parched movie | SabrangIndia News Related to Human Rights Wed, 28 Sep 2016 07:00:55 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png parched movie | SabrangIndia 32 32 बेबसी और दर्द की कहानी…और वे भाग गईं https://sabrangindia.in/baebasai-aura-darada-kai-kahaanaiaura-vae-bhaaga-gain/ Wed, 28 Sep 2016 07:00:55 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/09/28/baebasai-aura-darada-kai-kahaanaiaura-vae-bhaaga-gain/ पार्च्ड फिल्म अपनी दमदार पटकथा, संवाद, फिल्मांकन और कलाकारों के बेहतरीन अभिनय के दम पर दर्शकों को अंत तक बांधे रखने में कामयाब रहती है. ब्राह्मणवादी मान्यताओं और सांस्कृतिक वर्चस्व के भीतर की कहानी है पार्च्ड. फिल्म की बारीकियों पर जाएं तो कई जगहों पर हिंदू धर्म की कलई खोलती नज़र आती है पार्च्ड. कहानी […]

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पार्च्ड फिल्म अपनी दमदार पटकथा, संवाद, फिल्मांकन और कलाकारों के बेहतरीन अभिनय के दम पर दर्शकों को अंत तक बांधे रखने में कामयाब रहती है.

ब्राह्मणवादी मान्यताओं और सांस्कृतिक वर्चस्व के भीतर की कहानी है पार्च्ड. फिल्म की बारीकियों पर जाएं तो कई जगहों पर हिंदू धर्म की कलई खोलती नज़र आती है पार्च्ड.

कहानी की शुरुआत में हिंदू देवी-देवताओं को दिखाया गया है. एक सीन में ब्राह्मणवादी रीति से शादी-ब्याह होता है, जिसमें एक ब्राह्मण को संस्कृत में रामायण, महाभारत, गीता, भागवत, पुराणों का उच्चारण करते हुए भी दिखाया गया है.

एक बांझ पति जो कि अपनी गर्भवती पत्नी के चरित्र पर सवाल उठाते हुए छोड़ देता है. इसी दौरान हिंदू देवता राम का प्रसंग दिखाया जाता है. हिंदू देवता राम द्वारा रावण का पुतला दहन वाला दृश्य दिखाया गया है.

एक महिला जो कि पति द्वारा छोडी हुई और कम उम्र में ही विधवा हो जाती है, लेकिन हिंदू धर्म के अनुसार उसके पुनर्विवाह का प्रावधान नहीं है.

एक सेक्स वर्कर महिला है और 'देवता पुरुष' इस महिला के चारों और चक्कर लगाते रहते हैं. मनुस्मृति में कहा भी गया है- 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:'

एक बालिका वधू है, जिसे लड़के की मां घर गिरवी रखके, दहेज में पैसे देकर ब्याह कर घर लाई है.

मेरी नज़र में तो यह फिल्म दरअसल धार्मिक मान्यताओं द्वारा समर्थन प्राप्त पितृसत्तातमक और सामंतवादी व्यवस्था वाले समाज में महिलाओं की बेवशी और उनके साथ पुरुषों द्वारा की जाने वाली हिंसा को उजागर करती हुई फिल्म है. जो कि न तो महिला अत्याचारों के प्रतिशोध की कहानी है और न ही स्त्रीवादी कहानी है.

हां, वो बात अलग है कि बीच-बीच में महिलाएं अकेले में जाकर थोड़ी मन की भड़ास शांत कर लेती हैं. एक सुनसान किले के ऊपर फिल्माये गए सीन में महिलाओं आधारित गाली के बदले पुरुष आधारित गाली वाला संवाद भी दिखाया गया है, अगर यह सीन गांव के भीतर पुरुषों के बीच फिल्माया गया होता तो जरूर इसके ख़ास मायने होते.

फिल्म में, एक बेटी है जो भागकर अपने मायके आ गई है क्योंकि उसके साथ ससुराल में देवर और ससुर यौन शोषण करते हैं. यह सबकुछ जानने के बाद भी उसकी मां उसे वापस भेज देती है.

विधवा महिला के भीतर चाहत दबी हुई है, लेकिन पिछले 15 सालों से उसके किसी भी पुरुष के साथ शारीरिक संबंध नहीं बने हैं.

सेक्स वर्कर महिला को गुफा में रहने वाले एक पुरुष ने सपने देखना सिखाया है.

विधवा महिला कहती है कि 'बिना मां बने, औरत बनने का सुख नहीं भोग सकते', तब सेक्स वर्कर महिला हिंदू ग्रंथ रामायण को खारिज़ करते हुए कहती है कि 'सिर्फ बच्चे पैदा करना, मां बनना ही इकलौता धर्म नहीं है महिलाओं का.'

बांझ होने का आरोप झेल रही महिला किसी भी कीमत पर मां बनना चाहती है. उसे प्यार, ममता, लाडा-लाडी की तमन्ना है, जिसकी पूर्ति गुफा में रहने वाला वही पुरुष करता है.

गांव में एक समाजसेवी दंपत्ति को दिखाया गया है, जो महिला शिक्षा की बात करता है. पुरुष पूरे गांव में खासतौर से महिलाओं की मदद करते रहता है, इसके लिए उसे सम्मानित भी किया जाता है. वो महिलाओं को रोजगार भी उपलब्ध करवाता है. चूंकि यह गांव में हीरो बन जाता है, तो गांव के लड़के उसे पीट-पीटकर अधमरा कर देते हैं, तब वो दंपत्ति गांव छोड़कर चली जाती है.

इसी पुरुष की मदद से महिलाओं को मोबाईल और टेलीविजन जैसी आधुनिक तकनीकें उपलब्ध होती हैं. इसी मोबाईल पर विधवा महिला को एक फर्जी शाहरूख खान का कॉल आता है और उसके भीतर उमंगे उठने लगती हैं.

बालिका वधू के साथ पढ़ने वाला लड़का, उसकी हालत को देखकर दुखी है और बाद में वो उसे पढ़ाने के लिए शहर लेकर चला जाता है.

और अंत में तीनों महिलाएं गांव छोड़कर भाग जाती हैं.

पूरी फिल्म में महिलाओं की बेवशी और दर्द को ही दिखाया गया है, लेकिन महिला अधिकारों को लेकर कोई विशेष वकालत नहीं की गई है.

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पार्च्ड : स्त्रीवाद नहीं, लेकिन मर्दवाद के सिंह-आसन की चिंदी-चिंदी…! https://sabrangindia.in/paaracada-sataraivaada-nahain-laekaina-maradavaada-kae-sainha-asana-kai-caindai-caindai/ Mon, 26 Sep 2016 12:35:34 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/09/26/paaracada-sataraivaada-nahain-laekaina-maradavaada-kae-sainha-asana-kai-caindai-caindai/ मैं 'पिंक' की तुलना 'पार्च्ड' से इसलिए नहीं करना चाहता हूं कि 'पिंक' आखिरकार अपने उस एजेंडे के खिलाफ जाकर खड़ी हो जाती है, या ज्यादा उदार होकर कहें तो अपने ही एजेंडे को कमजोर कर देती है, जिसमें बुनियादी मकसद स्त्री को पुरुष-तंत्र और उसके मानस से स्वतंत्र और कहीं उसके बरक्स करना है। […]

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मैं 'पिंक' की तुलना 'पार्च्ड' से इसलिए नहीं करना चाहता हूं कि 'पिंक' आखिरकार अपने उस एजेंडे के खिलाफ जाकर खड़ी हो जाती है, या ज्यादा उदार होकर कहें तो अपने ही एजेंडे को कमजोर कर देती है, जिसमें बुनियादी मकसद स्त्री को पुरुष-तंत्र और उसके मानस से स्वतंत्र और कहीं उसके बरक्स करना है। पितृसत्ता के खिलाफ लड़ाई की शुरुआत इसके बरक्स खड़ा होने से शुरू होगी, उसके आसरे में नहीं। फिर भी, 'पिंक' की अपनी अहमियत है।

बहरहाल, 'पार्च्ड' अपने उस एजेंडे में पूरी तरह कामयाब है, जिसमें स्त्री की जिंदगी, स्त्री के लिए, स्त्री के हाथों में और स्त्री के द्वारा तय होने की मंजिल तक पहुंचती है। हो सकता है कि 'पार्च्ड' की चारों स्त्रियों ने कथित मुख्यधारा के स्त्रीवाद का कोई आख्यान नहीं रचा हो, लेकिन कहीं उन्होंने मर्दवाद के भरोसे से बाहर खुद पर भरोसा किया, कहीं मर्दवाद को आईना दिखाया, कहीं मर्दवाद के बरक्स खड़े मर्द को स्वीकार किया तो कहीं मर्दवाद का मुंह तोड़ दिया। यानी यह कथित मुख्यधारा का स्त्रीवाद नहीं भी हो सकता है, लेकिन मर्दवाद के सिंहासन के पाए जरूर तोड़े।

दरअसल, 'पार्च्ड' में स्त्री की जमीनी हकीकतों का सामना जो स्त्रियां करती हैं, उन्होंने कोई क्रांति या स्त्रीवाद की पढ़ाई नहीं की है, लेकिन जहां उनके सामने 'आखिरी रास्ता' का चुनाव करने का विकल्प बचता है, वहां वे पुरुषवाद और पितृसत्ता की कुर्सी के पायों की चिंदी-चिंदी करके रख देती हैं। मुमकिन है, उसे स्त्रीवाद की क्लासिकी के दायरे में न गिना जाए। लेकिन स्त्री के अपनी जिंदगी को इसी सिरे से बरतने की पृष्ठभूमि में स्त्रीवाद की सैद्धांतिकी तैयार होती है।

लज्जो अपने 'बांझ' होने को तब तक मजाक बना कर जीती है और पति के हाथों यातना का शिकार होती है, जब तक बिजली उसे यह नहीं बताती कि 'बांझ' उसका पति भी हो सकता है। ('बोल'- जिसमें बेटी या बेटा होने के लिए मर्द जिम्मेदार है।) वह पति, जिसकी मर्दानगी हर अगले पल जागती है और उस वक्त तूफान की शक्ल अख्तियार कर लेती है, जब लज्जो उसे यह खबर देती है कि उसकी नौकरी पक्की हो गई है, नियमित पगार मिलेगी। इस पर उसके पति को अपनी 'जरूरत खत्म होने' के डर और मर्द अहं को ठेस लगने के दृश्य को जिस तरह फिल्माया गया है, वह केवल एक मर्द की नहीं, बल्कि समूचे पुरुषवाद की कुंठा का रूपक है। इसके अलावा, पति के मशीनी संवेदनहीन सेक्स और संतान पैदा करने की अक्षमता का दंश झेलते हुए बिजली के जरिए लज्जो जब एक बाबा के साथ सेक्स के जीवन-तत्व और सम्मान को जीती है और गर्भ लेकर पति को बताती है तो यह खबर पाते ही पति को जो सदमा लगता है, वह उसे खुद उसकी ही मर्दानगी के हमले की आग में जला डालता है।

लज्जो के चरित्र की व्याख्या मर्दवाद के केंद्र पर चोट करती है।

इधर पत्नी से ज्यादा रुचि दूसरी औरत में लेने वाले पति की मौत और अपने बेटे के बाल-विवाह के बाद रानी अपने लिए 'शाहरुख खान' के प्रेम की उम्मीद में खुश होती है। फिर बेटे के भी अपने पति की राह पर चले जाने के बाद बच्ची जैसी बहू के साथ खड़ी हो जाती है, उसे उसके प्रेमी के साथ किताब देकर विदा करती है।

जानकी ने बाल विवाह के बाद के जीवन से लेकर बलात्कार तक की त्रासदी को जिस तरह जीवंत किया है, अपने पति के भीतर के मर्द की मार से उपजी पीड़ा को जो भाव और अभिव्यक्ति दी है, वह हैरान करती है। भविष्य के लिए सिनेमा को एक बेहतरीन कलाकार मुबारक।

और समाज की जुगुप्सा के हाशिये पर खड़ी, लेकिन मर्दानगी की अय्याशी के लिए जरूरी बिजली ने ऊपर की तीनों महिलाओं की आंखों को जिस तरह फाड़ कर खोला, लज्जो को बताया कि बच्चा होने या नहीं होने के लिए उसका पति भी जिम्मेदार हो सकता है… लज्जो के साथ-साथ रानी को भी बताया कि सेक्स का मतलब केवल शारीरिक नहीं, दिमागी-मानसिक स्तर पर भी चरम-सुख होना चाहिए… लज्जो, रानी और जानकी, तीनों को बताती है कि गालियां केवल औरतों के खिलाफ इसलिए होती हैं कि इन्हें मर्दों ने बनाया है तो वह एक गंभीर बागी लगती है। और जब परदे पर चारों महिलाओं के मुंह से एक साथ गालियां गूंज रही थीं, तो समूचे सिनेमा हॉल में  मैं अकेला था जो ताली बजाने लगा! हालांकि मैं किसी भी तरह की गाली के खिलाफ अब भी हूं! देह-व्यापार की त्रासदी को जिस तरह बिजली में उतरता हुआ पाते हैं, वह शायद सबको हिला देगा। लेकिन अपनी बाकी तीनों दोस्तों यानी लज्जो, रानी और जानकी को जिंदगी का सपना भी वही यानी समाज के लिए घिनौनी एक वेश्या ही देती है।

'ये सारी गालियां मर्दों ने ही बनाई है…' 'मर्द बनने से पहले इंसान बन जा…' या 'देखता हूं, मर्द के बिना इस घर का काम कैसे चलता है..' जैसे कई डायलॉग तो सिर्फ बानगी हैं यह बताने के लिए कि फिल्मकार ने अपने एजेंडे को लेकर कितना काम किया है। खासतौर पर रानी का अपने किशोर बेटे को यह कहना कि 'मर्द बनने से पहले इंसान बन जा' उन तमाम आंदोलनों को आईना दिखाता है, जिसमें मर्दों से उनके सुधरने के लिए 'शास्त्रीय संगीत' के लहजे में स्त्री का सम्मान करने की फरियाद की जाती है…!

खैर, आजादी का एहसास करने फटफटिया पर बैठ कर निकल पड़ी तीनों या चारों महिलाएं जब नदी में निर्वस्त्र होकर नहाती हैं, तब वहां किसी कृष्ण के फटकने की जगह नहीं होती जो इन महिलाओं के कपड़े लेकर पेड़ पर भाग जाए! यानी हर अगले दृश्य में यह फिल्म मर्दवाद और पितृसत्ता के खिलाफ स्त्री के सपने को एक नया आयाम देती है। इस सपने को किसी भी पुरुष के भरोसे पूरा नहीं होना है। जानकी के चोर और अय्याश पति का भाग जाना है, जानकी को उसका प्रेम हासिल हो जाना है, जो जाते समय उसकी किताबें और थैला थामता है, लज्जो के पति का जिंदा जल जाना है और रानी के 'शाहरुख खान' का पीछे छूट जाना है। आखिर समाज और परंपरा की दी हुई शक्ल को नोच और फेंक कर नई शक्ल के साथ जब बिजली, रानी और लज्जो एक चौराहे पर खड़ी होकर इस सवाल का सामना करती हैं कि अब राइट जाएं या लेफ्ट, तो आखिर में जवाब आता है कि इस बार तो हम तीनों अपने दिल की सुनेंगे…!

यहां इन्हें बचाने या इनका उद्धार करने के लिए के लिए कोई पुरुष नायक नहीं आता, शहरों की पढ़ी-लिखी और इंपावर महिलाओं को अपनी लड़ाई के लिए किसी पुरुष हीरो की छांव की जरूरत होती होगी, लेकिन गांव की अनपढ़ और साधनहीन 'पार्च्ड' की तीनों स्त्रियां जब घर की दहलीज से निकल जाती हैं तो वे अपने आप पर भरोसे से लबरेज होती हैं, उन्हें किसी हीरो की तलाश नहीं होती, अगर कोई 'शाहरुख खान' हीरो होना भी चाहता है तो वे उसे भी पीछे छोड़ कर निकल जाती हैं।
इससे ज्यादा और साफ-साफ क्या कहा जा सकता था कि जिंदगी को जिंदगी तरह जीने की राह क्या हो सकती है..! गांव में कपड़े और वेशभूषा के हिसाब से ही दलित-वंचित परिवारों की महिलाओं को पहचान लिया जा सकता है। तो इनके जीवट का अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल है…! इससे ज्यादा पहचानना हो तो बिजली (स्त्री) के लिए दलाली करने को तैयार 'राणा' और पहले से दलाली करते 'शर्मा-वर्मा' (पुरुष) की साफ घोषणा का आशय समझा जा सकता है। 'राणा' और 'शर्मा-वर्मा' का मतलब आज के दौर में अलग से समझाने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए।

बाकी टीवी, मोबाइल, स्थानीय कला को बेचने वाले एनजीओ वगैरह सिर्फ सहायक तत्त्व हैं। कहानी का केंद्र इनके सहारे नहीं, जानकी, बिजली, रानी और लज्जो के भरोसे टिका है।

पुनश्च-
एकः इस फिल्म में कमी के बिंदु मेरी निगाह में बस एक है- लज्जो के पति का घर में लगी आग में जलना और दूसरी ओर जश्न के तौर पर रावण के पुतले को जलाना। जब तीनों-चारों महिलाओं के नदी में निर्वस्त्र होकर नहाने के समय किसी कृष्ण को उनका कपड़ा लेकर पेड़ पर भाग जाने की कथा को खारिज किया गया, तो उसी सिरे से रावण-दहन से बचा जा सकता था, राम को भी कृष्ण की तरह खारिज किया जा सकता था।
दोः 'पार्च्ड' सिनेमा आखिर किसके लिए बनाई गई है, उसका दर्शक वर्ग कौन होगा? 'पिंक' जैसी फिल्में भी किसी पीवीआर के साथ-साथ 'रीगल' जैसे साधारण सिनेमा हॉल में भी लगी थीं। इसलिए 'पिंक' तक आभिजात्य और साधारण, दोनों तबके पहुंचे। जबकि 'पार्च्ड' कम से कम दिल्ली के पीवीआर या ऐसे ही और बहुत कम और बेहद महंगे सिनेमा हॉल में लगी है। अंदाजा लगाइए कि यह फिल्म किस तबके की कहानी कहती है और उस तक पहुंचने और मनोरंजन करने वाले लोग किस तबके के ज्यादा होते हैं।
बहरहाल, स्त्री और स्त्रीत्व से जुड़े मुद्दे पर फिल्म बनाते हुए शुजित सरकार और Linaa Yadav  की फिल्मों ने बताया है कि एक ही विषय को डील करते हुए एक पुरुष और स्त्री की दृष्टि में कैसा और कितना फासला हो सकता है। पुरुष को साहस करना पड़ता है, इसलिए चीजें छूटेंगी या फिर गड़बड़ा जाएंगी, लेकिन स्त्री के पास अगर उसकी अपनी, अपने स्व की दृष्टि है तो उस गड़बड़ी को आमतौर पर संभाल लेगी। यह अंतर साफ करके सामने रखने के लिए लीना यादव से लेकर लहर खान तक को बहुत शुक्रिया…!

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