesty was evident from his wrong and out of context reading of the crime statistics of National Crime Research Bureau (NCRB). While other non-Dalit panelists were rightly condemning the outrage in Gujarat, this stooge was awkwardly arguing how Gujarat was better than many other states on caste atrocities.

The fact is that Gujarat has the dubious distinction of consistently ranking among the top five states in terms of incidence of atrocities on Dalits. In 2013, when Narendra Modi’s ‘Vibrant Gujarat’ mantra had reached the crescendo in the wake of ensuing general elections and his imminent coronation as the prime ministerial candidate, the number of atrocities per lakh population of the Scheduled Castes (SC) was 29.21, up from 25.23 in the previous years, marking it as the fourth worst state in the country.

In the past the NCRB had been erroneously using incidents of atrocities per lakh of total population; it is only since 2012 that it has been collating figures vis-à-vis per lakh of the SC population. Therefore, the rates of incidence of crime against the SCs as given in NCRB tables would necessitate correction in absolute figures but they are unlikely to alter Gujarat’s relative rank among the states. In terms of major class of atrocities like murder and rape also Gujarat is among the worst states. Table 1 provides the rates of these atrocities for the years 2012 and 2013 for the major states of India to show how Gujarat ranks among the top few for the crimes against Dalits.   

Table 1: Rate of incidence of Murders and Rapes (per lakh population of the Scheduled Castes)

Year 2012 2013
  Murder Rape Murder Rape
Gujarat 0.56 2.29 0.71 3.82
Andhra Pradesh 0.39 1.49 0.38 1.64
Bihar 0.16 0.49 0.30 0.85
Chhattisgarh 0.18 3.86 0.18 3.37
Haryana 0.37 2.79 0.43 5.45
Jharkhand 0.03 0.41 0.15 0.31
Karnataka 0.34 0.83 030 1.29
Kerala 0.03 6.34 0.07 7.36
Madhya Pradesh 0.78 6.75 0.68 7.31
Maharashtra 0.27 1.49 0.30 2.75
Odisha 0.15 2.21 2.26 2.77
Rajasthan 0.54 3.44 0.62 5.01
Tamil Nadu 0.26 0.47 0.19 0.39
Uttar Pradesh 0.57 1.45 0.54 1.91

Source: Crime of India, 2012 and 2013. National Crime Research Bureau, Govt. of India, New Delhi

The table clearly shows that in terms of the rate of murders, Gujarat was ahead of all the states except for the two in 2012, viz., Uttar Pradesh (0.57) and Madhya Pradesh (0.78); in 2013 it was the worst offender. Thus ‘Vibrant Gujarat’ was more or less on par with Uttar Pradesh, the much maligned state for crimes against the SCs even in 2012. In terms of the rate of rapes, it was ahead of all the states in 2012 except for five, viz., Chhattisgarh (3.86), Haryana (2.79), Kerala (6.34), Madhya Pradesh (6.75) and Rajasthan (3.44). In the year 2013, it did worse, ranking fifth behind Kerala (7.36), Madhya Pradesh (7.31), Haryana (5.45) and Rajasthan (5.01).

Modi’s crocodile tears

Narendra Modi, it is reported, was disturbed to learn about the incident in Una as though such atrocity was happening in his ‘model’ Gujarat for the first time. In September 2012, in Thangadh, a small town in Surendranagar district of Gujarat, three Dalit youth were gunned down by Modi’s police on two consecutive days (September 22 & 23, 2012). But he did not utter a word although he was barely 17 km away from the spot, leading a Vivekanand Youth Vikas Yatra.

On September 22, police opened fire on the protesting Dalits against the Bharwards, who had beaten a Dalit youth over a minor clash, seriously injuring a 17-year-old boy Pankaj Sumra, who later died in a hospital in Rajkot. News of the death sparked outrage among Dalits who took to the streets demanding that a complaint be filed against police officials responsible for the death.

The next day, the police again opened fire on the agitating Dalits injuring three Dalit youths, two of whom, Mehul Rathod (17) and Prakash Parmar (26) died in the Rajkot civil hospital. These killings, just before the state assembly polls in 2012, had sent shock waves across the state and complaints were lodged against four police officials. Investigation was handed over to the CID (Crime).  However, despite three FIRs filed against policemen, charge sheet has been filed only in one case and one of the accused B C Solanki was not even arrested.

Gujarat has a long history of feudal repression of the Dalit community, which being relatively small – 7.1 per cent of the population, as compared with the national average of 16.6 – had largely remained politically inert. In recent history, after a flash of Dalit Panthers in early 1970s, they were rudely shaken out of their Gandhian slumber by the 1981 anti-reservation riots. For the first time, there was a spate of celebrations of Ambedkar jayantis all over the state. But this awakening proved short-lived. 
 
When the BJP realised the electoral importance of the Dalits and began wooing them, they easily succumbed and found themselves participating in a big way in its 1986 Jagannath rath yatra. Later Dalits even acted as the BJP’s foot soldiers particularly during the 2002 post-Godhra anti-Muslim carnage. However, nothing changed for them on the ground. The discrimination, humiliation, exploitation and atrocities continued unabated with a complicit state overtly or covertly backing anti-Dalit acts.
 
A recent study has demonstrated that of all the atrocity cases that occurred across four districts in Gujarat, 36.6 per cent were not registered under the Atrocity Act. Of the cases where the Act was applied, 84.4 per cent were registered under the wrong provisions, thus concealing the intensity of the violence in the cases.[i] Earlier, the Ahmedabad based Council for Social Justice had studied 400 judgements delivered over a decade under this Act since April 1, 1995 by the Special Atrocity Courts set up in 16 districts of the state. It found wanton violation of the rules by the police to weaken prosecution. The judiciary also contributed its own prejudices to render the Act toothless.[ii]
 
No wonder the conviction rate in atrocity cases in Gujarat is six times lower than the Indian average over 10 years for crimes against SCs and STs. In 2014 (latest available data), only 3.4% of crimes against SCs in Gujarat ended in convictions against 28.8% nationally. That is, one conviction for every eight across the country. Not surprisingly, the practice of untouchability is rampant in the state. A study titled ‘Understanding Untouchability: A Comprehensive Study of Practices and Conditions in 1,589 villages’, conducted in Gujarat during 2007 to 2010, by Navsarjan Trust, an organisation working among Dalits in Gujarat, in collaboration with the Robert E. Kennedy Centre for Justice and Human Rights, revealed widespread incidence of untouchability being practiced in rural Gujarat.[iii] The new generation of Dalits, faced with dark future in the sea of prosperity around, would not stomach it. It is this buildup of anger accentuated by the sugar coated anti-Dalit policies of the BJP that has now burst out in the form of spontaneous flare up of Dalit anger in the state.

Curse of the Wretched

The chain of recent agitations indicates a new Dalit awakening. BJP’s duplicity and one upmanship vis-à-vis the Congress, building monuments for Ambedkar and projecting itself a bigger Ambedkar Bhakt stands fairly exposed through its serial anti-Dalit acts. When in October 2002 the cow vigilante gang of the Vishwa Hindu Parishad (VHP) goons had lynched five hapless Dalit youth at Dulina in Jhajjar, Haryana, and set them on fire right under the nose of police, VHP’s vice-president, Giriraj Kishor had thus justified the killing: “In our religious scriptures (Puranas) life of a cow is more important than any number of people.” The then BJP Haryana chief Ram Bilas Sharma had promised to treat cow slaughter as a crime as heinous as murder. Dalits perhaps considered the incident as a one off act and pardoned the BJP.

But this time, such incidents in quick succession appears to have woken them up to the real anti-Dalit character of the BJP. Although the Hindutva camp has lately realised the critical importance of Dalit votes in accomplishing their agenda of Hindu Rashtra, the historical and ideological contradictions between them are not easily resolved. Anti-Dalit sentiments keep manifesting themselves through the rant of a swami or Sadhvi, or the atrocities committed by Hindutva hooligans.

Howsoever it is camouflaged Hindutva is all about pride in Hindu customs, tradition and culture, which are mere euphemism for the caste system and hence in contradiction to the agenda of Dalit liberation. Hindutva’s obsession for the cow and its progeny has hit the Dalits, just next to the Muslims. It deprives both of their favourite beef, a cheap source of protein. It has rendered lakhs of them jobless. As marginal farmers Dalits are cattle breeders. The cow slaughter bans severely affects their economy.

The most alienating aspect of Hindutva’s agenda is its irrationality and doublespeak. The irrationality has been exposed by scores of economists and could turn out to be the single biggest economic disaster for the country if persisted with for some years. The doublespeak is evident from the fact that while the cattle slaughter is banned for thousands of small slaughterhouses rendered lakhs of Muslims and Dalits unemployed, the big six export-oriented slaughterhouses, four of which are owned by the Hindus, two among them Brahmans, have thrived during the same time. Whether it is cattle slaughter or its cultural nationalist overtures, they are directly in contradiction to Dalit interests and aspirations.

With Hindutva baring its anti-Dalit fangs, the BJP is bound to feel the heat in the next elections.

Anand Teltumbde is general secretary of the Committee for Protection of Democratic Rights (CPDR), Maharashtra.

 


[i]http://navsarjan.org/navsarjan/status-of-dalits-in-gujarat/
[ii]https://www.sabrangindia.in/tags/council-social-justice.
[iii]http://navsarjan.org/Documents/Untouchability_Report_FINAL_Complete.pdf.

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