Arvind Shesh | SabrangIndia News Related to Human Rights Sun, 12 Jun 2016 06:35:36 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png Arvind Shesh | SabrangIndia 32 32 ‘प्रोडिगल साइंस’ के मनोरंजन के बरक्स https://sabrangindia.in/paraodaigala-saainsa-kae-manaoranjana-kae-barakasa/ Sun, 12 Jun 2016 06:35:36 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/12/paraodaigala-saainsa-kae-manaoranjana-kae-barakasa/ आमतौर पर किसी परीक्षा में टॉप करने वालों की चर्चा इसलिए होती है कि वे आगे कोशिश करने वालों को कुछ हौसला दे सकें। लेकिन बिहार में इंटरमीडियट परीक्षा के दो टॉपर्स इसलिए सुर्खियों में रहे कि वे अपने विषय के साधारण सवालों के जवाब भी नहीं जानते थे। यह सवाल बिल्कुल सही है कि […]

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आमतौर पर किसी परीक्षा में टॉप करने वालों की चर्चा इसलिए होती है कि वे आगे कोशिश करने वालों को कुछ हौसला दे सकें। लेकिन बिहार में इंटरमीडियट परीक्षा के दो टॉपर्स इसलिए सुर्खियों में रहे कि वे अपने विषय के साधारण सवालों के जवाब भी नहीं जानते थे। यह सवाल बिल्कुल सही है कि अगर वे जानकारी की इस हालत में थे, तो उन्होंने परीक्षा में सवालों के जवाब कैसे दिए और इतने ज्यादा नंबर उन्हें कैसे मिले।

दरअसल, इसमें जितना जरूरी यह पूछना है कि उन्होंने सवालों के जवाब कैसे लिखे, उससे ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि इतने ज्यादा नंबर उन्हें कैसे मिले कि वे सबसे शीर्ष पर रहे। जाहिर है, इसमें परीक्षा के आयोजन से लेकर कॉपी जांचने वाले तक की भूमिका है। लेकिन इसे छोड़ भी दिया जाए तो अगली स्थिति क्या आती है? टॉप करने का सर्टिफिकेट लिए वे दोनों विद्यार्थी इससे आगे कहां जाएंगे? खासतौर पर अगर वे किसी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठते हैं, तो उन्हें क्या हासिल होगा?
अब एक दूसरी स्थिति की बात करते हैं।

हाल ही में मेडिकल कोर्सेज में दाखिले के लिए जो परीक्षा आयोजित की गई, उसमें परीक्षार्थियों को कुछ भी लेकर आने की मनाही थी, यहां तक उनके लिए कपड़े और चप्पल तक के नियम शर्त के तौर पर लागू हुए। ऐसा क्यों हुआ था? दरअसल, इससे पहले भी ऐसे मामले आ चुके हैं कि मेडिकल या इंजीनियरिंग के दाखिले के लिए होने वाली परीक्षाओं में नकल या चोरी की शक्ल उससे ज्यादा अलग नहीं रही है जो बिहार के उन दो टॉपरों ने अपनाया होगा। ज्यादा संभव है कि उनकी जगह पर किसी दूसरे व्यक्ति ने कॉपी तैयार किया होगा, उसके लिए परीक्षा केंद्र के कर्ताधर्ता से लेकर कॉपी जांचने वाले शिक्षक तक 'पहुंच' का मामला 'सेट' किया गया होगा। लेकिन मेडिकल या इंजीनियरिंग की परीक्षाओं में नकल का जो स्वरूप सामने आया है, उसमें किसी दूसरे व्यक्ति को परीक्षार्थी की जगह बैठाने से लेकर आज के तमाम हाईटेक संसाधन, मसलन, स्मार्टफोन में व्हाट्सअप या दूसरी सुविधाएं, गुप्त माइक्रोफोन वगैरह तक का इस्तेमाल हुआ, जो बहुत मुश्किल से पकड़ में आया। प्रश्न-पत्र परीक्षा से पहले ही चार-पांच या छह लाख रुपए में बिकने के मामले अब नए नहीं लगते।

नकल या 'सेटिंग' से टॉप करने वाले विद्यार्थियों का तो मामला 'ज्ञान' और जानकारी का है, इसलिए उनके रिजल्ट पर सवाल उठने चाहिए। मगर इससे इतर मेडिकल या इंजीनियरिंग के कोर्सेज में निजी कॉलेजों का जो एक समूचा समांतर तंत्र खड़ा हो गया है, उसमें पढ़ाई करने और डॉक्टर या इंजीनियर बनने की क्या प्रक्रिया है। क्या यह सच नहीं है कि किसी के पास दस-बीस या पचास लाख रुपए हैं तो वह जानकारी के स्तर पर भले ही 'प्रोडिगल साइंस' वाली रूबी कुमारी के समकक्ष है, लेकिन डॉक्टरी या इंजीनियरी की डिग्री हासिल करने के बाद उनसे उनके विषय से जुड़े सवाल कोई नहीं पूछता कि आपने परीक्षा कैसे पास की? आरक्षण की व्यवस्था के तहत एक तय नंबर लाकर पास करने के बावजूद तैयार डॉक्टर और इंजीनियर 'अयोग्य' होता है, लेकिन तीस-चालीस या पचास लाख रुपए खर्च कर इस तरह डिग्री खरीद कर डॉक्टर या इंजीनियर बनने वाले डॉक्टरों की योग्यता पर कोई सवाल नहीं होगा, जिन्हें नंबर लाने की जरूरत ही नहीं पड़ती।

बहरहाल, बिहार में सरकारी शिक्षा-व्यवस्था की क्या हालत है, पढ़ाई-लिखाई और शिक्षण का क्या स्तर है, कितने शिक्षकों की कमी है, सरकार की ओर से ठेका प्रथा के तहत जो शिक्षक बहाल किए गए हैं उनकी और नियमित शिक्षकों के शिक्षण का स्तर क्या है, हाल के वर्षों में निजी स्कूल-कॉलेजों का कितना बड़ा संजाल खड़ा हुआ और इसके पीछे क्या खेल चल रहे हैं, इन तमाम हालात की मार समाज के किस तबके पर पड़ती है, इन सवालों से जूझने की जरूरत न मीडिया को लगती है, न रूबी कुमारी के 'प्रोडिगल साइंस' से मनोरंजन करते गैर-बिहारी या सत्ताधारी बिहारी समाज को!

'चार्वाक' ब्लॉग से
 
 

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विज्ञान बनाम आस्था के द्वंद्व का समाज… https://sabrangindia.in/vaijanaana-banaama-asathaa-kae-davandava-kaa-samaaja/ Fri, 03 Jun 2016 06:37:12 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/03/vaijanaana-banaama-asathaa-kae-davandava-kaa-samaaja/  Home page Image Credit: Planet Buddha कुछ वाकये हमें उस तरह की सैद्धांतिकी के व्यावहारिक पहलुओं को समझने में मदद करते हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा उसकी चेतना पर अनिवार्य रूप से असर डालते हैं। इस लिहाज से विज्ञान और तकनीक के साथ समाज का साबका और उसका व्यक्ति के […]

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 Home page Image Credit: Planet Buddha

कुछ वाकये हमें उस तरह की सैद्धांतिकी के व्यावहारिक पहलुओं को समझने में मदद करते हैं, जिसमें यह बताया जाता है कि व्यक्ति की शिक्षा-दीक्षा उसकी चेतना पर अनिवार्य रूप से असर डालते हैं। इस लिहाज से विज्ञान और तकनीक के साथ समाज का साबका और उसका व्यक्ति के सोचने-समझने या दृष्टि पर असर का विश्लेषण सामाजिक विकास के कई नए आयाम से रूबरू कराता है। कुछ साल पहले की एक घटना है। राजधानी दिल्ली से सटे और तब ‘हाईटेक सिटी’ के रूप में मशहूर शहर गाजियाबाद में एक काफी वृद्ध महिला को उनके तीन बेटे तब तक (शायद चप्पलों से) पीटते रहे, जब तक उनकी जान नहीं निकल गई। किसी ‘ऊपरी असर’ से छुटकारा दिलाने के मकसद से ऐसा करने का निर्देश एक तांत्रिक बाबा का था।
 
अंधविश्वासों के अंधेरे कुएं में डूबते-उतराते हमारे समाज में साधारण लोगों के हिसाब से देखें तो इस तरह की यह घटना न अकेली थी और न नई। लेकिन यह घटना मेरी निगाह में इसलिए खास थी कि उस बुजुर्ग महिला को तांत्रिक के आदेश पर पीटते-पीटते मार डालने वाले तीन में से कम से कम दो बेटों की शैक्षिक पृष्ठभूमि विज्ञान विषय थी। उनमें से एक ने डॉक्टरी और दूसरे ने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी। यानी जिस विज्ञान और तकनीकी विकास ने समाज में अज्ञानता के अंधकार को दूर करने और समाज को अंधविश्वासों की दुनिया से काफी हद तक बाहर लाने में अपनी अहम भूमिका निभाई है, उस विषय की शिक्षा-दीक्षा भी उन बेटों की चेतना पर पड़े अंधविश्वासों के जाले को साफ नहीं कर सकी। क्या यह विज्ञान की शिक्षा के ‘लेन-देन’ में वैज्ञानिक दृष्टि के अभाव का नतीजा नहीं है?
 
हाल ही में एक दिलचस्प अनुभव से रूबरू हुआ। हालांकि फिल्मों, टीवी धारावाहिकों और समाज में इस तरह की बातें आम हैं। एक बेहद सक्षम, जानकार और अनुभवी सर्जन-डॉक्टर के क्लीनिक में इस आशय का बड़ा पोस्टर दीवार टंगा था कि ‘हम केवल माध्यम हैं। आपका ठीक होना, न होना भगवान की कृपा पर निर्भर है! -आपका चिकित्सक।’ दूसरी ओर, अंतरिक्ष यानों के प्रक्षेपण जैसी विज्ञान, तकनीक और प्रौद्योगिकी की चरम उपलब्धियों को मुंह चिढ़ाते हुए हमारे इसरो, यानी अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के मुखिया जैसे पद पर बैठे लोग भी किसी यान के प्रक्षेपण की कामयाबी के लिए ‘ईश्वरीय कृपा’ हासिल करने के मकसद से किसी मंदिर में पूजा-अर्चना करते हैं। 24 सितंबर, 2014 को भारत के मंगलयान की शानदार कामयाबी इसरो के हमारे तमाम वैज्ञानिकों की काबिलियत की मिसाल है। मगर यह वही मंगलयान है, जिसके प्रक्षेपण के पहले चार नवंबर, 2013 इसरो के अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने तिरुपति वेकंटेश्वर मंदिर में पूजा-अर्चना की और इसकी अभियान की कामयाबी के लिए प्रार्थना की थी। राधाकृष्णन के पूर्ववर्ती इसरो अध्यक्ष माधवन नायर भी यही करते रहे थे।
 
वैज्ञानिक चेतना के बगैर विज्ञान का समाज
 
यह साधारण-सा सच है कि कोई भी पोंगापंथी, दिमाग से बंद, कूपमंडूक अंधविश्वासी व्यक्ति जब यह देखता है कि भारत के अंतरिक्ष प्रक्षेपण अनुसंधान संगठन, यानी इसरो का मुखिया विज्ञान पर केंद्रित किसी कार्यक्रम में शिरकत करते हुए या किसी उच्च क्षमता के अंतरिक्ष यान के प्रक्षेपण से पहले घंटों किसी मंदिर में पूजा करता है तो यह उसके भीतर बैठी हीनताओं को तुष्ट करता है। इसे उदाहरण बना कर वह कह पाता है कि इसरो जैसे विज्ञान के संगठन के वैज्ञानिक ऐसा करते हैं तो उसका कोई आधार तो होगा ही। जाहिर है, हमारे समाज में विज्ञान की पढ़ाई-लिखाई और उस क्षेत्र में अच्छी-खासी उपलब्धियों में कोई कमी नहीं रही है। लेकिन वैज्ञानिक चेतना या दृष्टि का लगभग अभाव रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में महान खोजों से प्रशिक्षित, मस्तिष्क, तंत्रिका या हृदय की बेहद जटिल शल्य-क्रिया करके किसी मरीज को जीवन देने वाले सक्षम डॉक्टर जब अपनी काबिलियत और कामयाबी का श्रेय वैज्ञानिक खोजों के साथ-साथ अपनी मेहनत और कुशलता को देने के बजाय ‘अज्ञात शक्ति’ या भगवान को देते हैं तो इससे क्या साबित होता है! ऐसा करके या मान कर क्या हम उन तमाम लोगों की क्षमता, सालों की दिन-रात की मेहनत और वैज्ञानिक दृष्टि को खारिज नहीं करते हैं, जिनके जरिए कई बार हमारा जिंदा बच पाना मुमकिन होता है?
 
यह कोई नया आकलन नहीं है कि मानव समाज के विकास के क्रम में एक दौर ऐसा रहा होगा, जब मनुष्य ने अपनी सीमाओं के चलते मुश्किलों का हल किसी पारलौकिक शक्ति की कृपा में खोजने की कोशिश की होगी। लेकिन आज जब मंगल पर कदम रखने से लेकर ब्रह्मांड की तमाम जटिल गुत्थियों को खोलते हुए दुनिया का विज्ञान हर रोज अपने कदम आगे बढ़ा रहा है तो ऐसे में अलौकिक-पारलौकिक काल्पनिक धारणाओं में जीते समाज और उसके ढांचे को बनाए रखने का क्या मकसद हो सकता है?
 
विज्ञान और वैज्ञानिक चेतना का द्वंद्व
 
यहीं आकर एक बिंदु उभरता है जिसके तहत समाज में चंद लोगों या कुछ खास समूहों की सत्ता एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में आकार पाती है। यह व्यवस्था अगर शोषण-दमन और भेदभाव पर आधारित हुई तो संभव है कि भविष्य में प्रतिरोध की स्थिति पैदा हो, क्योंकि वैज्ञानिक चेतना से लैस कोई भी व्यक्ति यह समझता है कि दुनिया में मौजूद तमाम अंधविश्वास का सिरा पारलौकिक आस्थाओं से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। इसी स्थिति को पैदा होने से रोकने के लिए लौकिक यथार्थों पर पारलौकिक धारणाओं का मुलम्मा चढ़ा दिया जाता है। ऐसी कवायदों का संगठित रूप धर्म के रूप में देखा जा सकता है। हालांकि मानव समाज के लिए धर्म की अलग-अलग व्याख्याएं पेश की जाती रही हैं, लेकिन इसके नतीजे के रूप में सामाजिक सत्ताओं का ‘केंद्रीकरण’ ही देखा गया है। और चूंकि विज्ञान लौकिक यथार्थों पर चढ़े अलौकिक भ्रमों की परतें उधेड़ता है, इसलिए वह स्वाभाविक रूप से धर्म का घोषित-अघोषित दुश्मन हो जाता है।
 
विडंबना यह है कि ब्रह्मांड और मानव सभ्यता के विकास का आधार होने के बावजूद विज्ञान अब तक दुनिया भर में धर्म के बरक्स एक सत्ता या व्यवस्था के रूप में खुद को खड़ा कर सकने में नाकाम रहा है। जबकि विज्ञान, तकनीकी या प्रौद्यागिकी के सहारे कई देश अपने आर्थिक-राजनीतिक ‘साम्राज्यवाद’ के एजेंडे को कामयाब करते हैं। हालांकि इसकी वजहों की पड़ताल कोई बहुत जटिल काम नहीं है। पहले से ही हमारे सामने अगर ‘राज्य की उत्पत्ति के दैवीय सिद्धांत’ जैसी व्याख्याएं हैं तो ‘विकासवादी सिद्धांत’ भी है। लेकिन आखिर क्या वजह है कि सामाजिक व्यवहार में ‘दैवीय सिद्धांत’ अक्सर हावी दिखता है!
 
दरअसल, राजनीतिक-सामाजिक सत्ताओं पर कब्जाकरण के बाद इसके विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को रोकने के लिए उन तमाम रास्तों, उपायों को हतोत्साहित-बाधित किया गया, जो पारलौकिकता या दैवीय कल्पनाओं पर आधारित किसी ‘प्रभुवाद’ की व्यवस्था को खंडित करते थे। चार्वाक, गैलीलियो, कोपरनिकस, ब्रूनो से लेकर हाल में नरेंद्र दाभोलकर की हत्या जैसे हजारों उदाहरण होंगे, जिनमें विज्ञान या वैज्ञानिक दृष्टि को बाधित करने के लिए सामाजिक सत्ताओं के रूप में सभी धर्मों में मौजूद ‘ब्राह्मणवाद’ ने बर्बरतम तरीके अपनाए।
 
दिलचस्प यह है कि विज्ञान का दमन करने वाली ताकतें यह अच्छे से जानती थीं कि विज्ञान की ताकत क्या है। इसलिए एक ओर उन्होंने समाज में वैज्ञानिक नजरिए या चेतना के विस्तार को रोकने के लिए हर संभव क्रूरताएं कीं तो दूसरी ओर धार्मिक और आस्थाओं के अंधविश्वास को मजबूत करने के लिए विज्ञान और तकनीकों का सहारा लिया और उनका भरपूर उपयोग किया। एक समय सोमनाथ के मंदिर में जो मूर्ति बिना किसी सहारे के हवा में लटकी हुई थी और जिसे देख कर लोग चमत्कृत होकर और गहरी आस्था में डूब जाते थे, उसमें चुंबकीय सिद्धांतों की बेहतरीन तकनीक का इस्तेमाल किया गया था। इसे ‘मैग्नेटिक लेविटेशन’ या चुंबकीय उत्तोलन कहते हैं, जिसका अर्थ है चुंबकीय बल के सहारे हवा में तैरना। इसी तरह, किसी सीधे खड़े संगमरमर के पत्थरों से दूध भरे चम्मच का किनारा सटते ही चम्मच में मौजूद दूध का खिंच जाना गुरुत्व के सिद्धांत से संबंधित है और इसकी वैज्ञानिक व्याख्या है। लेकिन इसी का सहारा लेकर तकरीबन दो दशक पहले समूचे देश में गणेश की मूर्तियों को अचानक दूध पिलाया जाने लगा था।
 
विज्ञान के बरक्स अंधविश्वास का समाज
 
धार्मिक स्थलों के निर्माण से लेकर जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, झाड़फूंक, चमत्कार वगैरह विज्ञान और तकनीक के सहारे ही चलता रहा है। यह बेवजह नहीं है कि मर्सिडीज बेंज या बीएमडब्ल्यू जैसी आधुनिक तकनीकी से लैस कारें चलाने वाले और ऊपर से बहुत आधुनिक दिखने वाले लोग अपनी कार में ‘अपशकुन’ से बचने के लिए नींबू और हरी मिर्च के गुच्छे टांगे दिख जाते हैं। इसी तरह, उच्च तकनीकी के इस्तेमाल से बनने वाली इमारतें बिना भूमि-पूजन के आगे नहीं बढ़तीं। बहुत आधुनिक परिवारों के लोग अपने शानदार और हाइटेक घरों के आगे या कहीं पर एक ‘राक्षस’ के चेहरे जैसी आकृति टांगे दिख जाएंगे, जिसका मकसद मकान को ‘बुरी नजर’ से बचाना होता है! यानी जिन वैज्ञानिक पद्धतियों और तकनीकी का इस्तेमाल अंधविश्वासों को दूर कर समाज को गतिमान बनाने या आगे ले जाने के लिए होना था, वे समाज को जड़ और कई बार प्रतिगामी बनाने के काम में लाई जाती रही हैं।
 
इसकी वजह यह है कि विज्ञान अपने आप में दृष्टि है, लेकिन वैज्ञानिक सिद्धांत, संसाधन या तकनीक एक ‘उत्पाद’ की तरह है, जिसका इस्तेमाल कोई भी कर सकता है- विज्ञान का दुश्मन भी। बहुत ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। मौजूदा दौर में ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और अखबार के अलावा फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्स ऐप जैसे सोशल मीडिया के मंचों और मोबाइल जैसे संचार के साधनों के दौर को हम विज्ञान और तकनीक के चरम विकास का दौर कह सकते हैं। लेकिन हम देख सकते हैं कि इन संसाधनों पर किस तरह वैसे लोगों या समूहों का कब्जा या ज्यादा प्रभाव है जो विज्ञान और तकनीकी का इस्तेमाल वैज्ञानिक चेतना या दृष्टि को कुंद या बाधित करने में कर रहे हैं।
 
आधुनिकी उन्नत तकनीकों के इस्तेमाल से बनाई गई अंधविश्वास फैलाने वाली फिल्में या धारावाहिक पहले से चारों तरफ से अंधे विश्वासों में मरते-जीते आम दर्शक की जड़ चेतना को ही और मजबूत करते हैं। टीवी चैनलों पर धड़ल्ले से अंधविश्वासों को बढ़ाने या मजबूत करने वाले कार्यक्रम ‘धारावाहिक’ के तौर पर चलते ही रहते हैं, कई बार ‘समाचार’ के रूप में भी दिखाए जाते हैं। यह ‘बाबाओं’ और ‘साध्वियों’ के प्रवचनों और विशेष कार्यक्रमों से लेकर फिल्मों के हीरो-हीरोइनों या मशहूर हस्तियों के जरिए ‘धनवर्षा यंत्र’ या ‘हनुमान यंत्र’ आदि के प्रचारों के अलावा होता है। अखबार इसमें पीछे नहीं हैं। इससे टीवी चैनलों मीडिया संस्थानों को कमाई होती है, मुनाफा होता है, लेकिन समाज को कितना नुकसान होता है, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं होता! इसके अलावा, फेसबुक जैसे सोशल मीडिया का मोबाइल पर व्हाट्स ऐप जैसे संवाद-साधनों के जरिए किस तरह सांप्रदायिकता का जहर परोसा जा रहा है, यहां तक कि दंगा भड़काने में भी इनका इस्तेमाल किस पैमाने पर किया जा रहा है, यह जगजाहिर तथ्य है।
 
यानी विज्ञान के जरिए की वैज्ञानिक दृष्टि या चेतना को कैसे कुंद किया जा रहा है और विज्ञान का सहारा लेकर समाज को किस तरह अंधविश्वासों के अंधेरे में झोका जा रहा है, यह साफ दिखता है। दरअसल, किसी भी धर्म के सत्ताधारी तबकों की असली ताकत आम समाज का यही खोखलापन होता है कि वह विज्ञान के सहारे अपने जीवन की सुविधाएं तो सुनिश्चित करे, लेकिन उसे किसी ‘अज्ञात शक्ति’ की कृपा माने। पारलौकिक भ्रम की गिरफ्त में ईश्वर और दूसरे अंधविश्वासों की दुनिया में भटकते हुए लोग ही आखिरकार बाबाओं-गुरुओं, तांत्रिकों, चमत्कारी फकीरों जैसे ठगों के फेर में पड़ते हैं और अपना बचा-खुचा विवेक गवां बैठते है। यह केवल समाज के आम और भोले-भाले लोगों की बंददिमागी नहीं है, बौद्धिकों, बड़े-बड़े नेताओं, मुख्यमंत्रियों, प्रधानमंत्रियों और राष्ट्रपतियों तक को फर्जी और कथित चमत्कारी बाबाओं के चरणों में सिर नवाने में कोई हिचक नहीं होती।
 
दलील दी जाती है कि आस्था निजी प्रश्न है। लेकिन विज्ञान की कामयाबियों के साथ आस्था का घालमेल आखिरकार वैज्ञानिक चेतना को भ्रमित करता है। और यही वजह है कि गहन और जटिल ऑपरेशन हो या भूकम्प और बाढ़ जैसी आपदाएं, इनकी वजहें जानने, उसका विश्लेषण करने के बावजूद व्यक्ति या खुद इसके विशेषज्ञ इन सबको किसी भगवान का चमत्कार, कृपा या फिर कोप के रूप में देखते-पेश करते हैं। यह अपने ज्ञान-विज्ञान और खुद पर भरोसा नहीं होने-करने का, अपनी ही क्षमताओं को खारिज करने का उदाहरण है। क्षमताओं के नकार की यह स्थिति किसी विनम्रताबोध का नहीं, बल्कि भ्रम और हीनताबोध का नतीजा होती है। और जब हम विज्ञान के विद्याथियों या वैज्ञानिकों तक को इस तरह के द्वंद्व और भ्रम में जीते देखते हैं तो ऐसे में साधारण इंसान या समाज से क्या उम्मीद हो, जो जन्म से लेकर मौत तक वैज्ञानिक चेतना से बहुत दूर दुनिया के धर्मतंत्र और अलौकिक-पारलौकिक आस्थाओं के चाल में उलझा रह जाता है।
 
जाहिर है, असली चुनौती यह है कि विज्ञान केवल लोगों के जीवन को सहज नहीं बनाए, बल्कि दुनिया के यथार्थ को समझने के लिए समाज को वैज्ञानिक चेतना से भी लैस करे। यह समाज के ज्यादातर हिस्से को सोचने-समझने के तरीके या माइंडसेट पर कब्जा जमाए पारलौकिक आस्थाओं के बरक्स एक बहुत बड़ी चुनौती है। अगर यह कहा जाए कि जिस पैमाने पर समाज धार्मिकता के जंजाल में उलझा है, अगर उसी पैमाने पर वैज्ञानिक चेतना होती तो हमारा समाज शायद अभी से कई हजार साल आगे होता, तो शायद अतिश्योक्ति नहीं होगी।

('चार्वाक' ब्लॉग से)
 

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गाय के नाम पर बर्बरता की वकालत https://sabrangindia.in/gaaya-kae-naama-para-barabarataa-kai-vakaalata/ Thu, 02 Jun 2016 06:27:55 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/06/02/gaaya-kae-naama-para-barabarataa-kai-vakaalata/ संविधान और कानून ताक पर, हिंसक भीड़ के समाज का सपना ​ हमेशा अपनी उदारता का राग अलापने वाली भाजपा और उसके हिंदुत्व की राजनीति किस हद तक संवेदनहीन और निकृष्ट हो सकती है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। दादरी में हिंदुओं की भीड़ के हाथों बर्बरता से मार डाले गए मोहम्मद अख़लाक के मामले […]

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संविधान और कानून ताक पर, हिंसक भीड़ के समाज का सपना



हमेशा अपनी उदारता का राग अलापने वाली भाजपा और उसके हिंदुत्व की राजनीति किस हद तक संवेदनहीन और निकृष्ट हो सकती है, इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। दादरी में हिंदुओं की भीड़ के हाथों बर्बरता से मार डाले गए मोहम्मद अख़लाक के मामले में एक बार फिर यही साबित हो रहा है। भीड़ ने एक मंदिर से 'आह्वान' के बाद अख़लाक के घर पर हमला किया और गोमांस रखने के आरोप में ईंट-पत्थरों से मार-मार कर उस लाचार बुजुर्ग को मार डाला था।

किसी भी सभ्य और संवेदनशील समाज में अगर किसी भी स्तर पर इस हत्या को जायज ठहराया जाता है तो यह मान लेना चाहिए कि उस समाज का मानवीय होना अभी बाकी है। लेकिन भाजपा की राजनीति का सपना शायद इस समूचे समाज को वही बना देने का है। वरना यह कैसे संभव है कि एक असभ्य और बर्बर भीड़ किसी के खाने-पीने के सवाल पर उसके घर पर हमला करके उसे मार डाले और इस चरम बर्बरता को सिर्फ इसलिए सही ठहराया जाए कि भीड़ के पास 'वाजिब' वजहें थीं! अव्वल तो यह अपने आप में संदेह के बिंदु पैदा करता है कि जिस मांस को पहली जांच में बकरे का ठहराया गया था, वह अब आठ-नौ महीने के बाद गाय का बताया जा रहा है और क्या किसी फोरेंसिक जांच में इतना वक्त लगना स्वाभाविक है? क्या यह जांच और उसके निष्कर्ष सुनियोजित हैं? फिर अगर वह गोमांस था भी, तो क्या एक संविधान और कानून से शासन से चलने वाले देश में किसी भीड़ को यह छूट दी जा सकती है कि वह किसी को खाने-पीने के सवाल पर इस बर्बर तरीके से मार डाले?

लेकिन इस देश के संविधान की शपथ लेकर लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा बने भाजपा के कई नेताओं के लिए न संविधान की कोई अहमियत है, न उन्हें कानूनों की जरूरत लगती है। इसलिए अगर उसके राजनीतिक एजेंडे में गाय को मारने का विरोध एक मुद्दा है तो उसके लिए उसे कानून और संविधान में दर्ज व्यवस्था की कोई अहमियत नहीं है। वह एक ऐसा समाज चाहती है जो अपनी राय, अपनी पसंद से इतर सोचने-समझने या खाने-पीने वालों को ठीक उसी तरह घेर कर बर्बरतापूर्वक मार डाले, जैसे दादरी में हुआ था।

भाजपा के सांसद आदित्यनाथ ने जिस तरह मोहम्मद अख़लाक के परिवार के खिलाफ गोहत्या का मुकदमा दर्ज करने और उसे मिली सरकारी सहायता वापस लेने की मांग की, क्या इसके विरोधाभासों पर भी भाजपा कभी सोचेगी? या तो वह कानून के शासन को ही स्वीकार कर ले या फिर भीड़-तंत्र की बर्बरता को सही मान ले। यह कैसे संभव है कि एक साथ आप कानूनों के तहत मोहम्मद अख़लाक पर मुकदमा दर्ज करने की मांग करें और दूसरी ओर भीड़ के उस व्यवहार को भी सही ठहराएं?

लेकिन भाजपा को पता है कि देश की जनता को इसी तरह भ्रम की दुनिया में बनाए रख कर उसे दिमागी तौर पर गुलाम बनाए रखा जा सकता है। इसलिए वह उन्हीं कानूनों के तहत हत्यारी भीड़ और उसके पीछे साजिश करने वालों को गिरफ्तार करने और हत्या के लिए उचित सजा की मांग नहीं करके उसके समर्थन का एलान करेगी। क्या यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि इस तरह की राजनीति भविष्य का कैसा समाज खड़ा करेगी? वह कैसा और किस समाज का दृश्य होगा जब कोई व्यक्ति या समुदाय अपनी पसंद और इच्छा से इतर सोचने-समझने या जीने वाले व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से घेर कर मार डाले? क्या ऐसी भीड़ तब रुकेगी, जब उससे ज्यादा ताकतवर भीड़ उसके साथ उसी तरह का व्यवहार करने के लिए खड़ी हो जाएगी? लेकिन वह कैसा समाज और देश होगा?

क्या यही भाजपा के सपनों का हिंदू समाज है, जिसके बारे में दुनिया भर में सहिष्णुता की ढोल पीटी जाती रही है? और यहां तो सवाल उसकी सहिष्णुता का भी नहीं है! अगर किसी व्यक्ति या समुदाय के सामान्य जीवन में कोई खानपान शामिल है तो उसे नियंत्रित करने का अधिकार दूसरे समुदाय को कैसे मिल जाता है? अगर कहीं इसे लेकर कानून हैं, तो वह कानून लागू करने के लिए कोई असभ्य भीड़ आगे आएगी या व्यवस्था की एजेंसियां?

लेकिन एक संदिग्ध फोरेंसिक रिपोर्ट के बाद भाजपा के कुछ नेताओं ने मारे गए मोहम्मद अख़लाक और उनके परिवार को लेकर जैसी बेरहम और अमानवीय टिप्पणियां की हैं, उससे उनकी राजनीति का पता चलता है। अगर देश के संविधान और कानून के तहत शासन के प्रति उसका यही नजरिया और व्यवहार है तो देश को सोचना चाहिए कि एक किस तरह की राजनीति समूचे समाज को गिरफ्त में लेने के लिए तैयार है। 

असल में सबको पता है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव का वक्त अब नजदीक आता जा रहा है। और भाजपा के पास अपनी चुनावी राजनीति के नाम पर एक सभ्य और विकसित समाज बनाने का एजेंडा है ही नहीं, वह विकास का राग चाहे जितना पीटे। हाल ही में पांच राज्यों में हुए चुनाव में जिस एक राज्य, असम में उसे कामयाबी मिली, वहां के फार्मूले को वह उत्तर प्रदेश में भी लागू करना चाहती है। यह अब छिपा नहीं है कि असम में धार्मिक-सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का कैसे खेल खेला गया और नतीजे कैसे आए। उत्तर प्रदेश में भी मुद्दे के नाम पर भाजपा के पास कुछ नहीं है, इसलिए वह इस तरह के मुद्दों को हवा देकर राज्य में अपना राजनीतिक जीवन तलाश रही है।

('चार्वाक' ब्लॉग से)
 

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