swachh bharat abhiyan | SabrangIndia News Related to Human Rights Fri, 01 Apr 2022 04:00:48 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png swachh bharat abhiyan | SabrangIndia 32 32 11.03 cr toilets and 3.59 lakh solar pumps built in India: Centre https://sabrangindia.in/1103-cr-toilets-and-359-lakh-solar-pumps-built-india-centre/ Fri, 01 Apr 2022 04:00:48 +0000 http://localhost/sabrangv4/2022/04/01/1103-cr-toilets-and-359-lakh-solar-pumps-built-india-centre/ Opposition challenges data on SBM toilets and other election promises

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Opposition
Image courtesy: The Wire

India built 11.03 crore individual household latrines (IHHL) all over the country since 2014-15, said the Jal Shakti Ministry on March 31, 2022 in answer to a question regarding the Swachh Bharat Mission (SBM).

On Thursday, Congress MPs Anto Antony, K. Muraleedharan, Adhir Ranjan Chowdhury, Dr. Mohammad Jawed asked Union Minister Prahlad Singh Patel about the data on construction of toilets under SBM. In response, Patel shared data that showed construction of toilets had declined somewhat since 2019-20 with 1.19 cr toilets. In the previous year, the government claimed to have built 2.36 cr toilets across the country.

During pandemic years 2020-21 and 2021-22, 47.66 lakh toilets and 20.71 toilets were built respectively. Further, Patel said, “Under SBM (Urban), 62,64,914 individual household toilets have been constructed since 2014-15, as per the information received from the Ministry of Housing and Urban Affairs. Year-wise details of toilets constructed under SBM (U) are not maintained.”

Enquiring MPs also asked the Ministry about the allegations of fabricated data that said 30 percent of the data reported for both SBM Urban and SBM Gramin on the official websites is allegedly “manufactured”. Further, it is claimed that 12 lakh toilets reported as constructed between 2014 and 2020 are allegedly fictitious.

However, the Minister said no such report regarding manufactured data was received by the Ministry and thus did not take action on the same.

“Geo-tagging of toilets has been made mandatory to ensure that manufactured data do not creep in,” said Patel.

The SBM is an important aspect of the ruling regime’s scheme as it was much touted in 2014. The scheme was also expected to alleviate the troubles of rural India. However, a 2021 SabrangIndia interview with sanitation crusader Pragya Akhilesh explained how the Mission left much wanting despite huge figures.

She pointed out that rather than construction of new toilets, there should be more focus on the eradication of previously-constructed dry latrines. The sanitary toilets built under the SBM also have their unique problems like lack of water supply. As such these toilets too become a burden for India’s sanitation workers, who are forced to manually scavenge excreta from the toilets because of unavailability of continued water supply.

Aside from toilets, BJP MP Mohanbhai Kalyanji Kundariy also asked about the distribution of solar water pumps to small and marginal farmers under the Pradhan Mantri Kisan Urja Suraksha evam Utthaan Mahabhiyan (PM-KUSUM).

New and Renewable Energy and Power Minister R. K. Singh answered that around 3.59 lakh standalone solar water pumps for farmers including small and marginal farmers across India. Of these, 82,408 pumps have been installed. Particularly in Uttar Pradesh, 20 thousand pumps were sanctioned with 6,842 pumps installed by 2022. In 2017, the installation of such solar pumps was a major promise of the Yogi-led BJP party in UP.

However, during recent elections, farmers body Samyukta Kisan Morcha (SKM) announced that the government had failed on these promises when it provided 6,068 energy efficient pumps to UP farmers, falling short of the 10 lakh farmers goal. Yet, again in 2022, the government promised solar pumps under the PM-KUSUM.

The full list of state-wise sanctioned and installed pumps are as below:

 

Related:

SKM denounces BJP manifesto
Budget 2022 ignores struggling farming sector
Unmaintained Toilets ‘hotbeds’ of Corona spread in India: Pragya Akhilesh
Swachh Bharat: Who Will Clean & Empty Out 9.8 Crore Septic Tanks/Pits?

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स्वच्छ भारत के नाम पर क्या जायज है हिंसा? गुंडों ने बुजुर्ग की पिटाई कर उठवाया मल https://sabrangindia.in/savacacha-bhaarata-kae-naama-para-kayaa-jaayaja-haai-hainsaa-gaundaon-nae-baujauraga-kai/ Fri, 30 Dec 2016 12:25:01 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/12/30/savacacha-bhaarata-kae-naama-para-kayaa-jaayaja-haai-hainsaa-gaundaon-nae-baujauraga-kai/ केंद्र सरकार ने अपने महत्वाकांक्षी योजना ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को कामयाब बंनाने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रूपए ख़र्च करते हुए इस अभियान का चेहरा खुद अमिताभ बच्चन को बनाया है। लेकिन स्वच्छता के नाम गुंडागर्दी का नया उदाहरण सामने आया है जहाँ कुछ लोगों एक बुजुर्ग को बुरी तरह से पीटते हुए गालियां दे […]

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केंद्र सरकार ने अपने महत्वाकांक्षी योजना ‘स्वच्छ भारत अभियान’ को कामयाब बंनाने के लिए विज्ञापनों पर करोड़ों रूपए ख़र्च करते हुए इस अभियान का चेहरा खुद अमिताभ बच्चन को बनाया है।

लेकिन स्वच्छता के नाम गुंडागर्दी का नया उदाहरण सामने आया है जहाँ कुछ लोगों एक बुजुर्ग को बुरी तरह से पीटते हुए गालियां दे रहे है। बुजुर्ग की सिर्फ गलती यह है कि वे खुले में शौच कर रहे थे।

उनका दिल पिटाई से नही भरा तो उन्होंने बुजुर्ग से उसकी धोती में मल तक उठवा लिया। जनता का रिपोर्टर इस घटना की समय और जगह की पुष्टि नहीं कर पाया है लेकिन सोशल मीडिया वेबसाइट्स पर इस वीडियो की खूब आलोचना हो रही है।

 

भारत में खुले शौच जरूर एक विकराल समस्या है लेकिन यह भी तथ्य है कि ग्रामीण भारत में शौच संबंधी ढांचा चरमराया हुआ है। अंग्रेजी अखबार ‘दि हिन्दू’ की वेबसाइट पर 2 अक्टूबर 2016 को छपे एक लेख के अनुसार,भारत की 51.1 प्रतिशत ग्रामीण आबादी अभी भी खुले में शौच करते है।

भारत का प्रदर्शन अफ्रीका के देशों से काफी खराब है। यहाँ तक कि भारत के कई पडोसी भी इस मानक पर अच्छा प्रदर्शन कर रहे है। बांगलादेश की सिर्फ 5 प्रतिशत आबादी ही खुले में शौच करती है। सवाल यह भी है सरकारों की असफलताओं की सज्जा क्यों पाएं।

Courtesy: Janta Ka Reporter

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कागज़ों में बने शौचालयों के लिए प्रधानमंत्री ने बांटे पुरस्कार https://sabrangindia.in/kaagajaon-maen-banae-saaucaalayaon-kae-laie-paradhaanamantarai-nae-baantae-paurasakaara/ Fri, 04 Nov 2016 10:57:11 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/11/04/kaagajaon-maen-banae-saaucaalayaon-kae-laie-paradhaanamantarai-nae-baantae-paurasakaara/ नई दिल्ली। सचमुच देश बदल रहा है, तभी तो कागज़ों में बने शौचालयों के लिए भी प्रधानमंत्री द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा हैं। बीते मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने छत्तीसगढ़ के मुंगेली और धमतरी ज़िले को 'खुले में शौच मुक्त' होने के लिये सम्मानित कर दिया। लेकिन प्रधानमंत्री के इस दावे की जमीनी हकीकत […]

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नई दिल्ली। सचमुच देश बदल रहा है, तभी तो कागज़ों में बने शौचालयों के लिए भी प्रधानमंत्री द्वारा पुरस्कृत किया जा रहा हैं। बीते मंगलवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने छत्तीसगढ़ के मुंगेली और धमतरी ज़िले को 'खुले में शौच मुक्त' होने के लिये सम्मानित कर दिया। लेकिन प्रधानमंत्री के इस दावे की जमीनी हकीकत कुछ और ही हैं।

narendra modi
 
प्रधानमंत्री मोदी ने मुंगेली और धमतरी ज़िला के अलावा दूसरे ज़िलों के 15 विकासखण्डों को 'खुले में शौच मुक्त' यानी ओडीएफ ज़िला और विकासखण्ड घोषित किया और वहां के ज़िला पंचायत अध्यक्षों, जनपद पंचायत अध्यक्षों को सम्मानित भी किया।
 
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जमीनी पड़ताल के बाद मिडिया रिपोर्ट जो दावा कर रही है, उससे तो यही लगता है कि प्रधानमंत्री मोदी के भाषण कानों को सुकून पहुचाने के लिए तो ठीक है मगर हकीकत भाषणों से बहुत भिन्न है।
 
उदाहरण के रूप मुंगेली ज़िले के चिरौटी गांव को ही लें। पथरिया विकासखंड के डिघोरा ग्राम पंचायत के इस गांव में कुल 45 घर हैं लेकिन गांव के अधिकांश घरों में शौचालय नहीं है। जिससे की गांव के स्त्री-पुरुष खुले में ही शौच के लिए जाते हैं। विकासखंड के गांवों में आज भी शौचालय नहीं बने हैं और तो और वहीं कुछ गांवों में इस सम्मान के बाद शौचालय बनाने का काम शुरु किया गया है।  
 
एक मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक डिघोरा ग्राम के दौलतराम का कहना है कि "बचपन से खेत और जंगल से ऐसा रिश्ता रहा है कि कभी शौचालय की ज़रूरत ही महसूस नहीं हुई। हमारे इलाके के सरपंच ने भी कभी शौचालय के लिये किसी तरह की मदद की बात नहीं कही।"
 
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ये हाल सिर्फ चिरौटी या डिघोरा का नहीं है। इलाके के कांग्रेसी नेता घनश्याम वर्मा का कहना है "काग़ज़ में बताने के लिये भले शौचालय बना दिया गया हो लेकिन हकीकत ऐसी नहीं है। कई जगह तो ऐसा शौचालय बना दिया गया है, जिसका उपयोग ही नहीं हो रहा है।"
 
हालांकि सरकारी अफ़सर जो आकड़े दिखाते है वो चौकाने वाले है उनका दावा है कि ज़िले के सभी 674 गांवों में 97,776 शौचालय बनाये गये हैं और ये शौचालय पर्याप्त हैं।
 
वही इस मामले में पथरिया इलाके के एसडीएम केएल सोरी कहते हैं, "छोटी-मोटी परेशानियां हैं। कहीं शौचालय बनाने के लिये लाया हुआ सामान चोरी चला गया तो कहीं बना हुआ शौचालय धसक गया। लेकिन यह सब तो होता ही रहता है। हम सभी चीजों को ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं।"
 
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मुंगेली ज़िले के किसान नेता आनंद मिश्रा का कहना है कि गांवों को पूरी तरह से 'खुले में शौच मुक्त' का असली दावा ज़िले के लोरमी और पथरिया विकासखंड के अंदरूनी इलाकों में देखा जाना चाहिये, जहां कई शौचालय काग़ज़ों में ही बना दिये गए। उनका मानना है कि सबसे बड़ी चुनौती गांव के लोगों को शौचालय इस्तेमाल के लिए प्रेरित करना है। इन शौचालयों के उपयोग न हो पाने के अलग-अलग कारण हैं। जब तक इन कारणों से मुक्ति नहीं मिलती तब तक "खुले में शौच" से मुक्ति नहीं मिल सकती।
 
कुल मिलकर बात ये है कि इन ज़िलों को भले 'खुले में शौच मुक्त' घोषित कर दिया गया हो लेकिन अभी भी यहां बहुत काम बाकि हैं। कागज़ों पर शौचालय बनाने और पुरस्कार बाटने से देश "खुले में शौच" से मुक्त नहीं हो सकता।

Courtesy: National Dastak

 

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सफाई अभियान में जनता रही साफ https://sabrangindia.in/saphaai-abhaiyaana-maen-janataa-rahai-saapha/ Wed, 19 Oct 2016 11:10:29 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/10/19/saphaai-abhaiyaana-maen-janataa-rahai-saapha/ मध्य प्रदेश में सागर जिले में स्वच्छता अभियान का कार्यक्रम बुरी तरह फ्लॉप रहा। हालात यहाँ तक रहे कि पंचायत मंत्री गोपाल भार्गव कार्यक्रम स्थल के बाहर से ही लौट गए और कलेक्टर भी समारोह में शामिल नहीं हुए। शाम चार बजे जब जिला पंचायत के सीईओ कार्यक्रम में पहुँचे तब तक पूरा स्टेडियम खाली […]

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मध्य प्रदेश में सागर जिले में स्वच्छता अभियान का कार्यक्रम बुरी तरह फ्लॉप रहा। हालात यहाँ तक रहे कि पंचायत मंत्री गोपाल भार्गव कार्यक्रम स्थल के बाहर से ही लौट गए और कलेक्टर भी समारोह में शामिल नहीं हुए। शाम चार बजे जब जिला पंचायत के सीईओ कार्यक्रम में पहुँचे तब तक पूरा स्टेडियम खाली हो चुका था और खाली कुर्सियाँ मुंह चिढ़ा रही थीं।

swachta abhiyan
Representation image
 
पंचायत विभाग ने सागर जिले के रहली में 11 बजे कार्यक्रम शुरू होने की सूचना दी थी और ग्रामीण क्षेत्रो से लोग 12 बजे तक पहुँच भी चुके थे। शाम 4 बजे तक कलेक्टर और जिला सीईओ नही पहुंचने पर कार्यक्रम में शामिल होने आये जनप्रतिनिधि, आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता, और ग्रामीण लोग इंतजार करते करते थक गए और वापस लौट गए। समग्र स्वच्छता कार्यक्रम से लोग जब वापस लौट गए तब कहीं जिला सीईओ पहुंचे और खाली कुर्सियों के सामने ही भाषण की औपचारिकता पूरी की और समग्र स्वच्छता अभियान के महत्व के बारे में बताया। उस समय मंच पर केवल वक्ता ही मौजूद थे, श्रोताओं के नाम पर दो-चार लोग ही टहल रहे थे। 
 
कार्यक्रम सही तरह से फ्लॉप हुआ पंचायत मंत्री गोपाल भार्गव के बाहर से ली वापस लौटने की खबर से। मंत्री के लौट जाने की खबर सुनते ही मंचासीन अतिथियों को छोड़ पूरा स्टेडियम ही खाली हो गया। शाम तक कलेक्टर और जिला सीईओ नहीं पहुँचे थे, इसलिए मंत्री  को गुस्सा आ गया और वो लौट गए।

जिला पंचायत सीईओ राजीव रंजन मीणा से कलेक्टर के न आने और मंत्री जी के वापस लौटने के बारे में पूछा गया तो उनके पास कोई संतोषजनक जवाब नहीं था। श्री मीणा ने इतना भर कहा कि कलेक्टर व्यस्तता के कारण नहीं आ पाए और मंत्री को किसी आवश्यक कार्य के लिए जल्दी लौट जाना पड़ा।
 
 

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हाथ से मैला ढोने (मैनुअल स्कैवेंजिंग) की प्रथा को बढ़ावा दे रहा है स्वच्छ भारत अभियान – वेजवाड़ा विल्सन https://sabrangindia.in/haatha-sae-maailaa-dhaonae-maainauala-sakaaivaenjainga-kai-parathaa-kao-badhaavaa-dae-rahaa/ Sat, 08 Oct 2016 09:56:02 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/10/08/haatha-sae-maailaa-dhaonae-maainauala-sakaaivaenjainga-kai-parathaa-kao-badhaavaa-dae-rahaa/ मोदी सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रम के तहत बनाए गए 1.1 करोड़ शौचालय अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम से जुड़े नहीं हैं। क्योंकि भारत के शहरी और उप-शहरी क्षेत्र में अंडरग्राउं ड्रेनेज सिस्टम हैं ही नहीं। केंद्र सरकार 2019 तक पूरे देश में 1200 करोड़ शौचालय बनाना चाहती है। लेकिन यह अंततः हाथ से मैला साफ (मैनुअल स्कैवेंजिंग) […]

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मोदी सरकार के फ्लैगशिप कार्यक्रम के तहत बनाए गए 1.1 करोड़ शौचालय अंडरग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम से जुड़े नहीं हैं। क्योंकि भारत के शहरी और उप-शहरी क्षेत्र में अंडरग्राउं ड्रेनेज सिस्टम हैं ही नहीं। केंद्र सरकार 2019 तक पूरे देश में 1200 करोड़ शौचालय बनाना चाहती है। लेकिन यह अंततः हाथ से मैला साफ (मैनुअल स्कैवेंजिंग) करने जैसे अमानवीय और अपमानजनक प्रथा को ही बढ़ावा देगा। याद रखिये मैनुअल स्कैवेंजिंग के काम को बढ़ावा देना गैरकानूनी है।
 Bezwada Wilson

 
सिर पर मैला ढोने की प्रथा के खिलाफ लंबे वक्त से अभियान चलाने वाल मैगसेसे अवार्ड विजेता विल्सन वेजवाड़ा का कहना है कि मोदी सरकार की ओर से बनाए गए शौचालयों के सेप्टिक टैंक में जो मल-मूत्र जमा होगा, उसे कौन साफ करेगा।  देश में शहरी और उप-शहरी क्षेत्र में भी अंडग्राउंड ड्रेनेज सिस्टम की मुकम्मल व्यवस्था नहीं है। गांवों और कस्बों की बात तो छोड़ ही दीजिए। साफ है कि इन इलाकों में बने शौचालयों के सेप्टिक टैंक में जमा मल-मूत्र, हाथ से मैला साफ करने वाला समुदाय ही करेगा। एक ऐसा समुदाय जो पहले ही यह काम कर रहा है और इस वजह से गरीबी के दलदल से नहीं निकल पा रहा है। इस अमानवीय और अपमानजनक प्रथा का सलीब वे आज भी ढोए जा रहे हैं। मोदी सरकार की यह योजना उन्हें इस दलदल से निकलने में और अड़चन पैदा करेगी।

स्वच्छ भारत अभियान के तहत शौचालयों को लिए सेप्टिक टैंक लगाने का स्वागत किया जा रहा है। जबकि 2013 के कानून के तहत यह प्रतिबंधित है। जाहिर है सेप्टिक टैंक को बढ़ावा देने से हाथ से गंदगी साफ करने की प्रथा को भी बढ़ावा मिलेगा। जबकि किसी भी सभ्य समाज में इसे इजाजत नहीं मिलनी चाहिए।

मैगसेसे अवार्ड मिलने के बाद वेजवाड़ा को कई सरकारी बैठकों में बुलाया गया, जहां उन्होंने यह मुद्दा उठाया। लेकिन अब तक उनकी इस वाजिब सवाल पर किसी ने ध्यान नहीं दिया है। वह सिर पर मैला ढोने की प्रथा खत्म करने के लिए पूरी प्रतिबद्धता से काम कर रहे हैं। विल्सन का जन्म भी इसी तरह मैला ढोने वाले कर्नाटक के एक परिवार में हुआ था।

वेजवाड़ा कहते हैं- मैंने कई सरकारी सम्मेलनों में हिस्सा लिया है। मुझे बताया गया है कि पीएम की स्वच्छ भारत स्कीम के तहत 2 करोड़ शौचालय बनाए जाएंगे। सभी ड्राई लैट्रिन होंगे। इसलिए मेरा सवाल यह है कि क्या इस तरह की स्कीम के जरिये हम मैला ढोने की प्रथा की वजह से होने वाली मौतों को और नहीं बढ़ा रहे हैं?

सरकार का कहना है कि गुजरात और आंध्र प्रदेश के शहरी क्षेत्रों में अब कोई खुले में शौच नहीं करता। ये नगरों में खुले शौच से मुक्ति वाले पहले राज्य हैं। लेकिन विल्सन इस योजना की खामियां गिनाते हैं। हैदराबाद में अपनी किताब रिलीज होने के दौरान उन्होंने जो कहा, उसका संक्षिप्त अंश यहां मौजूद है-  

कोई इंसान दूसरे इंसान की गंदगी साफ न करे
पिछले 4000 साल से हम इस देश की गंदगी साफ कर रहे हैं। अब आधुनिक सीवर लाइन बिछाने की जरूरत है, जिसमें कोई भी आदमी अंदर न घुस सके। फर्जी कीजिये कि एक दिन अगर हमने हाथ से सीवर साफ करने से मना कर दिया तो फिर क्या होगा?

मैगेसेसे अवार्ड विनर की जाति
पिछले साल दिल्ली प्रेस क्लब में हम अपने अभियान, भीम यात्रा के बारे में बता रहे थे। मैंने सुना, कोई पूछ रहा था- ये वेजवाड़ा विल्सन कौन है? तभी किसी ने कहा, भंगी है। यह जातिसूचक शब्द गाली है।
जाति और पितृसत्ता  – एक ही सिक्के के दो बुरे पहलू

क्या आप जानते हैं कि भारतीय रेलवे में हाथ से मैला साफ करने वाले सफाईकर्मियों को ज्यादा वेतन मिलता है। क्योंकि ये सफाईकर्मी पुरुष हैं। जबकि ग्रामीण इलाकों में शौचालयों की सफाई करने वाली और सिर पर मैला ढोने वाली महिलाओं को काफी कम पैसा मिलता है। इसलिए कि ये महिलाएं हैं। जबकि हकीकत यह है कि सिर पर मैला ढोने वालों में 98 फीसदी महिलाएं हैं।

शासन,  क्यों बताए, क्या खाएं, कैसे रहें
हम इस देश में शाकाहारियों को तवज्जो क्यों दे रहे हैं? तमाम रिपोर्टें बता रही हैं देश की 50 फीसदी आबादी मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) की स्वीकार्य सीमा से नीचे जी रही है। इसके बावजूद सरकार यह बताने में लगी है हम क्या खाएं, क्या पढ़ें, क्या बोलें। हम बचपन से बीफ खाते आए हैं और आगे भी खाते रहेंगे। यह हमारा अधिकार है।

उना में क्या हुआ? आप कहते हैं कि गाय हमारी मां है और जब वह मर जाती है तो आप हमें कहते हैं इसकी लाश और हड्डियों को ले जाओ। पिछले पांच हजार साल में आपने जाति का एक ऐसा अमानवीय ढांचा खड़ा कर दिया है कि 21 वीं सदी में भी अधिकतर भारतीय आबादी इसी के दायरे में रहने और इसे मानने के लिए अभिशप्त है। जाति के मुताबिक जीने वाले इसमें विश्वास करते हैं और दलितों को इसमें विश्वास करना सिखाया जाता है। श्रेष्ठता और कमतरी की यह भावना शर्मनाक है। मेरा कहना है कि आदमी और जानवरों को बराबर मानो।  

सिर पर मैला ढोने वालों के लिए कहीं न्याय नहीं
जरा सोचिए, सिर पर मैला ढोने वालों के लिए न्याय क्या हो सकता है। इस मामले में न्यायपालिका से हमें गहरी निराशा हुई है। इस मामले में हमारा अनुभव बेहद दयनीय है। सिर पर मैला ढोना रुकवाने के मामले में न्यायपालिका का रवैया बेहद निराश करता है। हमें ही राज्यों से इस बारे में डाटा इकट्ठा करने के लिए दौड़ना पड़ा। (हमें 22 राज्यों की अदालतों से फरियाद करनी पड़ी)। क्योंकि राज्य सरकारें इसके आंकड़े इकट्ठा नहीं करती हैं। हमें ही बार-बार अपने भाइयों-बहनों की मैला उठाती तस्वीरें लेनी पड़ी। अदालत को यह भरोसा दिलाने के लिए यह अमानवीय प्रथा अब भी जारी है, हमें महिलाओं की मैला उठाती तस्वीरें बार-बार खींच कर सबूत के तौर पर भेजनी पड़ी। इसके बावजूद अदालत की ओर से कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ। न्यायपालिका इस घोर अमानवीय प्रथा के प्रति संवेदनहीन है। मेरी समस्या यह है कि इन सब के बीच रहते हुए मैं आदमी को आदमी का मल-मूत्र उठाते नहीं देख सकता।

इस अमानवीय काम से जुड़े आंकड़े मौजूद नहीं
क्या आपको पता है कि देश के किसी भी राज्य सरकार ने हाथ से मैला साफ करने की प्रथा से जुड़े आंकड़े इकट्ठा करने का कोई बीड़ा नहीं उठाया है। वे यह दिखाना चाहती हैं कि ऐसी कोई प्रथा नहीं है। इस काम के खिलाफ कोई मुकदमा दर्ज नहीं होता। ऐसे लोगों को कोई मुआवजा नहीं मिलता। (जबकि 2013 के कानून में हाथ से मैला साफ करने वालों को दस लाख रुपये का मुआवजा देने का प्रावधान है)

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो राज्यवार सीवर की सफाई करने के दौरान दुर्घटना में हुई मौतों का आंकड़ा इकट्ठा करता है लेकिन सेप्टिक टैंक और सीवर में घुसने के दौरान हुई मौतों का कोई राष्ट्रीय आंकड़ा इकट्ठा नहीं होता। आखिर क्यों? क्या इस काम को करने वाले लोग इंसान नहीं हैं? हम देश भर में शौचालयों, टेलीविजन और स्कूटरों का आंकड़ा इकट्ठा कर सकते हैं तो हाथ से मैला साफ करने वालों के बारे में कोई आंकड़ा क्यों नहीं इकट्ठा कर सकते ? पिछले दो साल में सेप्टिक टैंक और सीवर की सफाई करते हुए 1370 लोगों की मौत हो गई । क्या इस पर देश में कोई हंगामा मचा? क्या इस बारे में आए 2013 के कानून के बावजूद ऐसा होते रहना शर्मनाक नहीं है?

जाति  – एक अमानवीय व्यवस्था
भेदभाव के तमाम स्वरूपों में एक है जाति के आधार पर भेदभाव। एक बार किसी जाति में पैदा होकर इससे निकलना बेहद मुश्किल है। इसके खिलाफ बोलने के लिए साहस और योग्यता चाहिए। यह काम मैंने किया। मैला ढोने की ‘सुरक्षित’ व्यवस्था जैसी कोई चीज नहीं है।

पिछले कुछ दशकों में कई कमेटियां बनी हैं और इन्होंने मैला ढोने या सीवर, सेप्टिक टैंक की सफाई करने के सेफ तरीकों की सिफारिश की है। बर्वे कमेटी, मलकानी कमेटी जैसी कमेटियों ने यह काम किया है। यहां दिया गया यह बैकग्राउंड नोट यह स्थिति अच्छी तरह से समझा पाएगा। ( This background note explains this background)। कुछ कमेटियों ने मास्क लगाने की सिफारिश करते हुए कहा है कि यह स्वास्थ्य का मुद्दा है तो कुछ को मैला ढोने वालों की रीढ़ की चिंता थी। किसी भी कमेटी ने यह नहीं कहा कि किसी भी इंसान को दूसरे इंसान का मल-मूत्र साफ नहीं करना चाहिए।

क्या आप बाकी भारतवासी समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूं? आप में से जो यह कहता है कि हम बहुसंख्यक हैं और देश में जाति जैसी कोई चीज नहीं है, उनसे मैं यह पूछना चाहता हूं कि उनके पास जाति भूलने की सुविधा हो सकती है। लेकिन क्या मैं अपनी जाति भूल पाऊंगा। क्या वेजवाड़ा विल्सन जो एक मैला साफ करने वाले परिवार में पैदा हुए वेजवाड़ा विल्सन को जाति भूलने दिया जाएगा? मैं अपनी जाति नहीं भुला सकता।

सितंबर, 2013 में हाथ से मैला साफ करने का काम रोकने
और सफाईकर्मियों के पुनर्वास से जुड़ा बिल हुआ था पारित

बिल की शुरुआत में ही इसका लक्ष्य और उद्देश्य स्पष्ट कर दिया गया है। इसके मुताबिक-
यह कानून हाथ से मैला ढोने को रोजगार पर तौर पर रोकने के लिए है। कानून हाथ से मैला साफ करने वाले और उनके परिवार के पुनर्वास की व्यवस्था करता है। इसके तहत इस मामले से जुड़े सभी पहलुओं से निपटने की व्यवस्था है। यह कानून नागरिकों की बीच भाईचारा बढ़ाने और व्यक्ति की गरिमा की रक्षाकी व्यवस्था करता है। संविधान की प्रस्तावना में वर्णित लक्ष्य में यह भावना समाहित है। संविधान के अंश – तीन में गरिमापूर्ण जीवन जीने की गारंटी है, जो लोगों का मौलिक अधिकार है।

संविधान के अनुच्छेद 46 में कहा गया है कि राज्य समाज के कमजोर वर्गो खास कर अनुसूचित जाति और जनजाति की सामाजिक अन्याय से रक्षा करेगा और उन्हें हर तरह के शोषण का शिकार होने से बचाएगा।

संविधान की इस गारंटी के बावजूद शौचालयों और निकलने वाली गंदगी को हाथ से साफ करने वाली अमानवीय प्रथा जारी है। जाति व्यवस्था से निकली यह गंदगी बदस्तूर कायम है। कानून होते हुए भी देश के तमाम राज्यों में यह प्रथा जारी है। मौजूदा कानून इसे खत्म करने में नाकाम रहे हैं। अस्वच्छ शौचालय और हाथ से मैला ढोने का काम मौजूद है।

वक्त आ गया है कि इस ऐतिहासिक अन्याय को खत्म किया जाए और हाथ से मैला ढोने वाले इंसानों की गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिया जाए। उनका पुनर्वास हो ताकि उन्हें एक अच्छी जिंदगी मिले। लेकिन सरकार ऐसी योजनाएं बनाती हैं कि यह समस्या खत्म होती नहीं दिखती । मोदी सरकार की स्वच्छ भारत फ्लैगशिप योजना इस गैरकानूनी और अमानवीय काम को और बढ़ाती हुई ही दिख रही है।

(हैदराबाद में वेजवाड़ा विल्सन के भाषण का अंश। उनकी किताब हाल में ही तेलुगु में रिलीज हुई है)।

संदर्भः
1) Bezwada Wilson Wins Ramon Magsaysay Award 2016
2) 'Our fight is for the restoration of the Constitutional vision': Bezwada Wilson
3) Modi's Swachch Bharat will fail and Dalit Revolt will Spread: Bezwada Wilson
4) Swacch Bharat Abhiyan Invisibilises Caste and Glamourises the Broom: Bezwada Wilson
5) Swachh Bharat Urban-Toilet Plan 76% Behind Schedule
6) Bhim Yatra: ‘Stop Killing Us in Dry Latrines, Sewers and Septic Tanks’
7) Dignity for Those Who Clean Our Filth
8) Bhim Yatra- Golaghat(Assam) and Dimapur(Nagaland)
9) Stop Killing Us: the Bhim Yatra of India’s Manual Scavengers tells the Indian government

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Swachch Bharat Abhiyan Perpetuating Manual Scavenging: Bezwada Wilson https://sabrangindia.in/swachch-bharat-abhiyan-perpetuating-manual-scavenging-bezwada-wilson/ Mon, 03 Oct 2016 08:38:18 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/10/03/swachch-bharat-abhiyan-perpetuating-manual-scavenging-bezwada-wilson/ The 1.1 crore toilets built under the Modi government’s flagship scheme are not linked to any underground drainage system because in India’s urban and semi-urban areas, there is none. By 2019, the government has an ambitious target: construct 1,200 crore toilets nationwide.  In effect this will perpetuate manual scavenging, a humiliating practice which is illegal […]

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The 1.1 crore toilets built under the Modi government’s flagship scheme are not linked to any underground drainage system because in India’s urban and semi-urban areas, there is none. By 2019, the government has an ambitious target: construct 1,200 crore toilets nationwide.  In effect this will perpetuate manual scavenging, a humiliating practice which is illegal

Bezwada Wilson

Campaigner and Magsaysay award winner Bezwada Wilson says that the septic tanks that will house the excreta will need to be cleaned by none other than India’s manual scavengers – a beleaguered lot.

In effect, says Bezwada, the Swachch Bharat Abhiyan is welcoming the use of septic tanks, banned under the 2013 law, apart from perpetuating a practice that should be abhorrent to any civilised society.

Bezwada Wilson had been invited to several official meetings after he won the prestigious Magsaysay award this year where he has flagged this issue. So far this rational intervention has fallen on deaf years. Wilson, a passionate campaigner for the rights of manual scavengers, was himself born in Karnataka into one such family.

“I have attended all government conferences and being told that 2 crore toilets under the prime minister’s flagship Swachch Bharat scheme where all the toilets being built are dry latrines. So I ask, are we multiplying deaths through this scheme?”

[[Bezwada Wilson’s pointed criticism of the central government scheme comes at a time when it has announced that Gujarat, Andhra Pradesh, first states to be ‘free of open defecation’ in urban areas]]

“No human being should clean anyone’s shit.”
“For over 4,000 years we have cleaned this country; there must be a modern way of laying sewer lines where humans must not enter.”
“Suppose one day we resist and refuse to perform this task. What will happen?”

Caste Descriptions of a Magsaysay Award Winner
 “Last year, at the Delhi Press Club we were speaking about our Campaign, the Bhim Yatra and I overheard this. One person asking, “Who is Bezwada Wislon?” and someone replying, “Bezwada.bhangi (caste abuse) hai!”

Caste and Patriarcy: two evil sides of the same coin
 “Do you know that the scavengers servicing the Indian Railways are paid more because they are men. And in rural India, where the woman cleans the toilets and carries the shit on her head of eight to ten households,the payment is much less, because the manual scavengers are all (98 per cent) women?”

Why is this Regime telling me what to eat, what to speak and how to live?
“Why are we privileging vegetarians in this country? All reports show that 50 per cent of Indians are way below the acceptable parameters of the human development index. And yet we have a regime that is telling us what to eat, what to read, what to speak. We are beef eaters from childhood and we will continue to eat beef. That is our right.”

“What happened in Una? You say cow is your mother and then when she dies, you throw her in my face to clean up the dead remains and carcasses. Five thousand years back, you created an irrational theory of caste and even today in the 21st century a majority of Indians live by it, believe in it.”

“Caste Hindus believe in it and Dalits have also been made to believe in it . This notion of superiority and inferiority is shameful. I say treat humans on par with animals.”

No justice for the manual scavenger
“Think about what justice means to the manual scavenger. Our experience of the judiciary has been sorry and pathetic: the way the higher judiciary treated our petition to get the illegal act of manual scavenging actually stopped. We were made to run around collecting data from states (we had to approach 22 high courts) because the state governments was not collecting data and we, not the state had to perform this task. We were made to make our sisters – the same women who do this un-dignified word, pose again and again for photographic evidence to persuade the highest/higher courts that the practice still exists!! The judiciary has been insensitive to this gross and inhuman practice.”

“My actual problem is that having lived with this, I cannot see any human being made to clean human excreta.”

No Data on Manual Scavenging
“Do you know that no state government in the country has undertaken the task of even collecting data on the existing practice of manual scavenging? They simply want to pretend that it does not exist. There have been no prosecutions, no awards of compensation. (Rs 10 lakhs is supposed to be awarded from each manual scavenger as rehabilitation under the new 2013 law)”

“The National Crime Records Bureau (NCRB) collects records of all accidental deaths, state-wise, region-wise. But there are no national records collected of deaths in sewage holes and septic tanks. Why? Are we not human? We have figures for how many toilets India has, how many televisions and scooters Indians consume but we have no ‘reliable data’ on how many manual scavengers there are! We calculated 1370 deaths in two years alone, was there a national uproar?”

“It is inhuman and shameful. Are we supposed to be counting deaths of our people, in sewage holes, septic tanks and the like while the state does nothing to prevent them despite the 2013 law?”

Caste: a Reality, Caste Inhuman
“The difference between other differentiations and that of caste, is that once you are born into a caste, there is simply no way to come out. It requires courage and the ability to speak out which is what I did. There is no such thing as ‘safe’ manual scavenging.”

“Umpteen Committees have sat for decades, ever since this country was born, the Barve Committee the Malkani Committee all recommend ‘safety measures’ for manual scavenging. This background note explains this background Some have suggested masks pointing out that it’s a health issue, others suggested measures to save and preserve the spines of the scavengers! None of these committee have said that ‘No human being should clean anyone’s shit’.”

“Do you rest of you Indians understand what I am saying? Those of you who say you are in the majority and there is no caste, here is what I say: Maybe the majority has the privilege to forget caste, but when will I, Bezwada Wilson, born into scavenging be allowed to forget my caste? I cannot forget it”

“I was born off the 6000 Kolar Coal fields in Karnataka and even if I want to, Indian society does not allow me to forget my caste. Then my question to all of you is, why can’t we stand to discuss this openly?”

“Caste and patriarchy are too embedded realities of India that we in India do not want to speak about. We want to formulate plans and schemes, but in our school textbooks, do we allow this reality to enter: why are all scavengers untouchables? How have all scavengers all become of one caste? Is this not by design?”

Prevention of Deaths, not Counting of the Dead Must be a priority
“The Prevention of Deaths not the Counting of the Dead must be a priority. I must narrate this story of a five year old girl who was listening to be campaigning within a colony on the subject. She came running out of her home to listen to me.
“I asked her, ‘What do you want to become?
‘A Doctor,’ was her reply.
‘To give for free service?’ I gently probed.
‘No,’ she replied
‘To become rich?’
‘No,’
‘Then, why?

Closing her eyes, as if to shield the pain, she said, ‘My father was a manual scavenger. When my father fell into pit, he was lying on a stretcher in a hospital where my mother and I had rushed him. He could not speak. He was trying to say something to me, to us. But no doctor touched my father and he died.’
 
“What kind of doctors have we produced? Do we actually want a five year old to become a doctor to save the lives of manual scavengers or do we want to stop this activity completely?”
 
These searing questions desrve not the deafening silence they have received so far, but answers. Fast.
 


The Prohibition of Employment as Manual Scavengers and their Rehabilitation Act, 2013 was passed on September 18, 2013

In the very start, the aims and objects of the law are outlined thus:
 
“An Act to provide for the prohibition of employment as manual scavengers, rehabilitation of manual scavengers and their families, and for matters connected therewith or incidental thereto.
WHEREAS promoting among the citizens fraternity assuring the dignity of the individual
is enshrined as one of the goals in the Preamble to the Constitution;
 
AND WHEREAS the right to live with dignity is also implicit in the Fundamental Rights
guaranteed in Part III of the Constitution;
 
AND WHEREAS article 46 of the Constitution, inter alia, provides that the State shall
protect the weaker sections, and, particularly, the Scheduled Castes and the Scheduled
Tribes from social injustice and all forms of exploitation;
 
AND WHEREAS the dehumanising practice of manual scavenging, arising from the
continuing existence of insanitary latrines and a highly iniquitous caste system, still persists
in various parts of the country, and the existing laws have not proved adequate in eliminating
the twin evils of insanitary latrines and manual scavenging;
 
AND WHEREAS it is necessary to correct the historical injustice and indignity suffered
by the manual scavengers, and to rehabilitate them to a life of dignity.
 
And yet the flagship scheme of the current government will, in effect perpetuate an inhuman and illegal practice.


 
(Bezwada Wilson was speaking in Hyderabad; his book was released in Telugu recently)
 

References:

1) Bezwada Wilson Wins Ramon Magsaysay Award 2016
2) 'Our fight is for the restoration of the Constitutional vision': Bezwada Wilson
3) Modi's Swachch Bharat will fail and Dalit Revolt will Spread: Bezwada Wilson
4) Swacch Bharat Abhiyan Invisibilises Caste and Glamourises the Broom: Bezwada Wilson
5) Swachh Bharat Urban-Toilet Plan 76% Behind Schedule
6) Bhim Yatra: ‘Stop Killing Us in Dry Latrines, Sewers and Septic Tanks’
7) Dignity for Those Who Clean Our Filth
8) Bhim Yatra- Golaghat(Assam) and Dimapur(Nagaland)
9) Stop Killing Us: the Bhim Yatra of India’s Manual Scavengers tells the Indian government
 
 

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