भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने पांच दिन पहले इटावा की संकल्प रैली में कहा कि यूपी में कल्याण सिंह सरकार की ‘गुड गवर्नेंस’ की जरूरत है। लेकिन वह भूल गए कि कल्याण सिंह सरकार को खराब कानून-व्यवस्था की वजह से बर्खास्त कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।
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महज पांच दिन पहले यानी 27 अक्टूबर, 2016 को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने मौजूदा राजनीतिक दिग्गज मुलायम सिंह के गढ़ इटावा में भाषण देकर हालिया इतिहास के उस दागदार अध्याय की याद दिला दी, जो इस देश के सद्भाव में जहर घोलने के लिए कुख्यात है। इस ऐतिहासिक शहर की एक रैली में शाह ने लोगों को याद दिलाया कि उत्तर प्रदेश में सुशासन तभी आ सकता है जब यहां ओबीसी नेता कल्याण सिंह (सिंह पार्टी से रिश्ते बिगाड़ कर बाहर भी जा चुके हैं) जैसी सरकार हो। लेकिन शाह को पता नहीं कि ऐसा कह कर उन्होंने इस देश के राजनीतिक इतिहास के किन कुख्यात दिनों की याद दिला दी।
शाह रैली में यूपी में कल्याण सिंह शासन के उन दिनों की याद दिला रहे थे, जो फर्जी मुठभेड़ों के लिए कुख्यात रहा है। ( उन दिनों फर्जी मुठभेड़ों में कई दलितों और मुस्लिमों को मार गिराया गया। शासन ने समाज के सबसे कमजोर वर्ग के लोगों को निशाना बनाया।) और सबसे बड़ी बात तो यह कि कल्याण सिंह का शासन धर्मनिरपेक्ष भारत के सामूहिक शर्म का काला अध्याय बन गया।
यूपी में कल्याण सिंह के शासन के दौरान ही 6 दिसंबर,1992 अयोध्या की बाबरी मस्जिद ढहा दी गई थी। इस विध्वंस के दौरान 3000 अदर्धसैनिक बलों की टुकड़ी चुपचाप किनारे खड़ी रही ( जिस वक्त कारसेवक कानून में हाथ में लेकर बाबरी मस्जिद तोड़ रहे थे, उस दौरान उन टुकड़ियों ने कोई हस्तक्षेप नहीं किया)। कल्याण सिंह की सरकार और उनके प्रशासन ने जानबूझ कर सुप्रीम कोर्ट की अवमानना की और बाबरी मस्जिद विध्वंस की अनदेखी कर दी। ( 6 नवंबर, 1992 को जब एडवोकेट ओ पी शर्मा ने यह बताया कि सैकड़ों-हजारों की संख्या में उन्मादी भीड़ (कारसेवकों की भेष में) अयोध्या में जमा हो रही है तो भी सुप्रीम कोर्ट हालात की गंभीरता को भांप नहीं पाया। अदालत की यह स्थिति भविष्य में न्यायपालिका की काबिलियत पर शोध का विषय बन सकती है। अदालत ने कारसेवकों को गिरफ्तार करने का आदेश देने के बजाय ऑब्जर्वर नियुक्त कर दिया, जो चुपचाप बाबरी मस्जिद के विध्वंस को देखता रहा।
बाबरी मस्जिद विध्वंस की राजनीतिक फसल काटने वाले भाजपा के सभी बड़े नेता 6 दिसंबर 1992 को फैजाबाद-अयोध्या में मौजूद थे। इन लोगों ने राम मंदिर आंदोलन की फसल काटी। (हालांकि यह 400 साल पुरानी मस्जिद को नामो-निशां मिटाने का आंदोलन था। रविवार के जिस अभागे दिन यह मस्जिद गिराई जा रही थी उस दिन ये नेता उन्मादियों का हौसला बढ़ाने और खुशी जाहिर करने के लिए खुल कर सामने खड़े थे। भाजपा के तमाम बड़े नेता खुल कर कार सेवकों का हौसला बढ़ा रहे थे। और मस्जिद उनके सामने गिराई जा रही थी। मैं सोचती हूं कि आज के कॉरपोरेट घराने के टीवी चैनल मसलन – टाइम्स नाउ, हेडलाइन्स टुडे, जी न्यूज, आईबीएन, ईटीवी, आजतक इस घटना की कैसी व्याख्या करते। क्या वह इसे देश के कानून के खिलाफ अपराध मानते या फिर इसकी कुछ अलग ही व्याख्या करते?
मौजूदा भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इधर यूपी में अपराधियों को ढूंढ़ कर उन्हें जेल भेजने को लेकर काफी मुखर रहे हैं। लेकिन उनकी नजर में ये अपराधी कौन हैं। मुख्तार अफजल अंसारी के भाई, समाजवादी पार्टी आजम खान और अतीक अंसारी या फिर बीएसपी के नसीमुद्दीन सिद्दिकी। ये सभी मुसलमान हैं। साफ है कि शाह और बीजेपी की नजरों में सिर्फ मुसलमान ही अपराधी हैं। क्या कोई हिंदू अपराधी नहीं है। क्या भारत में इतने निचले स्तर की राजनीतिक बहस संभव है।
बीजेपी के अध्यक्ष कहते हैं कि उनकी पार्टी में कोई अपराधी नहीं है। बीजेपी में गुंडों के लिए कोई जगह नहीं है। हम देशभक्तों की पार्टी हैं। शाह ने तो पार्टी के लिए सरकार की ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का भी राजनीतिक लाभ लेने में कोई कोताही नहीं बरती। उनकी पार्टी का रवैया ऐसा है, जैसे देशभक्ति पर उसी का एक मात्र अधिकार हो। लिहाजा बीजेपी की रैली भी जय श्रीराम और भारत माता की जय के नारों से शुरू हुई। ऐसे में यह कल्पना करना मुश्किल नहीं है कि बीजेपी क्या चाहती है।
बहरहाल, इटावा में 27 अक्टूबर की संकल्प रैली और शाह के भाषण के बाद बीएसपी और समाजवादी पार्टी ने प्रतिक्रिया व्यक्त करने में देर नहीं की। समाजवादी पार्टी के राजेंद्र चौधरी ने शाह के बयान को बचकाना करार दिया। शाह के बयान को खारिज करते हुए चौधरी ने कहा कि नीति आयोग के गठन के बाद यूपी को मिलने वाले केंद्रीय अऩुदान में 9000 करोड़ रुपये की कटौती की जा चुकी है। साफ है कि केंद्र यूपी के साथ सौतेला व्यवहार कर रहा है। शाह और पीएम को यह बताना चाहिए कि बीजेपी को 73 सांसद (इनमें अपना दल के दो सदस्य शामिल हैं) देने वाले यूपी के लिए उन्होंने क्या किया है।
मायावती ने भी शाह को आईना दिखाने में देर नहीं की। कल्याण सिंह की सरकार के ‘गुड गवर्नेंस’ की याद दिलाते हुए उन्होंने कहा कि 1992 में खराब कानून-व्यवस्था, कोर्ट की अवमानना और गैर संवैधानिक काम के लिए कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गई थी। कल्याण सिंह की सरकार के ‘गुड गवर्नेंस’ की याद दिलाकर अमित शाह ने यूपी की 22 करोड़ जनता का अपमान किया है। अमित शाह को अपने इस बयान के लिए माफी मांगनी चाहिए।
मायावती ने 1992 के दौर याद दिलाते हुए कहा कि बीजेपी के पास गुड गवर्नेंस का कोई उदाहरण नहीं है और इस संदर्भ में यूपी में कल्याण सिंह की सरकार की याद दिला कर उसने खुद को एक्सपोज ही किया है। बीजेपी को यह याद रखना चाहिए कि 1992 में बाबरी विध्वंस के आरोप में कल्याण सिंह की सरकार बर्खास्त कर दी गई थी और राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था।
शाह का बयान इस साल जनवरी में आई उन रिपोर्टों के नौ महीनों के बाद आया है, जिनमें कहा गया था कि यूपी के मुख्यमंत्री रह चुके कल्याण सिंह को राज्य में पार्टी की कमान सौंपी जा सकती है। कल्याण सिंह इस वक्त राजस्थान के गवर्नर हैं।
अगले साल चुनाव के बाद यूपी में 21वीं सरकार बनेगी। 26 जनवरी, 1950 के बाद यूपी में अब तक नौ बार राष्ट्रपति शासन लागू हो चुका है।पहली बार 1970 में 17 दिनों के लिए राष्ट्रपति शासन लागू हुआ था। यूपी की दो महिला प्रधानमंत्री हुई हैं। पहली सुचेता कृपलानी, जिनका शासन 1963 से 1967 तक था। दूसरी मायावती, जो चार बार इस राज्य की मुख्यमंत्री रहीं। पहली बार 1995 ( 137 दिनों के लिए), 1997 में (184 दिनों के लिए) 2002 में ( एक साल 118 दिनों के लिए) और 2007 में ( 4 साल 137 दिनों के लिए)। 2003 में यूपी विधानसभा के स्पीकर केसरी नाथ त्रिपाठी ने जोड़-तोड़ कर सत्तारुढ़ गठबंधन से बीएसपी के 15 विधायकों को तोड़ने में अहम भूमिका निभाई। (मायावती इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची, जहां चीफ जस्टिस एम एम पुंची, जस्टिस के टी थॉमस और जस्टिस एन श्रीनिवासन के फैसले के बाद मुलायम सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी। इसे बीजेपी पीछे से सपोर्ट कर रही थी। )
पिछड़ों और मुसलमानों के मसीहा की छवि लिये मुलायम सिंह 1989 में यूपी के मुख्यमंत्री थे। (एक साल 201 दिन के लिए)। इसके बाद वह बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद 1993 में मुख्यमंत्री बने ( 1 साल 201 दिन के लिए)। 2003 में भी ( 3 साल 257 दिनों के लिए ) भी वह सीएम बने। इसके बाद उन्होंने कमान बेटे अखिलेश सिंह यादव को सौंप दी। अखिलेश भारी मतों से जीत कर 15 मार्च 2012 को सत्ता में आए।
1977 तक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) का यूपी में कोई मुकाबला नहीं था। सिर्फ 1968 और 1970 में चौधरी चरण सिंह (भारतीय क्रांति दल) का थोड़े दिनों तक शासन रहा। इमरजेंसी के बाद भी कांग्रेस की सरकार बनी। पहली वीर बहादुर सिंह की 1988 में और दूसरी 1989 में एनडी तिवारी के नेतृत्व में। लेकिन इसके बाद मंडल आंदोलन से पैदा हुए पिछड़े उभार और फिर 1992 के बाबरी विध्वंस के बाद यूपी का गढ़ कांग्रेस के हाथ से निकल गया। यूपी में बीजेपी की सरकार चार बार बनी। पहली बार कल्याण सिंह के नेतृत्व में 1999 में ( 2 साल 52 दिन)। इसके बाद रामप्रकाश गुप्ता के नेतृत्व में 1999-2000 तक। ( यह सरकार 351 दिन चली।)। इसके बाद राजनाथ सिंह की सरकार 2000 में बनी ( यह सरकार 1 साल 131 दिन चली)। बीजेपी मंडल राजनीति के अंतर्विरोध और रामजन्मभूमि की विभाजनकारी राजनीति के बाद ही यूपी में पैर जमा सकी। 2014 के लोकसभा चुनाव में इसे भारी सफलता मिली और इसने 80 में से 73 सीटें जीत ली।
हाल के ओपिनियन पोल (सितंबर, 2016 के) बताते हैं कि यूपी चुनाव में बीजेपी को हल्की बढ़त हासिल है। साफ है कि इसे देख कर बीजेपी राज्य में तेज ध्रुवीकरण की राजनीति पर उतर आई है ताकि अपनी बढ़त को और मजबूत बना सके। अब देखना बाकी है कि बीजेपी की इस कोशिश का राज्य की 22 करोड़ आबादी पर क्या असर पड़ता है। राज्य की यह आबादी विविधता से भरपूर है और उसके पास क्षेत्रीय राजनीतिक विकल्प भी मौजूद हैं। अगर विभाजनकारी राजनीति के खिलाफ बहुजन राजनीति मजबूत होकर खड़ी हुई तो भारत की राजनीति में दखल और आतंक के इस मौजूदा दौर को झटका लगेगा। कम से कम थोड़े समय के लिए इसका जोर तो कम हो ही जाएगा।