टॉपर्स घोटाला बनाम वंचना का दंश झेलता बिहार

 

हाल ही में बिहार में हुए 'टॉपर्स घोटाला' ने वहां एक बार फिर से कथित भ्रष्टाचार और पिछड़ेपन की जमीन तैयार कर दी। यह कोई पहला मौका नहीं है जब भारत के प्रबुद्ध तबकों के लिए बिहारियों की आलोचना एक प्रिय शगल बना हो। दरअसल, यह एक लगातार प्रक्रिया है जो कालखंड के हिसाब से सिलसिलेवार होती जाती है। अजीब विडंबना है कि भारत में असहिष्णुता बढ़ने का राग अलापने वाले और बिहार की आलोचना करने वाले लोग एक ही किस्म के हैं जो भारत की श्रेष्ठता के भ्रामक और आत्म-संतु्ष्टि देने वाली धारणा के शिकार हैं और जिन्हें भारत की छवि से भिन्न रवैये वाला बिहार रास नहीं आता है।

सोशल मीडिया में तैरने वाली बिहार से संबंधित अधिकांश धारणाएं उसके पिछड़ेपन की ओट लेती है। बिहारियों का मजाक बनाने के इस तमाम शोरगुल में एक ऐसी हरकत की अनदेखी हो जाती है जो बिहार के पिछड़े स्थान की आड़ में चलती है।

बिहार के कथित पिछड़ेपन का कारण गिनाते हुए यह अक्सर दोहराया जाता है कि बिहारी लोग ऐसी उप-राष्ट्रीयता का विकास करने में विफल रहे जो उस क्षेत्र के स्थायित्व का भाव पैदा करता। ऐसे में, यह कतई आश्चर्यजनक नहीं है कि बिहार के प्रबुद्ध लोग अक्सर खुद को बिहारी कहलाना पसंद नहीं करते। यही नहीं, वे बिहारियों की आलोचना में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं।. यहां तक कि वे अपनी जड़ों को नजरअंदाज कर देते हैं और 'बिहारी' के 'लांछन' से बचने के लिए खुद को अलग परिवेश से आया हुआ बताते हैं। वे आरामदायक, लेकिन सम्मानजनक, निजी जीवन के लिए पारंपरिक सामाजिक दबाव का बहाना बनाते हैं। खुद को प्रगतिशील साबित करने के लिए वर्चस्ववादी भाषा अंग्रेजी या हिंदी का प्रयोग करते हैं। उप-राष्ट्रीय पहचान के अभाव का एक सबब यह भी है कि दोनों आधिकारिक भाषाओं- हिंदी और उर्दू में से कोई भी राज्य की आबादी के किसी एक समूह की भी मातृभाषा नहीं है। इससे उन लोगों में अलगाव और निराशा की भावना पैदा हुई जो हिंदी भाषा से जुडाव नहीं रखते थे।

बंगाल से बिहार के अलग होने के संदर्भ में एक तथ्य यह है कि सही मायने में राज्य को केंद्र में रख कर ऐसा आंदोलन नहीं चला जो सभी जाति और वर्गों को अपने दायरे में समेट लेता। बंगाल से बिहार के विभाजन के लिए जो आंदोलन चला, उसका सामाजिक आधार बहुत ही सीमित था। बिहार में सिर्फ दो किस्म की पहचान चलती है- जातीय और राष्ट्रीय। जहां जाति राज्य में प्रेरक तत्त्व थी, वहीं अखिर भारतीय राष्ट्रवादी विक्षोभ का भी यहां व्यापक प्रभाव था।

राष्ट्रीय राजनीति से अपने लगाव की वजह से बिहार ने अपने हितों की तिलांजलि दे दी। इतिहास  की जानकारी रखने वालों को यह पता है कि विभिन्न किस्म के राजनीतिक प्रयोगों के लिए वैसे बिहार को एक प्रयोगशाला के तौर पर इस्तेमाल किया गया। बाद में इन प्रयोगों को राष्ट्रीय स्तर पर अपनाया गया। यह कहने से बात नहीं बनेगी कि भारतीय राष्ट्रवाद को आगे बढ़ने का बोझ बिहार के कंधों पर था और इस क्रम में क्षेत्रीय विकास का उसका अपना एजेंडा पीछे छूट गया।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के दौर में देशी पूंजीपतियों की मंशा किसी भी किस्म की उप-राष्ट्रीयता की आकांक्षाओं को दरकिनार करने की थी। और वे अपने मकसद में बिहार जैसे राज्य में कामयाब हुए। राष्ट्रवाद के नाम पर पश्चिमी पूंजीपतियों और बिहार के राजनीतिकों के बीच बने नजदीकी रिश्ते ने स्थानीय बुर्जुआ वर्ग के उभार को रोका, जो शायद सही मायने में राज्य के कल्याण और विकास के बारे में सोचता।

राष्ट्र के प्रति स्वामिभक्ति के एवज में बिहार को शोषण और तिरस्कार के अलावा और क्या मिला? स्थायी बंदोबस्त के साथ हुए शोषण और तिरस्कार का सबसे बुरा असर बिहार जैसे राज्य पर पड़ा। इतना ही नहीं, इसे केंद्रीय सरकार के भेदभावपूर्ण रवैये का सामना न सिर्फ साम्राज्यवादी काल में, बल्कि आजादी के बाद भी करना पड़ा। हमें यह हरगिज नहीं भूलना चाहिए कि कि बजटीय आबंटन में केंद्रीय प्रशासन ने बिहार को कभी तरजीह नहीं दी। नतीजतन, बिहार में राजकाज की सांस्थानिक व्यवस्थाएं बुरी तरह चरमरा गई। साम्राज्यवादी सरकार के बिहार के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार और गलतियों को सुधारने की कोई कोशिश नहीं की गई।

बिहार की त्रासदी को बयान करते हुए किसी को भी केंद्र की 'भाड़ा समानीकरण' की नीति (1949-90) को बिल्कुल नहीं भूलना चाहिए। इस नीति ने समूचे गंगा के मैदानी इलाकों को उद्योगों से महरूम कर दिया।

गुजराती-बंबइया औद्योगिक लॉबी और दिल्ली में बैठे उनके संरक्षकों की मेहरबानी से इस नीति के जरिए इन विकसित राज्यों को खनिज-संपदा से लैस बिहार जैसे राज्य से भरपूर सबसिडी मिली। इस नीति के खत्म होने के बाद भी औद्योगिक घरानों का रवैया बिहार के प्रति नहीं बदला है और इसकी बेहतरी के लिए कोई नीति नहीं बनाई गई है।

सरकारी नीतियां पूरी तरह से उन दक्षिण और पश्चिमी भारतीय राज्यों के आर्थिक और राजनीतिक विकास के पक्ष में झुकी है, जिन्होंने अपने उप-राष्ट्रीय पहचान की बदौलत राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व हासिल कर लिया। बिहार के साथ समस्या यह रही है कि यह अपने 'सामाजिक पहचान' के उभार को 'उप-राष्ट्रीय' पहचान में तब्दील नहीं कर सका। लालू प्रसाद के काल में वंचित जमात को संगठित करने का काम तो हुआ, लेकिन इस सामाजिक आंदोलन को विकासवादी एजेंडे के साथ एक 'उप-राष्ट्रीय' आंदोलन में रूपांतरित करने का प्रयास नहीं हुआ।

इसके उलट, दक्षिण में ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन को सफलतापूर्वक 'उप-राष्ट्रीयतावादी' आंदोलन में तब्दील कर दिया गया। तमिलनाडु में दो राजनीतिक दलों के बीच तमिल पहचान को बढ़ावा देने के लिए जबर्दस्त प्रतियोगिता है। और इस क्रम में तमिलों को कई मौलिक और कामयाब नीतियों का लाभ मिलता है जो उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों को बेहतर करते हैं। केरल में भी इसी किस्म का विकास देखने को मिलता है।

अब समय आ गया है कि बिहार के लोग इस देश से अपने योगदान की कीमत मांगें। वे अपने राज्य से गहरे जुड़ाव की भावना विकसित करें जो राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने में सहायक हो। यह अपनी जड़ों से जुड़ने और उस पर गर्व करने का वक्त है।
 

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