Mayank Saxena | SabrangIndia News Related to Human Rights Tue, 06 Dec 2016 07:40:13 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.2.2 https://sabrangindia.in/wp-content/uploads/2023/06/Favicon_0.png Mayank Saxena | SabrangIndia 32 32 एक देश की मौत – भाग 1 https://sabrangindia.in/eka-daesa-kai-maauta-bhaaga-1/ Tue, 06 Dec 2016 07:40:13 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/12/06/eka-daesa-kai-maauta-bhaaga-1/ First Published on: December 14, 2015 Image Courtesy: frontline.in वो एक दोपहर थी, जब अचानक शाम का अख़बार दोपहर में छप कर आ गया था, टीवी सेट्स के आगे आस-पास के घरों के लोग भी आ कर जुटने लगे थे और बूढ़े अपने ट्रांजिस्टर ट्यून करने लगे थे। अचानक तेज़ शोर सुनाई दिया, छतों पर […]

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First Published on: December 14, 2015

Image Courtesy: frontline.in
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वो एक दोपहर थी, जब अचानक शाम का अख़बार दोपहर में छप कर आ गया था, टीवी सेट्स के आगे आस-पास के घरों के लोग भी आ कर जुटने लगे थे और बूढ़े अपने ट्रांजिस्टर ट्यून करने लगे थे।

अचानक तेज़ शोर सुनाई दिया, छतों पर लोग आ गए थे और प्रभातफेरी की टोली, जो कि पिछले 3 साल से हर रोज़ सुबह ‘जय श्री राम’ गाते हुए घर पर आती थी, दोपहर के वक़्त निकल आई थी। ख़बर की पुष्टि के लिए घर के सदस्य खासकर मामा और उनके दोस्त, लगातार पता कर रहे थे। प्रभातफेरी की टोली के ऊपर कुछ घरों से बाक़ायदा फूल बरसाए गए और कई घरों में उनको मिठाई खिलाई जा रही थी, शरबत बंट रहा था। आखिर पिछले तीन सालों में उन्होंने ही तो पूरे इलाके के हिंदुओं को बताया था कि एक मस्जिद का गिरना, देश के आगे बढ़ने के लिए कितना ज़रूरी था। तारीख शायद उसके कुछ साल बाद मुझे याद रहने लगी, क्योंकि देश उस तारीख को कभी भूल भी नहीं सकेगा।

वो 1992 की 6 दिसम्बर थी और रविवार था, सो स्कूल की छुट्टी थी। सुबह से दोपहर का एकसूत्रीय कार्यक्रम, उस किराए के मकान के साझा आंगन में क्रिकेट खेलना था। मैं 8 साल का था और इतने सारे लोगों को गाता-चिल्लाता देख कर रोमांचित हो जाता था, लगता था कि वाकई कुछ कमाल हो गया है। और फिर पूरे मोहल्ले को एक साथ ऐसा जोश में सिर्फ क्रिकेट मैच के दौरान ही देखा था। गली साथ में एक मुस्लिम दोस्त भी कभी-कभी क्रिकेट खेला करता था। उस दिन वह गायब था। मोहल्ले में 95 फीसदी आबादी सिख और हिंदू थी। 84 के सिख दंगों में मेरे घर वालों ने मोहल्ले के सिखों की सड़क पर पहरा देकर रक्षा की थी। लेकिन ये माहौल अलग था। इतना अलग कि समझने में ही बड़ा होना पड़ गया।


Image Courtesy:Pablo Bartholomew

प्रभातफेरी के प्रमुख एक मल्होत्रा जी थे। मल्होत्रा जी संभवतः विहिप से जुड़े थे और उनका किसी चीज़ का व्यापार था। बहुत ईमानदार आदमी नहीं थे और उनके बारे में लोग दबी ज़ुबान से तमाम बातें करते थे, लेकिन जब से संघ और विहिप का झंडा लेकर, प्रभात फेरी और मुगलों के खिलाफ ऐतेहासिक नाटकों का मंचन शुरु करवाया था, अचानक से इलाके के सम्मानित आदमी हो गए थे।

साथ में मोहल्ले के तमाम वह लड़के रहते थे, जो अमूमन नुक्कड़ पर खड़े हो कर लड़कियों को छेड़ते नज़र आते थे या फिर हिंसक मारपीट और गुंडागर्दी में संलिप्त रहते थे। उनमें से कई के नाम आज भी ठीक से याद हैं। इन लड़कों से वैसे घर वाले बातचीत करने को भी मना करते थे, लेकिन जब प्रभातफेरी में आते या जुलूस में आते, तो घर वालों को उनका सत्कार करने में भी कोई दिक्कत नहीं होती थी। उस दिन तो कुछ खास ही था, अयोध्या से ख़बर आने वाली थी। अयोध्या कहां थी, ये नहीं पता था, लेकिन घर में फ्रिज, टीवी और अल्मारी पर कुछ स्टिकर [Rammandir-B] चिपके थे, जो बीजेपी के कार्यकर्ता (कई घर में भी थे और हैं) दिया करते थे। विहिप के मेले और रथयात्राएं लगती थी, जहां भी ये सब सामान बेचा जाता था। पुराने शटर वाले टीवी पर पीले रंग का स्टिकर लगा था और अल्मारी पर लाल रंग का, दोनों में बाल खोले, धनुष लिए राम की रौद्र रूप में तस्वीरें थी और पीछे एक मंदिर था। अयोध्या के बारे में हम बच्चों को सिर्फ इतना पता था कि वहां पर यह मंदिर कभी था और अब फिर से यह वहां बनेगा। उस तस्वीर को देख कर काफी रोमांच था क्योंकि इमामबाड़े के अलावा कोई ऐतेहासिक इमारत कभी देखी ही नहीं थी। इतिहास से वास्ता, सिर्फ पौराणिक कहानियों के ज़रिए था और घरवाले अमूमन पढ़ने के लिए डांटते थे लेकिन ऐसे मौकों पर किसी को फर्क नहीं पड़ता था कि पढ़ाई हो रही है या नहीं…फिर संगीत का इस्तेमाल होता था, जिसमें मुझे बचपन से ही रुचि थी।


Image Courtesy: Pablo Bartholomew

तो उस रोज़ इंतज़ार करते – करते अचानक टीवी और रेडियो पर ख़बर आई और तब तक शाम का अख़बार दोपहर में ही आ गया। घटिया से उस अख़बार को ले ले कर लोग माथे से लगाने लगे। अचानक से लोग मिठाइयां बांटने लगे…लेकिन तभी कुछ और हुआ….लोग छतों पर और आंगन में आ गए…थालियां पीटने लगे…घंट बजाने लगे…और शंखों की आवाज़ गूंजने लगी। रोमांच सा था….हम सब 8-10 साल के बच्चे थे और लग रहा था [mqdefault] कि क्या हुआ है आखिर…लेकिन एक बात जो ठीक उसी वक्त नोटिस की थी…वह ये थी कि मोहल्ले के दो-तीन मुस्लिम घरों पर ताला लग गया था, जो कई दिनों तक नहीं खुला था। वो दोस्त उसके बाद कई दिन तक क्रिकेट खेलने नहीं आय़ा था। ये लखनऊ था और यहां के हिंदू कभी मुस्लिमों से ऐसी नफ़रत नहीं करते थे। गली का खेल बंद हो गया था और राजनीति का खेल शुरु हो गया था। उन घंटों, थालियों और शंखों की आवाज़ को अब याद करता हूं तो डर लगता है….उनको कभी सुनना नहीं चाहता हूं…रात को जब मुल्क अंधेरे की ओर जा रहा था, हमारे घरों में घी के दिए जलाए जा रहे थे…पटाखे फो़ड़े जा रहे थे…किसलिए…इसलिए कि इंसान, भगवान के नाम पर फिर से इंसान नहीं रहा था। मैं खेल रहा था, सोच रहा था कि इस साल तो दो बार दीवाली मन गई है…और किसी ने आ कर बताया भी था कि कल स्कूल बंद हैं…दरअसल पूरा शहर बंद होने वाला था…पूरा देश…दिमाग तो बंद हो ही चुके थे….हम मासूमों को भी एक अंधे कुएं में अपने ही भाईयों से युद्ध करने के लिए फेंका जा चुका था। हम ही अर्जुन थे, हम ही दुर्योधन और कृष्ण अब द्वारका से दिल्ली में राज करने आ गए हैं….कृष्ण ने ही तो युद्ध करवाया था न अर्जुन से?

इस वक्त भी मेरे सिर में वो घंटों-शखों का शोर गूंज रहा है…बेबसी अब शर्मिंदगी में बदल गई है…कभी परिवार को समझा पाया तो समझाऊंगा कि मंदिर या मस्जिद के बन जाने से इंसानियत का मुस्तकबिल नहीं बदलता है, सिर्फ सियासत की शक्ल बदलती है…उस रोज़ बजती थालियों में कितनी बार ठीक से खाना आया? कितनी बार उन घरों में घी के दीये जलाने का कोई असल मौका आया….राम खुद अयोध्या में सर्दियों में तंबू में ठिठुरते रहे और उनके नाम पर देश तोड़ने वाले महलों में हैं…उस रात दीयों की रोशनी के बाद बहुत अंधेरा था, टीवी सेट खुले थे और हिंसा की खबरें शुरु हो गई थी….

शेष अगली किस्त में…

मयंक सक्सेना पूर्व टीवी पत्रकार और वर्तमान स्वतंत्र कवि-लेखक हैं।

(यह लेख सर्वप्रथम  सितम्बर 1, 2015 को www.hillele.org पर प्रकाशित हुआ था।)


IMAGE STORY: Babri Masjid demolition

IN FACT

 

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फोटोशॉप से पगड़ी का रंग बदला जा सकता है, भगत सिंह के विचार नहीं https://sabrangindia.in/phaotaosaopa-sae-pagadai-kaa-ranga-badalaa-jaa-sakataa-haai-bhagata-sainha-kae-vaicaara/ Wed, 23 Mar 2016 10:11:09 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/03/23/phaotaosaopa-sae-pagadai-kaa-ranga-badalaa-jaa-sakataa-haai-bhagata-sainha-kae-vaicaara/   भगत सिंह होते, तो संघ के खिलाफ़ होते   उस कुर्बानी और उस नायकत्व को कैसे परिभाषित किया जा सकता है, जिसको आज वह भी अपना नायक और प्रेरणा बता रहे हों, जिनका भगत सिंह के विचार से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। दरअसल भगत सिंह की महानता यही है, लेकिन उनकी सामयिक […]

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भगत सिंह होते, तो संघ के खिलाफ़ होते

 
उस कुर्बानी और उस नायकत्व को कैसे परिभाषित किया जा सकता है, जिसको आज वह भी अपना नायक और प्रेरणा बता रहे हों, जिनका भगत सिंह के विचार से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है। दरअसल भगत सिंह की महानता यही है, लेकिन उनकी सामयिक प्रासंगिकता वह कतई नहीं, जिसको संघ और उसे जुड़े संगठनों की भगत सिंह को अपने रंग में रंगने की कोशिश की वजह बता दिया जाए। हां, यक़ीनन भगत सिंह प्रासंगिक हैं और उनकी ही वजह से हैं, जो उनको भुनाने की सबसे ज़्यादा कोशिश कर रहे हैं, हालांकि भगत सिंह के विचारों के सबसे ज़्यादा खिलाफ़ भी वही हैं। संघ परिवार और उसके अनुषांगिक संगठन जैसे कि एबीवीवी, विश्व हिंदू परिषद् और बजरंग दल समेत बीजेपी, पिछले कुछ सालों से भगत सिंह को (फोटोशॉप द्वारा उनकी पगड़ी का रंग बदल कर) अपने पोस्टरों पर इस्तेमाल कर रहे हैं। लेकिन क्या सिर्फ किसी व्यक्ति की तस्वीर इस्तेमाल कर के, बिना उसके विचारों को अपनाए और उनको आत्मसात किए, आप किसी को नायक मान लेते हैं? दरअसल नहीं, क्योंकि भगत सिंह के नायकत्व का अहम हिस्सा, उनका फांसी पर झूल जाना ही नहीं है, बल्कि उनके विचार हैं। वह विचार ही थे, जिन के कारण वह फांसी पर हंसते हुए चढ़ गए। वरना भगत सिह या किसी आम अपराधी की फांसी में क्या अंतर होता, इस बारे में अदालत में जिरह के दौरान ही भगत सिंह ने बेहद साफ शब्दों में स्पष्ट किया था, जिसकी भावना को समझा जाए तो;

जब तक अभियुक्त की मनोभावना का पता न लगाया जाए, उसके असली उद्देश्य का पता ही नहीं चल सकता। यदि उद्देश्य को पूरी तरह भुला दिया जाए, तो किसी के साथ न्याय नहीं हो सकता, क्योंकि उद्देश्य को नजरों में न रखने पर संसार के बड़े-बड़े सेनापति भी साधारण हत्यारे नजर आएंगे। सरकारी कर वसूल करने वाले अधिकारी चोर, जालसाज दिखाई देंगे और न्यायाधीशों पर भी कत्ल करने का अभियोग लगेगा।

वर्तमान निजाम के लिए इससे अहम कोई सीख नहीं हो सकती, साथ ही आरएसएस और उनके संतान संगठनों के लिए भी कि सिर्फ हिंसा देख कर, उसका उद्देश्य समझे बिना ही युवाओं को वोट बैंक बनाने और धर्मांधता के साथ खड़े करने के लिए वह भगत सिंह का फौरी इस्तेमाल तो कर सकते हैं…लेकिन यह लम्बे समय तक नहीं चल सकता है। कांग्रेस-बीजेपी समेत तमाम राज्यों की सरकारों ने भगत सिंह के नाम को ज़रूर इस्तेमाल करने की कोशिशें की, लेकिन कभी भी भगत सिंह को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं किया। आरएसएस से ही जुड़ा शैक्षणिक संगठन विद्या भारती, ऐसी तमाम पाठ्य पुस्तकें तैयार करता रहा है, जिनमें छोटे-छोटे बच्चों को एक धर्म विशेष के देवी-देवता, कर्मकांडों और अंधविश्वासों ही नहीं, कुकर्मी बाबाओं और धर्मगुरुओं तक को महापुरुष कह कर पढ़ाया जा रहा है। लेकिन जिस भगत सिंह को यह युवाओं के बीच अपने लिए ब्रांड एम्बेसडर बना कर पेश कर रहे हैं, उनके लिखे या कहे गए शब्दों को वह इस में शामिल नहीं करेंगे। इसके पीछे एक बड़ा कारण है, कि जो कुछ भगत सिंह ने दस्तावेजी तौर पर कहा और लिखा है, वह संघ के एजेंडे से बिल्कुल मेल नहीं खाता है। संघ एक धर्म विशेष की कट्टरता को राजनैतिक और सामाजिक तौर पर मान्य जीवन प्रणाली बनाने के षड्यंत्र में लगा है, जबकि भगत सिंह प्रामाणिक रूप से, जेल में रहते हुए ही, एक लेख लिख कर, यह सार्वजनिक कर चुके थे कि वह नास्तिक थे। यह विश्व प्रसिद्ध लेख, मैं नास्तिक क्यों हूं 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार द पीपल में प्रकाशित हुआ, इसमें वह लिखते हैं;

अपने मत के पक्ष में तर्क देने के लिये सक्षम होने के वास्ते पढ़ो। मैंने पढ़ना शुरू कर दिया। इससे मेरे पुराने विचार व विश्वास अद्भुत रूप से परिष्कृत हुए। रोमांस की जगह गम्भीर विचारों ने ली ली। न और अधिक रहस्यवाद, न ही अन्धविश्वास। यथार्थवाद हमारा आधार बना। मुझे विश्वक्रान्ति के अनेक आदर्शों के बारे में पढ़ने का खूब मौका मिला। मैंने अराजकतावादी नेता बाकुनिन को पढ़ा, कुछ साम्यवाद के पिता मार्क्स को, किन्तु अधिक लेनिन, त्रात्स्की, व अन्य लोगों को पढ़ा, जो अपने देश में सफलतापूर्वक क्रान्ति लाये थे। ये सभी नास्तिक थे। बाद में मुझे निरलम्ब स्वामी की पुस्तक सहज ज्ञानमिली। इसमें रहस्यवादी नास्तिकता थी। 1926 के अन्त तक मुझे इस बात का विश्वास हो गया कि एक सर्वशक्तिमान परम आत्मा की बात, जिसने ब्रह्माण्ड का सृजन, दिग्दर्शन और संचालन किया, एक कोरी बकवास है। मैंने अपने इस अविश्वास को प्रदर्शित किया। मैंने इस विषय पर अपने दोस्तों से बहस की। मैं एक घोषित नास्तिक हो चुका था।

इससे सिर्फ ये ही स्पष्ट नहीं होता है कि भगत सिंह नास्तिक थे, बल्कि यह भी साफ हो जाता है कि वह मार्क्सवादी क्रांतिकारियों से प्रभावित साम्यवादी थे और कम से कम इसलिए आरएसएस के लिए वह आदर्श नहीं हो सकते हैं। अगर आरएसएस उनको आदर्श भी मानता है और साम्यवादियों को देशद्रोही भी कहता है, तो इससे ही आरएसएस के दोहरे मापदंड या दिमागी भ्रम स्पष्ट हो जाता है। क्या वाकई यह दिमागी भ्रम है? नहीं, ऐसा नहीं है लेकिन हम इसके बारे में लेख में आगे बात करेंगे। फिलहाल संघ के भगत सिंह को भगवा पगड़ी पहनाने के दावे पर बात करते हैं। संघ की ओर से भगत सिंह को ब्रांड बना कर, उस पर कब्ज़ा करने की मुहिम में उसके छात्रों के दिमाग को भ्रष्ट करने वाले ब्राह्मणवादी संगठन, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् को लगाया गया है। एबीवीपी पिछले कुछ सालों से अपने पोस्टर और प्रचार सामग्री में प्रचार तो उग्र हिंदुत्व का करती है, लेकिन तस्वीर भगत सिंह की इस्तेमाल करती है, जिसे ज़ाहिर है कि भगत सिंह को लेकर दुष्प्रचार ही माना जाएगा। क्योंकि यह दीगर बात है कि भगत सिंह न केवल धर्म के खिलाफ थे, बल्कि धर्म की राजनीति के तो हर तरह से खिलाफ़ थे। अपने एक अहम लेख में वह लिखते हैं;

बात यह है कि क्या धर्म घर में रखते हुए भी, लोगों के दिलों में भेदभाव नहीं बढ़ता? क्या उसका देश के पूर्ण स्वतंत्रता हासिल करने तक पहुँचने में कोई असर नहीं पड़ता? इस समय पूर्ण स्वतंत्रता के उपासक सज्जन धर्म को दिमागी गु़लामी का नाम देते हैं। वे यह भी कहते हैं कि बच्चे से यह कहना कि ईश्वर ही सर्वशक्तिमान है, मनुष्य कुछ भी नहीं, मिट्टी का पुतला है, बच्चे को हमेशा के लिए कमज़ोर बनाना है। उसके दिल की ताक़त और उसके आत्मविश्वास की भावना को ही नष्ट कर देना है। लेकिन इस बात पर बहस न भी करें और सीधे अपने सामने रखे दो प्रश्नों पर ही विचार करें तो हमें नज़र आता है कि धर्म हमारे रास्ते में एक रोड़ा है। मसलन हम चाहते हैं कि सभी लोग एक-से हों। उनमें पूँजीपतियों के ऊँच-नीच की छूत-अछूत का कोई विभाजन न रहे। लेकिन सनातन धर्म इस भेदभाव के पक्ष में है। बीसवीं सदी में भी पण्डित, मौलवी जी जैसे लोग भंगी के लड़के के हार पहनाने पर कपड़ों सहित स्नान करते हैं और अछूतों को जनेऊ तक देने की इन्कारी है। यदि इस धर्म के विरुद्ध कुछ न कहने की कसम ले लें तो चुप कर घर बैठ जाना चाहिये, नहीं तो धर्म का विरोध करना होगा। लोग यह भी कहते हैं कि इन बुराइयों का सुधार किया जाये। बहुत खूब! अछूत को स्वामी दयानन्द ने जो मिटाया तो वे भी चार वर्णों से आगे नहीं जा पाये। भेदभाव तो फिर भी रहा ही। गुरुद्वारे जाकर जो सिख राज करेगा खालसागायें और बाहर आकर पंचायती राज की बातें करें, तो इसका मतलब क्या है?
                                (मई, 1928 के किरती’ में यह लेख छपा।)

इस लेख के और भी कई हिस्से हैं, जो स्पष्ट करते हैं कि भगत सिंह, धर्म के दर्शन के ही विरोध में थे। यह उनकी आंतरिक सोच और मंथन से उपजा सत्य था। यह सत्य उनका नितांत निजी हो सकता है, लेकिन आरएसएस का सच तो सार्वजनिक है कि वह धर्म और उसके दर्शन पर आधारित संगठन है, जो धर्म विशेष के राज की पैरवी ही नहीं करता, सबको एक जैसा भी बनाना चाहता है। यही नहीं, भगत सिंह संघ के दूसरे सरसंघचालक के विचारों का भी खंडन करते दिखाई देते हैं। गोलवलकर ने स्पष्ट रूप से (श्री गुरु जी समग्र में) वर्ण व्यवस्था और मनुस्मृति को ही अपना संविधान माना है और जाति प्रथा का खात्मा करने के संविधान के उद्देश्य का विरोध किया है। हालांकि बाद में राजनीति में वर्चस्व स्थापित करने के लिए संघ ने दलितों को हिंदू धर्म का हिस्सा बताने का ढोंग ज़रूर किया, लेकिन उसके लिए भी वह अछूतोद्धार जैसा अश्लील शब्द इस्तेमाल करता रहा। यही नहीं, संघ में कोई भी सरसंघचालक दलित तो छोड़िए, पिछड़ी जाति से भी नहीं आता। जून, 1928 के ‘किरती’ में विद्रोही नाम से प्रकाशित एक लेख में पंडित मदन मोहन मालवीय तक पर प्रश्न करते हुए, भगत सिंह कहते हैं;

कुत्ता हमारी गोद में बैठ सकता है। हमारी रसोई में निःसंग फिरता है, लेकिन एक इन्सान का हमसे स्पर्श हो जाए तो बस धर्म भ्रष्ट हो जाता है। इस समय मालवीय जी जैसे बड़े समाज-सुधारक, अछूतों के बड़े प्रेमी और न जाने क्या-क्या पहले एक मेहतर के हाथों गले में हार डलवा लेते हैं, लेकिन कपड़ों सहित स्नान किये बिना स्वयं को अशुद्ध समझते हैं! क्या खूब यह चाल है! सबको प्यार करनेवाले भगवान की पूजा करने के लिए मन्दिर बना है लेकिन वहाँ अछूत जा घुसे तो वह मन्दिर अपवित्र हो जाता है! भगवान रुष्ट हो जाता है! घर की जब यह स्थिति हो तो बाहर हम बराबरी के नाम पर झगड़ते अच्छे लगते हैं? तब हमारे इस रवैये में कृतघ्नता की भी हद पाई जाती है। जो निम्नतम काम करके हमारे लिए सुविधाओं को उपलब्ध कराते हैं उन्हें ही हम दुरदुराते हैं। पशुओं की हम पूजा कर सकते हैं, लेकिन इन्सान को पास नहीं बिठा सकते!

भगत सिंह के लेख में सिर्फ सवर्णवादी रवैये पर ही सवाल नहीं है, बल्कि दलितों के संगठनबद्ध होने, अपने राजनैतिक संगठन बनाने और संसाधनों में बराबर अधिकार मांगने की लड़ाई का भी समर्थन है। जबकि रोहित वेमुला के ही उदाहरण से हम संघ और भाजपा का दलितों के प्रति रवैया समझ सकते हैं। भगत सिंह आज नहीं हैं, लेकिन आरक्षण का विरोध करने और फिर विरोध न करने का नाटक करने वाले मोहन भागवत और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए उनकी ओर से 85 साल पहले ही संदेश दे दिया गया था। इसी लेख में भगत सिंह कहते हैं;

लेकिन यह काम उतने समय तक नहीं हो सकता जितने समय तक कि अछूत कौमें अपने आपको संगठित न कर लें। हम तो समझते हैं कि उनका स्वयं को अलग संगठनबद्ध करना तथा मुस्लिमों के बराबर गिनती में होने के कारण उनके बराबर अधिकारों की माँग करना बहुत आशाजनक संकेत हैं। या तो साम्प्रदायिक भेद को झंझट ही खत्म करो, नहीं तो उनके अलग अधिकार उन्हें दे दो। कौंसिलों और असेम्बलियों का कर्तव्य है कि वे स्कूल-कालेज, कुएँ तथा सड़क के उपयोग की पूरी स्वतन्त्रता उन्हें दिलाएं। जबानी तौर पर ही नहीं, वरन साथ ले जाकर उन्हें कुओं पर चढ़ाएं। उनके बच्चों को स्कूलों में प्रवेश दिलाएं। लेकिन जिस लेजिस्लेटिव में बालविवाह के विरुद्ध पेश किए बिल तथा मजहब के बहाने हाय-तौबा मचाई जाती है, वहाँ वे अछूतों को अपने साथ शामिल करने का साहस कैसे कर सकते हैं? 
 
दरअसल भगत सिंह जानते थे कि न केवल हालात तब बदतर थे, आज़ादी के बाद भी जिनके हाथ में देश चलाने के अधिकार जाने थे, वह भी इन्हीं हालात को बरक़रार रखना चाहते थे। भगत सिंह ने अपने एक लेख में साम्प्रदायिकता पर विस्तृत चर्चा की थी। यह लेख भी संभवतः जेल से ही लिखा गया था,

ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है। इन ‘धर्मोंने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन धर्मजनोंपर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है।  
(प्रस्तुत लेख जून, 1928 के किरतीमें छपा – साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज)

इस लेख में आगे की ओर बढ़ें, तो भगत सिंह एक बेहद अहम बात करते हैं, वह यह है कि खासकर श्रमिक और सर्वहारा के साथ युवाओं को वर्ग चेतना या वर्ग संघर्ष को समझना बेहद ज़रूरी है। वर्ग चेतना के विकास से, साम्प्रदायिकता का शैतान भस्म किया जा सकता है। वर्ग चेतना का अर्थ यह है कि हम यह समझें कि समाज में हमारे असल शत्रु, किसी धर्म विशेष के लोग नहीं हैं, बल्कि पूंजीपति हैं। यदि आज के हालात में देश को देखें, तो साम्प्रदायिक शक्तियां, पूंजीवादी शक्तियों के कंधों पर बैठ कर, उनकी ही पूंजी से सत्ता में आई हैं। इससे ही साफ है कि भगत सिंह देश के मुस्तकबिल को भी कितना समझते थे। उनकी कही बात आज भी प्रासंगिक है, वह इसी लेख में कहते हैं;

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है। गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं। इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों में लेने का प्रयत्न करो। इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी।
(साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज)

लेकिन भगत सिंह यह भी बखूबी समझते थे कि देश की तरक्की में न सिर्फ साम्प्रदायिकता और धार्मिक कट्टरपंथ रोड़ा है, बल्कि आने वाले समय में आज़ादी के मायने सिर्फ वोट डालने के अधिकार के तौर पर बचे रह सकते हैं। भगत सिंह ने धार्मिक कट्टरता पर गहरा प्रहार किया, इतना तीखा कि धर्म के विचार की ही समाप्ति की बात कर डाली;

धार्मिक अन्धविश्वास और कट्टरपन हमारी प्रगति में बहुत बड़े बाधक हैं। वे हमारे रास्ते के रोड़े साबित हुए हैं और हमें उनसे हर हालत में छुटकारा पा लेना चाहिए। ‘'जो चीज आजाद विचारों को बर्दाश्त नहीं कर सकती उसे समाप्त हो जाना चाहिए।'’ इसी प्रकार की और भी बहुत सी कमजोरियाँ हैं जिन पर हमें विजय पानी है। हिन्दुओं का दकियानूसीपन और कट्टरपन, मुसलमानों की धर्मान्धता तथा दूसरे देशों के प्रति लगाव और आम तौर पर सभी सम्प्रदायों के लोगों का संकुचित दृष्टिकोण आदि बातों का विदेशी शत्रु हमेशा लाभ उठाता है।
(11, 12, 13 अप्रैल, 1928 को हुए नौजवान भारत सभा के सम्मेलन के लिए तैयार किया गया सभा का घोषणापत्र)

सोचिए, क्या आरएसएस भगत सिंह को अपनाते वक़्त उनके इन विचारों को अपना सकता है? जवाब, हां में हो ही नहीं सकता…सिर्फ इतना ही नहीं, भगत सिंह, देश के दैवीकरण के ख़तरे को भली भांति समझते हैं। हाल ही में ‘भारत माता विवाद’ को लेकर आरएसएस और बीजेपी की सरकार, जिस तरह का कट्टर रवैया अपना रही है, उसका भी जवाब भगत सिंह के ही लिखे में मिल जाता है। ऐसा जवाब, जिसे आरएसएस भगत सिंह के साथ स्वीकार नहीं करना चाहेगी। हां, भले ही वह भगत सिंह की तस्वीर छाप ले, लेकिन क्या वह भारत माता के विचार को कोरी भावुकता मानेगी? लेकिन भगत सिंह इस विचार को ही कोरी भावुकता मानते थे। अपने जुलाई 1928 के किरती में प्रकाशित लेख में वह कांग्रेस के नेताओं द्वारा भारत माता की अभ्यर्थना पर तंज करते हुए लिखते हैं;

आप एक कवि हैं। कवित्व आपके विचारों में सभी जगह नजर आता है। साथ ही यह धर्म के बहुत बड़े उपासक हैं। यह'शक्तिधर्म चलाना चाहते हैं। यह कहते हैं, “इस समय हमें शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है।वह शक्तिशब्द का अर्थ केवल भारत के लिए इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन उनको इस शब्द से एक प्रकार की देवी का, एक विशेष ईश्वरीय प्राप्ति का विश्वास है। वे एक बहुत भावुक कवि की तरह कहते हैं —

“For in solitude have communicated with her, our admired Bharat Mata, And my aching head has heard voices saying… The day of freedom is not far off.” ..Sometimes indeed a strange feeling visits me and I say to myself – Holy, holy is Hindustan. For still is she under the protection of her mighty Rishis and their beauty is around us, but we behold it not.

अर्थात् एकान्त में भारत की आवाज मैंने सुनी है। मेरे दुखी मन ने कई बार यह आवाज सुनी है कि आजादी का दिन दूर नहीं'…कभी कभी बहुत अजीब विचार मेरे मन में आते हैं और मैं कह उठता हूँ हमारा हिन्दुस्तान पाक और पवित्र है, क्योंकि पुराने ॠषि उसकी रक्षा कर रहे हैं और उनकी खूबसूरती हिन्दुस्तान के पास है। लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते।

यह कवि का विलाप है कि वह पागलों या दीवानों की तरह कहते रहे हैं — “हमारी माता बड़ी महान है। बहुत शक्तिशाली है। उसे परास्त करने वाला कौन पैदा हुआ है।इस तरह वे केवल मात्र भावुकता की बातें करते हुए कह जाते हैं — “Our national movement must become a purifying mass movement, if it is to fulfil its destiny without falling into clasaa war one of the dangers of Bolshevism.”

 इससे ही साफ है कि आरएसएस, जिस विचार को आज सब पर थोपने की कोशिश में है. भगत सिंह 1928 में ही व्यर्थ बता चुके थे। इस तरह से संघ के इस षड्यंत्र को भी अगर भगत सिंह को पढ़ा जाए, तो समझा जा सकता है कि दरअसल यह सब एक धर्म विशेष के यथास्थितिवाद को सब पर थोपने की ही कोशिश है। शायद यही वजह है कि आरएसएस और उसके संगठन भगत सिंह का नाम तो लेते हैं, लेकिन उनका लिखा, कभी अपने प्रचारकों और कार्यकर्ताओं में वितरित नहीं करते। हां, हिटलर की जीवनी संघ में ज़रूर बांटी जाती रही है।

एक और हिस्सा है, जहां भगत सिंह आरएसएस से न केवल दूर खड़े होते हैं, आरएसएस के आदर्शों की पोल भी खोल देते हैं। ज़रा सोच कर देखिए कि जिस समय आरएसएस के मान्य महापुरुष सावरकर, अंग्रेज़ों के नाम माफ़ीनामा लिख रहे थे, भगत सिंह अपने पिता से इस बात का रोष प्रकट कर रहे थे कि वह उनको फांसी से बचाने की कोशिश क्यों कर रहे थे…

पिता जी, मैं बहुत दुख का अनुभव कर रहा हूँ। मुझे भय है,आप पर दोषारोपण करते हुए या इससे बढ़कर आपके इस काम की निन्दा करते हुए मैं कहीं सभ्यता की सीमाएँ न लाँघ जाऊँ और मेरे शब्द ज्यादा सख्त न हो जायें। लेकिन मैं स्पष्ट शब्दों में अपनी बात अवश्य कहूँगा। यदि कोई अन्य व्यक्ति मुझसे ऐसा व्यवहार करता तो मैं इसे गद्दारी से कम न मानता, लेकिन आपके सन्दर्भ में मैं इतना ही कहूँगा कि यह एक कमजोरी है- निचले स्तर की कमजोरी।

यह एक ऐसा समय था जब हम सबका इम्तिहान हो रहा था। मैं यह कहना चाहता हूँ कि आप इस इम्तिहान में नाकाम रहे हैं। मैं जानता हूँ कि आप भी इतने ही देशप्रेमी हैं, जितना कि कोई और व्यक्ति हो सकता है। मैं जानता हूँ कि आपने अपनी पूरी जिन्दगी भारत की आजादी के लिए लगा दी है, लेकिन इस अहम मोड़ पर आपने ऐसी कमजोरी दिखाई, यह बात मैं समझ नहीं सकता।

अन्त में मैं आपसे, आपके अन्य मित्रों एवं मेरे मुकदमे में दिलचस्पी लेनेवालों से यह कहना चाहता हूँ कि मैं आपके इस कदम को नापसन्द करता हूँ। मैं आज भी अदालत में अपना कोई बचाव प्रस्तुत करने के पक्ष में नहीं हूँ। अगर अदालत हमारे कुछ साथियों की ओर से स्पष्टीकरण आदि के लिए प्रस्तुत किए गए आवेदन को मंजूर कर लेती, तो भी मैं कोई स्पष्टीकरण प्रस्तुत न करता।

4 अक्तूबर, 1930
ज़ाहिर है कि आरएसएस के पास नायकों का भीषण अभाव है, वह यह भी नहीं कह सकता है कि उसके फलाने कार्यकर्ता ने आज़ादी की लड़ाई में भाग लिया था। इसलिए इस संकट को मिटाने के लिए वह कभी भगत सिंह और कभी सरदार पटेल के नामों का सहारा लेता है। लेकिन भगत सिंह को जिस तरह से उनके विचारों के ठीक विपरीत काम करने के लिए प्रयोग किया जा रहा है, वह इस बात का भी द्योतक है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का उच्च स्तरीय विचार मंडल भी कितना बौद्धिकता और विचारहीन है। जिस मूर्खतापूर्ण ढंग से भगत सिंह के विचारों पर ज़रा भी ध्यान दिए, सिर्फ उनकी पगड़ी को फोटोशॉप कर के, उनके नाम का इस्तेमाल आरएसएस कर रहा है, अंततः एक दिन यह संघ के लिए ही विनाशकारी होगा। भगत सिंह कोई मामूली शक्ति नहीं है, जैसी राजनैतिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक समझ भगत सिंह में 23 साल की उम्र में थी, संघ के प्रचारकों में उम्र बीत जाने पर भी नहीं है। भगत सिंह का दुरुपयोग करने की चाल, शातिर समझ कर चली गई थी, लेकिन यह उल्टी ही पड़ेगी। शायद आरएसएस के लिए ही भगत सिंह ने लिखा था,

हमारा लक्ष्य शासन-शक्ति को उन हाथों के सुपुर्द करना है, जिनका लक्ष्य समाजवाद हो। इसके लिये मज़दूरों और किसानों केा संगठित करना आवश्यक होगा, क्योंकि उन लोगों के लिये लार्ड रीडिंग या इरविन की जगह तेजबहादुर या पुरुषोत्तम दास ठाकुर दास के आ जाने से कोई भारी फ़र्क न पड़ सकेगा। 

यह वह सारी बातें और विचार हैं, जिनको आरएसएस, संविधान से ही बाहर करवा देना चाहता है। लेकिन भगत सिंह की कुर्बानी सिर्फ देश की अंग्रेज़ों से आज़ादी के लिए नहीं थी, वह धर्मांधता और साम्प्रदायिकता से भी आज़ादी के लिए थी। हमको निश्चिंत रहना चाहिए कि देश भर में और कई भगत सिंह बन रहे हैं, जो उनकी कुर्बानी को आरएसएस जैसी शक्तियों के हाथों ज़ाया नहीं जाने देंगे।

निकट भविष्य में अन्तिम युद्ध लड़ा जाएगा और यह युद्ध निर्णायक होगा। साम्राज्यवाद व पूँजीवाद कुछ दिनों के मेहमान हैं। यही वह लड़ाई है जिसमें हमने प्रत्यक्ष रूप से भाग लिया है और हम अपने पर गर्व करते हैं कि इस युद्ध को न तो हमने प्रारम्भ ही किया है और न यह हमारे जीवन के साथ समाप्त ही होगा।
20 मार्च, 1931
उसे यह फ़िक्र है हरदम नया तर्ज़े-ज़फा क्या है,
हमे यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है।
दहर से क्यों खफ़ा रहें, चर्ख़ का क्यों गिला करें,
सारा जहाँ अदू सही, आओ मुकाबला करें।
कोई दम का मेहमाँ हूँ ऐ अहले-महफ़िल,
चराग़े-सहर हूँ बुझा चाहता हूँ।
हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे रहे न रहे।
सेंट्रल जेल, लाहौर,
3 मार्च, 1931
(छोटे भाई कुलतार के नाम लिखे गए पत्र से)
 

यह लेख, भगत सिंह क्रांति सेना नाम से साम्प्रदायिक गुंडों का गैंग चलाने वाले तेजिंदर पाल सिंह बग्गा जैसे लोगों, उनको ट्विटर पर फॉलो करने वाले भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, राष्ट्र के नाम पर स्वयं की सेवा कर रहे, आर एस एस के सभी पदाधिकारियों की प्रेरणा से लिखा गया है। यह लेख बीजेपी और संघ के उन समर्थकों को समर्पित है, जो नाम भगत सिंह का लेते हैं, लेकिन उन्होंने कभी भगत सिंह को पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाई। शायद वह इसे पढ़ें तो उनके दिमाग से धर्मांधता की गंदगी साफ हो जाए। इस लेख के लिए विशेष तौर से चेतन भगत और अनुपम खेर को आभार है, क्योंकि उनकी समझ की कमी को समझ कर ही मैंने यह लेख लिखने का निर्णय लिया। यह लेख कन्हैया या उनके साथियों को समर्पित नहीं है, क्योंकि वह भगत सिंह का दर्शन समझते ही हैं।
 

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पूर्व पत्रकार, वर्तमान हिंसक मनोरोगी! https://sabrangindia.in/pauurava-patarakaara-varatamaana-hainsaka-manaoraogai/ Wed, 24 Feb 2016 11:32:36 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/02/24/pauurava-patarakaara-varatamaana-hainsaka-manaoraogai/ डॉ. अनिल दीक्षित भाषा, किसी भी संस्कृति का अहम चिह्न है और इस लिहाज से वैसे भी संघ और उसके हिंदुत्व के समर्थकों की भाषा, लगातार उनकी संस्कृति की पहचान रही है। पिछले 30 सालों में आरएसएस या विहिप से जुड़े कट्टरपंथी-विक्षिप्त लोग, लगातार मीडिया में अपने सम्पर्कों के दम पर नौकरियां जुगाड़ते आए हैं […]

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डॉ. अनिल दीक्षित

भाषा, किसी भी संस्कृति का अहम चिह्न है और इस लिहाज से वैसे भी संघ और उसके हिंदुत्व के समर्थकों की भाषा, लगातार उनकी संस्कृति की पहचान रही है। पिछले 30 सालों में आरएसएस या विहिप से जुड़े कट्टरपंथी-विक्षिप्त लोग, लगातार मीडिया में अपने सम्पर्कों के दम पर नौकरियां जुगाड़ते आए हैं और आज ऊंचे पदों पर हैं। यह सायास ही नहीं है कि तमाम मीडिया, इस वक्त हिंदू कट्टरपंथ और अंधराष्ट्रवाद को भड़काने में लगी है। अनिल दीक्षित नाम के इस शख्स (पूर्व पत्रकार कहना, पत्रकारिता का अपमान है) उसी श्रृंखला की छोटी सी कड़ी है। हालांकि अनिल दीक्षित ने काफी फजीहत होने के बाद, यह पोस्ट डिलीट कर दी, लेकिन उसका स्नैपशॉट हमारे पास है। यही नहीं, इन सज्जन ने लम्बे समय पहले नौकरी छोड़ देने के बावजूद, सोशल मीडिया पर अभी तक ख़ुद को एक बड़े अखबार में सम्पादक स्तर का पत्रकार बताया हुआ था, पोस्ट पर विवाद के बाद, इन्होंने अब ख़ुद को पूर्व पत्रकार कर दिया है। हालांकि इनकी भाषा और सोच से पत्रकार होने की हल्की सी भी गंध नहीं आती है। इनकी भाषा का संक्षिप्त विश्लेषण इस तरह देखिए…

जेएनयू में वामपंथ की काली कोख  
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दरअसल यह मुहावरा, काली कोख, सिर्फ वामपंथ से वैचारिक विरोध से नहीं आता है। यह महिलाओं के खिलाफ भी छुपे हुए नज़रिए का प्रतीक है। वरना कोख, जो कि ओवरी के लिए प्रयोग होता है, उसकी जगह स्रोत का कोई और विकल्प भी इस्तेमाल किया जा सकता था।
इनकी भी धुनाई चाहिए, वकील करें या जेल में कैदी  
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जेल के अंदर किसी व्यक्ति को न्यायिक सुरक्षा प्राप्त होती है, जो अदालत और संविधान की शक्ति से संचालित है। साफ है कि अनिल दीक्षित नाम का यह व्यक्ति आपराधिक प्रवृत्ति का व्यक्ति है, जो क़ानून को या संविधान को कुछ नहीं समझता।
ये लौंडे कैदियों का कई रात 'काम चला' सकते हैं 
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हालांकि इसके ज़रिए इस मनोरोगी ने एक तरह से समलैंगिकता के समाज में होने को मान्यता दे दी है, लेकिन यह बात यह यौन उत्पीड़न और यंत्रणा के संदर्भ में कर रहा है। मतलब साफ है कि यह व्यक्ति बदला लेने के लिए किसी के यौन उत्पीड़न का सही मानता है। मतलब मूल प्रवृत्ति में ही यह ख़तरनाक़ मनोरोगी है और कभी ख़ुद भी ऐसा कर चुका है या कर सकता है। इसको पागलखाने भेजे जाने की ज़रूरत है। हैरानी है कि इसको ऐसे बड़े अखबार ने सम्पादक बनाया था।

बलात्कार का मज़ा  
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जिस तरह से यह व्यक्ति बलात्कार को किसी वैचारिक विरोध की सज़ा के तौर पर इस्तेमाल करने का हिमायती है। कल को संभव है कि यह वैचारिक विरोध किसी महिला की ओर से आए, तब भी यह ऐसे ही तरीके का समर्थन करे। ऐसे व्यक्ति की जगह भी जेल या पागलखाना ही है। ज़रा सोच कर देखिए कि किसी भी स्थिति में बलात्कार को सज़ा के तौर पर देखने वाला व्यक्ति आखिर कितना समझदार हो सकता है।

इसकी भाषा के विश्लेषण के आधार पर यह व्यक्ति न केवल यौन कुंठित है, बल्कि हिंसक रूप से मनोरोग के स्तर पर है। इसके जितनी जल्दी हो इलाज की ज़रूरत है। दुर्भाग्य यह तो है ही कि यह एक बड़े मीडिया संस्थान में ऐसे पद पर रहा, जहां और लोगों पर भी असर डालता रहा होगा, बल्कि बड़ा दुर्भाग्य यह है कि यह देश ऐसे ही लोगों की पागल भीड़ में बदलता जा रहा है।

(लेखक, पूर्व टीवी पत्रकार हैं। टेलीविजन, रेडियो और प्रिंट समाचार मीडिया में एक दशक से अधिक का अनुभव, फिलहाल स्वतंत्र लेखन करते हैं।)

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हम जब नींद में थे, लालटेन बुझ गयी… https://sabrangindia.in/hama-jaba-nainda-maen-thae-laalataena-baujha-gayai/ Mon, 25 Jan 2016 15:17:26 +0000 http://localhost/sabrangv4/2016/01/25/hama-jaba-nainda-maen-thae-laalataena-baujha-gayai/ प्रकाश साव मयंक सक्सेना प्रकाश साव से मुलाक़ात का श्रेय, रंगकर्मी और थिएटर एक्टिविस्ट राजेश चंद्र को देता हूं, लेकिन उनसे मिलने के कुछ मिनट बाद, यह लगना ही बंद हो गया कि उनसे पहली बार मिल रहा हूं…न जाने कितनी पुरानी जान-पहचान हो…ऐसा लगा और फिर अर्से बाद इतनी आत्मीयता से प्रकाश भाई के […]

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प्रकाश साव

मयंक सक्सेना

प्रकाश साव से मुलाक़ात का श्रेय, रंगकर्मी और थिएटर एक्टिविस्ट राजेश चंद्र को देता हूं, लेकिन उनसे मिलने के कुछ मिनट बाद, यह लगना ही बंद हो गया कि उनसे पहली बार मिल रहा हूं…न जाने कितनी पुरानी जान-पहचान हो…ऐसा लगा और फिर अर्से बाद इतनी आत्मीयता से प्रकाश भाई के आगरा के उस छोटे से कमरे में ज़मीन पर बैठ कर खाना खाया कि आत्मा कई दिन तक तृप्त रही…फरवरी 2013 का समय था…प्रकाश भाई ने तब भी आंसू भरी आंखों से ज़िक्र किया था कि उनका केंद्रीय हिंदी संस्थान में किस कदर उत्पीड़न हो रहा था…जातीय टिप्पणियां भी होती थी…मैंने लिखने की बात की, तो अनुनय कर के मुझे न लिखने को मना लिया…प्रकाश भाई को दवाएं…ढेर सारी दवाएं खाते देखा था…प्रत्यूष उस समय 3 साल का भी नहीं था शायद…उसके साथ, जी भर खेला…और चला आया…अब प्रकाश भाई चले गए हैं…हां, आत्महत्या की है उन्होंने…उसी उत्पीड़न से निराश हो कर…उनकी कुछ कविताएं पढ़िए…जीते जी, जिसे आप नहीं समझ सके…उसकी कविताएं उसकी पूरी ज़िंदगी का पता देती हैं…प्रकाश भाई, आप मार गए हम सबको…न जाने कब तक, हम सब ऐसे ही मरते हुए ज़िंदा रहने को अभिशप्त रहेंगे…
 
युवा कवि प्रकाश की कुछ कविताएं….
 
आत्मन् ! ऐसे ही

नदी भागी जाती है
सागर की ओर
पांवों पर झुक कर
लीन हो जाती है
यह नमस्कार की नित्यलीला है
आत्मन ! 
ऐसे ही नमस्कार करता हूँ !
 
 
लालटेन

हर आदमी की आंख में
लालटेन उठाकर झांकता था
हर आंख में एक छोटा- सा गड्ढा था
जिसमें कीचड़ भरा थोड़ा- सा पानी था
और पानी में रोशनी नहीं थी
पूरी पृथ्वी पर लिए- लिए जलती लालटेन
घूमता रहा दौड़ता- भागता
मेरे पास कुछ नहीं था कभी भी
फकत एक जलती लालटेन के सिवाय
और इसी लालटेन की रोशनी
मैं हर आंख में ढूढता था
यह लालटेन कब से मेरे साथ थी
या मैं इस लालटेन को कब मिला
लालटेन ने मुझे खोजा था
या लालटेन मेरे द्वारा खोज ली गयी थी
यह उस क्षण तक मालूम नहीं था
जब मैं चारपाई पर लेटा आखिरी सांसें ले रहा था
लालटेन चारपाई के पास पड़ी
थिर जल रही थी
दस-बीस लोग पास खड़े- बैठे थे
बिलखते जाते थे पूछते आखिरी इच्छा
मूर्छा में मैंने जाने क्या कहा 
किसी जनम में मुझे याद आया
कि मेरी इच्छा और मूर्छा के बीच
लालटेन की पीली रोशनी झर रही थी !
 
अकथ

मेरे पास कहने को कुछ नहीं था
सो जन्मों से कहता जाता था
कहने को होता 
तो कहकर चुक जाता
कहने को कुछ नहीं था
सो वाणी डोलती न थी
केवल कुछ तरल सा हुआ करता था
कहने को कुछ नहीं था
सुबह कोहरा रहता था
समय चुपचाप बहता था
मैं हर बार एक हिलते पौधे से 
एक अंजुरी फूल चुनकर
धारा में डाल देता था
और चुपचाप प्रणाम करता था !
 
जन्म की खबर

मुझे पता नहीं था मैं जन्मा था
बहुत बाद में बताया गया
कि तुम जन्मे थे
अपने जन्म की मुझे कभी खबर नहीं थी
न भूला था
भूल जाता तब जब खबर होती
और खबर होती तो याद रखता
जन्म की खबर किसी ने बाद में
मुझ पर चिपका दी
चिपके हुए को अनजाने मैं ढोता रहा
नदियों में पानी बहता रहा 
चाँद से रोशनी झरती रही
रोशनी में नहाते हुए 
मेरी मुस्कुराहट में एक सोच थी
सचमुच कभी मेरा जन्म हुआ होता
और जनमने से पहले जनमने की मीठी खबर 
मेरे रोओं में खिलती !
 
अ-उपस्थित

वहां एक दृश्य असहाय- सा चुपचाप पड़ा था
दृश्य का कोई दर्शक नहीं था
दृश्य के पास एक गाना रखा हुआ था
गाना गाया नहीं जा सकता था
कोई गायक नहीं था
एक हूक थी पसरा हुआ आकाश था
एक विस्मय था और अनंत था !
 
सुरति

वह सारे नामों को भूल गया था
अचानक उसे अपना नाम याद आता था
वह उसे पुकारता था—आकाश ! आकाश !! आकाश !!!
आकाश तालियों से गडगडा उठता था !
 
ललाट

मै उसके विराट ललाट को एकटक देखता था
मै उसका तिलक करना चाहता था
मै हाथ बढ़ाता था—–
सामने पृथ्वी का मस्तक उठ आता था
मै ठिठककर रुकता था
फिर तिलक को हाथ बढ़ाता था 
कि अन्तरिक्ष का मस्तक सामने झुक आता था
मै रूककर उसके मस्तक को निहारता था
कि शून्य का विराट ललाट दिख जाता था
हंसकर मैंने अपने संक्षिप्त ललाट पर तिलक कर लिया
अब पृथ्वी,अन्तरिक्ष और शून्य
लालच से मेरा ललाट निहारते थे !
 
हरे नृत्य का दृश्य

वृक्ष का हरा वृक्ष पर नृत्य करता था
नृत्य की थिरकन से कांपकर 
उस पर आया एक पक्षी मुड़कर
वापस आकाश में उड़ जाता था 
पृथ्वी का रस उसकी पुतलियों में दिपकर
उसे पास बुलाता था
वह अपने पंखों और हवा के साथ नृत्य करता हुआ
पुनः वृक्ष के हरे पर उतरता था
हवा की बांह में
वृक्ष और चिड़िया के हरे का
युगल नृत्य एक समय में अहर्निश होता था
नृत्य को मुस्कुराता हुआ ऊपर से आकाश निहारता था
नीचे हिलता हुआ तरल जल चुपचाप बहता था !
 
 
यही तो घर नहीं और भी रहता हूँ
जहाँ-जहाँ जाता हूँ रह जाता हूँ
जहाँ-जहाँ से आता हूँ कुछ रहना छोड़ आता हूँ
जहाँ सदेह गया नहीं
वहाँ की याद आती है
याद में जैसे रह लेता हूँ
तो थोड़ा-सा रहने का स्पर्श
वहाँ भी रह जाता है
जो कुछ भी है जितना भी
नहीं भी जो है जितना भी
वहाँ-वहाँ उतना-उतना रहने की इच्छा से
एक धुन निकलती है
इस धुन में घुल जाता हूँ
होने की सुगन्ध के साथ।
 
मैं आया ही था कि जाना आ गया

धुआँती सुबह की तरह मैं
अस्तित्व के बरामदे में प्रवेश करता था
कि साँझ की तरह मैं ही वहाँ रिक्त
लेटा पड़ा हुआ मिल जाता था
किसी जन्म का कुछ पता नहीं चलता था
व्याकुल मैं उसे कवच-सा ढूँढ़ता था
कि मृत्यु अपने रथ पर आरूढ़
सामने मुस्कुराती खड़ी मिल जाती थी

जो नहीं होता था
उसका उलट पहले हो जाता था !
 
(प्रकाश साव, युवा कवि थे…शिल्पायन द्वारा प्रकाशित कविता संग्रह 'होने की सुगंध' के लिए भारतीय भाषा परिषद् द्वारा सम्मानित, पंजाबी में कविताओं का अनुवाद, मलयालम और अंग्रेज़ी में जारी…मंगाने के लिए शिल्पायन पब्लिशर्स, 10295, स्ट्रीट नम्बर 1, वेस्ट गोरखपार्क, शाहदरा, दिल्ली-110032, फोन – 9868218917 से सम्पर्क किया जा सकता है…)
 
 

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