pottery | SabrangIndia News Related to Human Rights Tue, 01 Nov 2016 09:00:15 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png pottery | SabrangIndia 32 32 दिवाली में : कसगर/ कुम्हार https://sabrangindia.in/daivaalai-maen-kasagara-kaumahaara/ Tue, 01 Nov 2016 09:00:15 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/11/01/daivaalai-maen-kasagara-kaumahaara/ हमीदुन्निसा ने लगभग भरी हुई आंखों से बताया – "बिटिया अब तो लोग कुल्हड़, चाय की कुल्हिया अउ तेल वाली परई भी नहीं खरीदत हैं, सादी बरात मा भी कोई नहीं लेत.” उसके कहते-कहते मुझे लगा कि मैं हाथ में कुल्हड़ में चाय लेकर उसे सिप करने से पहले मिट्टी की महक अपनी सांस में […]

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हमीदुन्निसा ने लगभग भरी हुई आंखों से बताया – "बिटिया अब तो लोग कुल्हड़, चाय की कुल्हिया अउ तेल वाली परई भी नहीं खरीदत हैं, सादी बरात मा भी कोई नहीं लेत.” उसके कहते-कहते मुझे लगा कि मैं हाथ में कुल्हड़ में चाय लेकर उसे सिप करने से पहले मिट्टी की महक अपनी सांस में भर रही हूँ और जुड़ रही हूँ अपनी ज़मीन से और दिवाली की रात कच्ची परई में पारे हुए काजल में कपूर की ठण्ड अनायास ही मेरी आंखों में उतर आई.. वो आगे कहती है – “बस अइसेन्हे चलि रहा है. गाँव मा परधान तलाब दिहे हैं तो वही ते मट्टी निकरि आवत है तो मोल नहीं ख़रीदेक पड़त. अउ साल भरे मा यही देवाली होत है जउन थोड़ा पइसा दई जात है. गाहक दियाली ( मिट्टी के दिए) खरीद लेत हैं और गमला बिकात हैं अउ कौनो मेला लग गवा तो थोड़ा- बहुत बिका जात है नहीं तौ साल भरे बस चिलम बिकाती हैं "………

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कुछ यही हाल सोफिया का भी था … मेरे सामने ही एक ग्राहक ने कहा कि त्यौहार बाद तुम्हार या सब धरा रही कोउ खरीदबो न करी. और एक आदमी ने दीयों के लिए मोल भाव तक कर लिया कि 8 रुपये के 12 दिये दो और आखिर सोफिया ने दे भी दिया.
गूना कुम्हारिन का भी कुछ हाल ऐसा ही था ….

दिवाली के दिनों के पहले की 2 शामें मैं इन्ही कसगरों और कुम्हारों से मिलते-जुलते काटती रही. कहने को कसगर मुसलमान होते हैं और कुम्हार हिन्दू, लेकिन बहुत पुराने समय से जब बिजली और प्लास्टिक की क्रांतियों से भारत बहुत दूर था, ये दोनों मानव समुदाय मिल कर दिवाली को सुन्दर और उजाली बनाते थे. तब कोई धर्म नहीं था बीच में, एक धर्म होता था उजाला, एक धर्म होता था अंधेरे को दूर करने का त्यौहार जो समान रूप से सबका होता था. न आज जैसी चमक दमक थी न सुविधाएं मगर संवेदनाएं बोझिल नहीं थीं और मानव का मानव के प्रति प्रेम भी आज की अपेक्षा बेहतर था.  

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उनसे बात करके पता चला कि सच में अब माटी का कोई मोल नहीं. वो माटी जो रहने को ज़मीं बनाती है, घर की दीवार भी, और खाने को अनाज भी उगाती है उसी माटी को खूबसूरत उपयोग करने लायक चीज़ें बनाने वालों को साल भर अपनी रोज़ी चलानी मुश्किल होती है.
 
कइयों ने ये भी बताया कि पहले केरोसिन 3 लीटर मिलता था सरकारी राशन की दुकान से अब कभी 2 लीटर मिलता है तो कभी डेढ़… और कभी कभी मिलता ही नहीं. यही आलम राशन का भी हो जाता है, ज़रूरत भर भी मिलता नहीं और कई बार मिलता ही नहीं. इन लोगों से मिलकर एक पल को तो ऐसा लगा कि प्लास्टिक और बिजली की ईजाद ने क्रांति तो मचाई लेकिन हमें अपनी जड़ों से बेदखल कर दिया.

कसगर अख्तर अली और उनके भाई ने बताया कि वो दोनों अब मिट्टी का आइटम नहीं बनाते,  बस दूसरों से खरीदते हैं और बेच देते हैं. उन्हें लगभग 15 हज़ार तक मिल जाता है. मतलब ये कि यहाँ भी बिचौलियों का बाज़ार ही गर्म है. लेकिन गूना कुम्हारिन, नन्हकू कुम्हार, हमीदुन्निसा और सोफिया जैसे छोटे कुम्हार और कसगर दिवाली में भी 8000 से ज़्यादा नहीं कमा पाते.

छोटे कसगर और कुम्हार कई बार मिट्टी भी खरीद कर इस्तेमाल करते हैं. 1500 रुपये या 2000 रुपये की एक ट्रॉली मिट्टी खरीदती है गूना कुम्हारिन, क्योंकि तालाब अब बचे नहीं. उस पर भी कई बार मिट्टी ख़राब भी निकल जाती है तो पैसे भी जाया हो जाते हैं. कई सारे कसगर/ कुम्हार दूर दराज़ के गाँवों से निकल कर आते हैं. मिट्टी के बर्तन और सामान लाने में जो भी टूट-फूट होती है उसका कोई मुआवज़ा नहीं. और प्रशासन की ओर से भी कोई मदद नहीं. गलती से अगर किसी की दुकान के सामने लगा लिया तो दुकान वाला भी किराया वसूलने पर उतर आता है. कई बार तो पुलिस भी परेशान करती है. प्रशासन भी इसलिए ध्यान नहीं देता क्योंकि त्यौहार में दंगा और विद्रोह न भड़क जाये.

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जब भी लोग किसी ब्रांडेड शोरूम में जाते हैं तो पचास प्रतिशत के मार्जिन पर सामान MRP पर खरीदते हैं और पूरे पैसे देते हैं. उस पर छुट्टे बच जाते हैं तो बिल डेस्क पर खड़ा एम्प्लॉय पूछता है सर/ मैम वुड यू लाइक टु डोनेट रिमेनिंग बग्स फॉर ऑर्फ़न चिल्ड्रन फण्ड ? और लोग बाग़ छाती फुलाते कहते हैं हाँ ले लीजिये . मगर यही लोग जब सड़क के किनारे लगी मिट्टी के सामान की दुकानों में सामान खरीदने जाते हैं तो पूछते हैं दाम और बेझिझक मोल भाव करते हैं. मिट्टी की इतनी बेक़दरी हमें कहाँ ले जाएगी पता नहीं. चमकते हुए त्यौहार में लोग अपने अपने घरों में सजावट करते हैं मिठाई खाते हैं और तरह-तरह के पकवान बनाते खाते हैं मगर जिनके घर भूख पसरी रहती है उसका ज़िम्मेदार कौन है?  पूंजीपतियों से आशा नहीं कर सकते मगर अपनी जेब के चार पैसों में 1 देकर  3 से अपना काम बखूबी चला सकते हैं. सोफिया और हमीदुन्निसा से कुछ बर्तन और गमले खरीद कर जब मैं घर चलने लगी तो उन दोनों के आशीष से मेरा मन भरा हुआ था और उनके चेहरे मुस्कान से. मुझे समझ में नहीं आया कि आज खरीदार कौन था और कौन दुकानदार, आज मैं क्या खरीद कर लाई मिट्टी या सुकून. हम और कुछ न भी कर पाएं तो सिर्फ इतना करें कि किसी एक चेहरे पर मुस्कान सजा दें … शायद भीतर ख़ुशी का झरना फूट पड़े.
 

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